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भारत में न्यायाधिकरणों की एक विविध प्रणाली है जो न्यायिक प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये सामान्य न्यायालयों के अलावा विशिष्ट मामलों के लिए स्थापित किए गए हैं। न्यायाधिकरणों की स्थापना विभिन्न कानूनों द्वारा की गई है और उनके कार्य क्षेत्र और अधिकार क्षेत्र अलग-अलग होते हैं।
न्यायाधिकरणों के प्रकार:
1. प्रशासनिक न्यायाधिकरण:
ये न्यायाधिकरण सरकारी नीतियों और कार्यों से संबंधित विवादों का निपटारा करते हैं।
उदाहरण: केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (CAT), राज्य प्रशासनिक न्यायाधिकरण (SAT), आयकर अपील न्यायाधिकरण (ITAT)
कार्य: सरकारी कर्मचारियों के संबंध में, कर विवादों के संबंध में, आदि।
2. वित्तीय न्यायाधिकरण:
ये न्यायाधिकरण वित्तीय मामलों से संबंधित विवादों का निपटारा करते हैं।
उदाहरण: कंपनी कानून अपील न्यायाधिकरण (CLAT), राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (NCDRC), प्रतिभूति अपील न्यायाधिकरण (SAT)
कार्य: कंपनी कानूनों के संबंध में, उपभोक्ता विवादों के संबंध में, शेयर बाजार नियमों के संबंध में, आदि।
3. श्रम न्यायाधिकरण:
ये न्यायाधिकरण श्रम संबंधों से संबंधित विवादों का निपटारा करते हैं।
उदाहरण: श्रम न्यायाधिकरण, श्रम आयुक्त का कार्यालय
कार्य: मजदूरी, छंटनी, काम करने की स्थिति, आदि से संबंधित विवादों का निपटारा।
4. भूमि अधिग्रहण न्यायाधिकरण:
ये न्यायाधिकरण भूमि अधिग्रहण से संबंधित विवादों का निपटारा करते हैं।
कार्य: भूमि अधिग्रहण के मुआवजे का निर्धारण, आदि।
5. अन्य न्यायाधिकरण:
पर्यावरण न्यायाधिकरण: पर्यावरण से संबंधित विवादों का निपटारा।
पेटेंट और डिजाइन न्यायाधिकरण: पेटेंट और डिजाइन से संबंधित विवादों का निपटारा।
क्षेत्रीय न्यायाधिकरण: क्षेत्रीय मुद्दों से संबंधित विवादों का निपटारा।
न्यायाधिकरणों की विशेषताएं:
विशेषज्ञता: न्यायाधिकरण विशिष्ट क्षेत्रों में विशेषज्ञता रखते हैं, जिससे वे संबंधित मामलों का कुशलतापूर्वक निपटारा कर सकते हैं।
तेज न्याय: न्यायाधिकरणों में मामलों को तेजी से निपटाने के लिए सरलीकृत प्रक्रियाएं हैं।
वैकल्पिक विवाद समाधान: न्यायाधिकरण अक्सर मध्यस्थता, सुलह, आदि जैसे वैकल्पिक विवाद समाधान तरीकों को प्रोत्साहित करते हैं।
न्यायाधिकरणों का महत्व:
न्यायिक प्रणाली का भार कम करना: सामान्य न्यायालयों का भार कम करके न्यायिक प्रक्रिया को कुशल बनाना।
विशेषज्ञता: विशिष्ट क्षेत्रों में विशेषज्ञता के कारण मामलों का अधिक उचित निपटारा।
सुलभता: न्यायाधिकरणों में सामान्य न्यायालयों की तुलना में मामलों को दर्ज करना और उनका निपटारा करना अधिक सुलभ है।
न्यायाधिकरणों की चुनौतियाँ:
संसाधनों की कमी: कुछ न्यायाधिकरणों में पर्याप्त संसाधन नहीं हैं, जिससे उनका काम प्रभावित हो सकता है।
विशेषज्ञता की कमी: कुछ न्यायाधिकरणों में आवश्यक विशेषज्ञता वाले अधिकारी नहीं हैं।
विवादों में वृद्धि: कुछ न्यायाधिकरणों में मामलों की संख्या बढ़ रही है, जिससे उन्हें निपटाने में देरी हो सकती है।
निष्कर्ष:
भारत में न्यायाधिकरणों की प्रणाली देश की न्यायिक प्रणाली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। वे विशेष मामलों को कुशलतापूर्वक और प्रभावी ढंग से निपटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हालांकि, संसाधनों की कमी, विशेषज्ञता की कमी और विवादों की संख्या में वृद्धि जैसी चुनौतियां अभी भी मौजूद हैं।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि न्यायाधिकरणों की भूमिका कानूनों के अनुसार निर्धारित की जाती है और उनके कार्य क्षेत्र और अधिकार क्षेत्र अलग-अलग होते हैं। यह जानकारी सामान्य है और किसी भी विशेष न्यायाधिकरण के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए, संबंधित कानूनों और नियमों का अध्ययन करना आवश्यक है।
पृष्ठभूमि:
भारत की स्वतंत्रता से पूर्व कलकत्ता, मद्रास और बॉम्बे में सर्वोच्च न्यायालय अस्तित्व में थे।
वर्तमान सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना 26 जनवरी, 1950 को भारतीय संविधान लागू होने के साथ हुई।
संगठन:
सर्वोच्च न्यायालय में अधिकतम संभव शक्ति 34 हैं - वर्तमान में भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) और 31 अन्य न्यायाधीश।
संसद के पास न्यायाधीशों की संख्या को समायोजित करने की शक्ति है।
नियुक्तियाँ:
न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, आवश्यकतानुसार CJI और अन्य न्यायाधीशों के परामर्श से।
चयन प्रक्रिया में न्यायिक व्याख्या के माध्यम से स्थापित "कॉलेजियम प्रणाली" का मार्गदर्शन मिलता है।
योग्यताएँ:
नियुक्ति के लिए पात्र होने के लिए, व्यक्तियों को भारतीय नागरिक होना चाहिए और कम से कम पाँच वर्षों के लिए उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, या कम से कम दस वर्षों के लिए उच्च न्यायालय के अधिवक्ता, या राष्ट्रपति की राय में एक प्रतिष्ठित न्यायविद होना चाहिए।
कार्यकाल और निष्कासन:
न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक पद पर बने रहते हैं।
संसद द्वारा दोनों सदनों में विशेष बहुमत से महाभियोग की एक जटिल प्रक्रिया के माध्यम से निष्कासन संभव है।
शक्तियाँ और क्षेत्राधिकार:
मूल क्षेत्राधिकार: केंद्र और राज्यों के बीच विवाद।
न्यायादेश क्षेत्राधिकार: मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश जैसे लेख जारी करना।
अपीलीय क्षेत्राधिकार: निचली अदालतों के फैसलों के खिलाफ अपील की सुनवाई, जिसमें संवैधानिक, दीवानी और आपराधिक मामले शामिल हैं।
सलाहकार क्षेत्राधिकार: राष्ट्रपति को लोक महत्व के मामलों पर सलाह प्रदान करना।
न्यायिक समीक्षा: कानूनों और कार्यकारी कार्यों को असंवैधानिक (अल्ट्रा वायर्स) घोषित करना।
स्वतंत्रता:
संविधान नियुक्ति, कार्यकाल सुरक्षा, निश्चित सेवा शर्तें, वित्तीय स्वायत्तता और कार्यपालिका या विधायिका के हस्तक्षेप से स्वतंत्रता के प्रावधानों के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय की स्वतंत्रता की रक्षा करता है।
अतिरिक्त बिंदु:
समकालीन मुद्दे:
कॉलेजियम प्रणाली बहस का विषय है, कुछ लोग न्यायिक नियुक्तियों में अधिक पारदर्शिता और सरकारी भागीदारी की वकालत करते हैं।
"मास्टर ऑफ द रोस्टर" अवधारणा, CJI को पीठों के गठन और मामलों के आवंटन की शक्ति प्रदान करती है, ने न्यायिक प्रशासन और सत्ता के संभावित संकेंद्रण पर भी चर्चा छेड़ दी है।
महत्व: भारत का सर्वोच्च न्यायालय संविधान को बनाए रखने, मौलिक अधिकारों की रक्षा करने और कानून के शासन को सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसके निर्णयों के महत्वपूर्ण सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक निहितार्थ हैं।
जनता की धारणा: सर्वोच्च न्यायालय को आम तौर पर भारतीय जनता द्वारा उच्च सम्मान दिया जाता है। हालांकि, किसी भी संस्था की तरह, इसे जनता का विश्वास बनाए रखने, समय पर न्याय सुनिश्चित करने और जटिल कानूनी और सामाजिक मुद्दों को नेविगेट करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
जिन कानून और नियमों को ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में शासन व्यवस्था संचालित करने के लिए बनाया गया जो आगे चलकर भारतीय परिपेक्ष संविधान निर्माण के काम आए। जो कि संवैधानिक विकास कहलाया।
31 दिसम्बर 1600 में अंग्रेजी ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत में व्यापार करने के लिए आई। ईस्ट इण्डिया कम्पनी धीरे - धीरे यहां के शासक बन बैठे।
1757 के प्लासी के युद्ध के बाद दिवानी और राजस्व अधिकार प्राप्त हो गए। व्यवस्थित शासन की शुरूआत 1773 रेग्यूलेटिंग एक्ट से की गई। इसके प्रमुख प्रावधान निम्न हैं -
ब्रिटीश क्राउन का कम्पनी पर नियन्त्रण लाया गया।
केन्द्रीय शासन की नींव डाली गई।
बंगाल के गर्वनर वारेन-हेस्टिंग्स को गर्वनर जनरल बना दिया गया। मद्रास व बम्बई के गर्वनर इसके अधीन रखे गए।
गर्वनर जनरल 4 सदस्यीय कार्यकारिणी बनाई गई। जिसके सारे निर्णय बहुमत से लिए जाते थे।
कलकत्ता में एक सर्वोच्च न्यायलय की स्थापा की गई। जिसमें मुख्य न्यायाधीश हाइट चैम्बर और लिमेस्टर को रखा गया। इसके विरूद्ध अपील लंदन की प्रिंवी काउंसिल में की जा सकती थी।शासन चलाने हेतु बोर्ड आॅफ कन्ट्रोल और बोर्ड आॅफ डायरेक्टर बनाए गए।
व्यापार की सभी सूचनाएं क्राउन को देना सुनिश्चित किया।
गर्वनर जनरल की र्काकारिणी में से 1 सदस्य कम कर दिया गया।
कम्पनी के व्यापारिक व राजनैतिक कार्य अलग-2 किये गए।
व्यापारिक कार्य बोर्ड आॅफ डायरेक्टर्स के तथा राजनैतिक कार्य बोर्ड आॅफ कन्ट्रोल के अधीन रखे गए।
इसमें शासन ठीक था। इसलिए 20 वर्ष आगे बढ़ा दिया गया।
1813 का एक्ट:- कम्पनी पर शासन का भार अधिक होने के कारण व्यापार का क्षेत्र सभी लोगो के लिए खोल दिए गए। लकिन चीन के साथ चाय के व्यापार पर एकाधिकार बना रहा।
भारत में इसाई धर्म के प्रचार की अनुमति दी गई। और भारतीय शिक्षा साहित्य के पुर्नउत्थान हेतु 1 लाख रूपये व्यय करने का प्रावधान रखा गया।
गवर्नर जनरल को गर्वनर जनरल आॅफ इण्डिया बना दिया गया।
पहले गर्वनर जनरल आॅफ इण्डिया विलियम बैटिंग बने।
टी. बी. मैकाले को विधि सदस्य के रूप में जोड़ा गया। जिसे कार्यकारिणी में मत देने का अधिकार नहीं था।
मैकाले कमीशन की सिफारिशों के आधार पर भारत में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी बनाया गया तथा सरकारी नौकरीयों में भेदभाव निसेधित किया गया।
टी. बी. मैकाले ने शिक्षा का "अद्योविष्पन्धन सिद्धान्त" या छन - छन के सिद्धान्त या ड्रेन थ्योरी दी। जिसमें समाज के अन्य वर्ग को भी शिक्षा देना तय किया गया ।
इसमें सती प्रथा, दास प्रथा और कन्यावध को अवैध घोषित किया गया।
बोर्ड आॅफ डायरेक्टर्स में सदस्यों की संख्या बढाई गई।
पी. डब्यु. डी. तथा सार्वजनिक निर्माण विभाग बनाया गया।
सिविल सेवकों की खुली भर्ती परिक्षा आयोजित करने का प्रावधान।
1857 की क्रांति के बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन समाप्त कर भारत का शासन सीधे ब्रिटीश ताज के अधीन किया गया।
गर्वनर जनरल आॅफ इण्डिया को वायसराय की पद्वी दी गई।
लार्ड कैनिन पहले वायसराय बने।
एक भारत-सचित का पद सृजित किया गया। जिसकी कार्यकारिणी में 15 सदस्य रखे गए। 7 मनोनित और 8 निर्वाचित।
बोर्ड आॅफ डाॅयरेक्टर्स एवं बोर्ड आॅफ कन्ट्रोल को समाप्त कर दिया गया।
भारत सचिव चाल्र्स वुड को बनाया गया।
इन्होंने शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए वुड डिस्पेच दिाया जिसमें प्राथमिक प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देना निर्धारित था। इसलिए वुड डिस्पेच को "शिक्षा का मैग्नाकार्टा" कहा जाता है।
बम्बई, कलकत्ता और मद्रास में विश्व विद्यालयों की स्थापना की गई।
भारत की राजधानी कलकत्ता में केन्द्रीय विधान परिषद बनाई गई और वायसराय या गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या 6 से 12 के मध्य रखी गई।बम्बई, मद्रास, और कलकत्ता में हाईकोर्ट की स्थापना की गई।
वायसराय को अध्यादेश जारी करने का अधिकार दिया गया। जो 6 माह से अधिक लागू नहीं रह सकता था।
विभागीय वितरण प्रणाली लागू की गई।(लार्ड कैनिंग के द्वारा)
1885 में कांग्रेस की स्थापना के बाद सुधार की मांगे निरन्तर तीव्र होती चली गई। और अप्रत्यक्ष निर्वाचन पद्वति को प्रारम्भ किया गया। अर्थात् बड़े उद्योगपति, जमीदार और व्यापारी गैर सरकारी सीटों के लिए चुनाव लड़ सकते है।
बजट पर बहस करने का अधिकार दिया गया। लेकिन मत देने का अधिकार नहीं था।
1909 का मार्लेमिन्टो सुधार अधिनियम
जोन मार्ले भारत सचिव और लार्ड मिन्टो वायसराय थे।
इन्होंने सुधार कानून दिया जिनके प्रावधान निम्न है।
मुसलमानों को साम्प्रदायिक निर्वाचन क्षेत्र दिए गए। और एस. पी. सिन्हा को वायसराय या गर्वनर-जनरल की कार्यकारिणी में शामिल किया गया।
इसे मान्टेस्क्यू चेम्सफोर्ड सुधार कानून भी कहा गया। इसकी घोषणा 20 अगस्त 1917 से प्रारम्भ की गई। जिसके प्रावधान निम्नलिखित थे।
प्रान्तों में द्धेद्य शासन प्रारम्भ:- जनक - लियोनिल कार्टिस
विषयों का प्रारूप 2 भागों में बांटा गया।
1.आरक्षित 2. हस्तांनान्तरित
आरक्षित विषयों पर गवर्नर जनरल और उसकी कार्यकारीणी का शासन था। जो किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं थी। इसमें प्रमुख विषय - रक्षा, वित, जेल, पुलिस, विदेशी संबंध , ईसाईयों के कानून, अंग्रेजी शिक्षा, सिंचाई आदि रखे गये।
जैसे - स्थानीय शासन, मनोरंजन, कृषि, सहकारिता और पर्यटन।
भारत में द्विसदनीय विधायिका बनाई गई जिसका एक सदन केन्द्रीय विघानसभा जिसमें 104 निर्वाचित 41 मनोनित सदस्य थे। तथा दुसरा सदन राज्य परिषद रखा गया।जिसकी सदस्या संख्या 60 रखी गई। इसमें भी मनोनित 27 एवं निर्वाचित 33 सदस्य थे।
ब्रिटेन में एक हाईकमिश्नर का पर सृजित किया गया। राष्ट्रमंडल देशों के साथ मिलकर कमिश्नर की नियुक्ति की जाती है। भारत इसका सदस्य गई 1949 में बना।
फेडरल लोक सेवा आयोग का गठन किया गया।
महिलाओं को सिमित क्षेत्रों में मतदान डालनें का अधिकार दिया गया।
साम्प्रदायिक निर्वाचन का विस्तार किया गया।
यह अधिनियम 1 अप्रैल 1921 से प्रारम्भ हुआ और 1 अप्रैल 1937 तक रहा। बालगंगाधर तिलक ने इसे "एक बिना सूरज का अंधेरा" कहा।
इसकी समीक्षा के लिए 10 साल बाद एक राॅयल कमीशन के गठन का प्रावधान किया गया।
1928 की नेहरू रिपोर्ट
1929 लाहौर अधिवेशन (पुर्ण स्वराज्य की मांग)
1930,31,32 -तीन गोलमेज सम्मेलन
इन सभी को ध्यान में रखते हुए 1935 का भारत शासन अधिनियम लाया गया।
इसकी प्रमुख विशेषतांए निम्न है।
इसमें प्रस्तावना का अभाव था।
प्रान्तों में द्वैद्य शासन हटाकर केन्द्र में लगाया गया।
केन्द्र एंव राज्यों के मध्य शक्तियों का विभाजन तीन सुचियों में किया गया।
(A) केन्द्र सूची(97)
(B) राज्य सुची(66)
(C)समवर्ती सूची(47)
फेडरल सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई। जो अपील का सर्वोच्च न्यायालय नहीं था। इसके विरूद्ध अपील लंदन की प्रिवी कांउसिल में सम्भव थी।
रिजर्व बैंक आॅफ इण्डिया की स्थापना का प्रावधान किया गया।
उत्तरदायी शासन का विकास किया गया।
अखिल भारतीय संद्य की स्थापना का प्रावधान था।जिसमें देशी रियासतों का मिलना ऐच्छिक रखा गया। केन्द्रीय एंव राज्य विद्यायिकाओं का विस्तार किया गया।
पं. जवाहर लाल नेहरू ने इस अधिनियम को एक ऐसी मोटर कार की सज्ञा दी "जिसमें ब्रैक अनेक है लेकिन इंजिन नहीं।"
इसका लगभग 2/3 भाग आगे चलकर संविधान में रखा गया।
यह अधिनियम अन्य की तुलना में महत्वपूर्ण रहा।
संविधान निर्माण की सर्वप्रथम मांग बाल गंगाधर तिलक द्वारा 1895 में "स्वराज विधेयक" द्वारा की गई।
1916 में होमरूल लीग आन्दोलन चलाया गया।जिसमें घरेलू शासन सचांलन की मांग अग्रेजो से की गई।
1922 में गांधी जी ने संविधान सभा और संविधान निर्माण की मांग प्रबलतम तरीके से की और कहा- कि जब भी भारत को स्वाधीनता मिलेगी भारतीय संविधान का निर्माण -भारतीय लोगों की इच्छाओं के अनुकुल किया जाएगा।
अगस्त 1928 में नेहरू रिपोर्ट बनाई गई। जिसकी अध्यक्षता पं. मोतीलाल नेहरू ने की। इसका निर्माण बम्बई में किया गया।
इसके अन्तर्गत ब्रिटीश भारत का पहला लिखित संविधान बनाया गया। जिसमें मौलिक अधिकारों अल्पसंख्यकों के अधिकारों तथा अखिल भारतीय संघ एवम् डोमिनियम स्टेट के प्रावधान रखे गए।
इसका सबसे प्रबलतम विरोध मुस्लिम लीग और रियासतों के राजाओं द्वारा किया गया।
1929 में जवाहर लाला नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का लाहौर सम्मेलन हुआ। जिसमें पूर्ण स्वराज्य की मांग की गई।
1936 में कांग्रेस का फैजलपुर सम्मेलन आयोजित किया गया। जिसमें कांग्रेस के मंच से पहली बार चनी हुई संविधान सभा द्वारा संविधान निर्माण की मांग की गई।
मार्च 1942 में दुसरे विश्व युद्व से उपजी परिस्थितियों के उपरान्त क्रिप्स मिशन भारत भेजा गया। जो एक सदस्य का था। इसने युद्ध के बाद भारत में उतरदायी शासन की मांग को मानने का वचन दिया। लेकिन यहां भी 'डोमिनियम स्टेट' अवधारणा रखी गई।
जिसे कांग्रेस लीग और गांधीजी ने नामंजूर कर दिया।तथा गांधीजी ने इस मिशन को 'पोस्ट डेटेड चैक' की संज्ञा दी।
अर्थात अंग्रेज एक ऐसा दिवालिया बैंक है जो भविष्य में कभी भी फेल हो सकता है।
भारत में शासन की अव्यवस्था को देखते हुए तत्कालिन वायसराय लार्ड वेवल ने जून 1945 में शिमला में सर्वदलीय बैठक बुलायी जो किसी भी तार्किक नतीजे पर नहीं पहुंची। इस सम्मेलन को 'शिमला सम्मेलन' या वेवल योजना के नाम से जाना जाता है।
मार्च 19466 में केबिनेट मिशन भारत भेजा गया। जिसकी अघ्यक्षता 'सर पैथिक लारेन्स' ने की तथा दो अन्य सदस्य सर स्टेफर्ड क्रिम्स और ए. वी. अलेक्जेण्डर थे।
इस आयोग द्वारा तत्कालीन समय में शासन का सही निर्धारण करने का प्रयास किया गया। इसकी सिफारिशों के आधार पर संविधान सभा की रचना की गई जो निम्न प्रकार है-
संविधान सभा में कुद सदस्य संख्या 389 निर्धारित की गई।
ब्रिटीश भारत से -292 सदस्य
चीफ कमीशनरी से - 4 सदस्य
देशी रियासतों से - 93 सदस्य रखे गये।
ब्रिटीश भारत और चीफ कमिश्नरी क्षेत्रों से सदस्यों का निर्वाचन किया गया।
प्रत्येक 10 लाख की जनसंख्या पर 1 सदस्य को चुना जाएगा।
सदस्यों को 3 भागों में बांटा गया-
(1) सामान्य (2) मुस्लिम (3) सिख(पंजाब)
पृथक पाकिस्तान की मांग को नामंजूर कर दिया।
इसी आयोग की सिफारिशों के आधार पर जुलाई 1946 में चुनाव सम्पन्न कराए गए। जिसमें कांग्रेस ने 208 सीटें तथा मुस्लिम लीग 73 तथा अन्य 15 सीटे जीते।
चार चीफ कमिश्नरी क्षेत्रों में
दिल्ली
कुर्ग(कर्नाटक)
अजमेर-मेरवाड़ा
ब्रिटिश ब्लूचिस्तान(पाक)
इसी के आधार पर अन्तरीम सरकार का गठन 1946 में किया गया। जिसमें 2 सितम्बर 1946 से कार्य करना प्रारम्भ किया जिसमें मुस्लिम लीग ने भाग नहीं किया।
इस सरकार का अध्यक्ष तत्कालीन वायसराय लार्ड वेवल था। तथा उपाघ्यक्ष पं. जवाहर लाल नेहरू थे।
इस सरकार ने सदस्य संख्या नेहरू सहित 14 रखी गई।
26 अक्टूबर 1946 को इस सरकार का पुर्नगठन किया गया। लीन ने 5 प्रतिनिधि इसमें शामिल किए गए।
मार्च 1947 में माउण्ट बेटन भारत के वायसराय बने। इन्होंने 3 जुन 1947 को एक योजना प्रस्तुत की जिसे विभाजन/ माउण्ट बेटन/ जून योजना के नाम से जाना जाता है। इसे 18 जुलाई 1947 को ब्रिटेन के राजा ने पास कर दिया।
इस योजना की क्रियान्विती 15 अगस्त 1947 के भारत स्वतंन्त्रता अधिनियम में हुई। इसके निम्न प्रावधान थे-
भारत को 2 डोमिनियम स्टेटों में बांटा गय-
(1) भारत (2) पाकिस्तान
भारत से ब्रिटीश सम्राट के सभी अधिकार हटा लिए गए।
पुर्वी बंगाल, पश्चिमी बंगाल, सिन्ध, उत्तर-पश्चिमी सीमान्त प्रदेश तथा असम का सिलहर जिला पाकिस्तान को दे दिया गया।
भारत का शासन जब तक संविधान का निर्माण पुर्णत न हो। 1935 के भारत शासन अधिनियम से चलाना तया किया गया।
संविधान सभा को सम्प्रभू/ सम्प्रभूता की स्थिति प्राप्त हो गई।
भारत का वायसराय माउण्ट बेटन बना रहा। लेकिन पाकिस्तान में गर्वनर जनरल या वायसराय मोहम्मद अली जिन्ना बनें।
विभाजन के बाद संविधान सभा का पुनर्गठन किया गया।
9 दिसम्बर 1946 को संविधान सभा की पहली बैठक हुई। जिसमें अस्थायी अध्यक्ष सच्चिदानन्द सिन्हा को बनाया गया।
दुसरी बैठक 11 दिसम्बर 1946 को हुई। जिसमें स्थायी अघ्यक्ष डां. राजेन्द्र प्रसाद को बनाया गया। इसी बैठक में उपाध्यक्ष एच. सी. मुखर्जी थे तथा सवैधानिक सलाहकार बी. एन. राव थे।
तीसरी बैठक 13 दिसम्बर 1946 को बुलाई गई, जिसमें नेहरू जी द्वारा 'उदे्देश्य प्रस्ताव' पेश किया गया। जिसे संविधान सभा ने 22 जनवरी 1947 को अपना लिया। इन्ही उद्देश्य प्रस्तावों के आधार पर भारतीय संविधान की प्रस्तावना निर्मित की गई।
विधान सभा द्वारा संविधान निर्माण हंतु कुछ समितियों का गठन किया गया जो निम्न प्रकार थी
समिति अध्यक्ष
1 संघ शक्त् समिति जवाहर लाल नेहरू
2 संविधान समिति जवाहर लाल नेहरू
3 राज्यों के लिए समिति जवाहर लाल नेहरू
4 राज्यों तथा रियासतों से परामर्श समिति सरदार पटेल
5 मौलिक अधिकार एवं अल्पसंख्यक समिति सरदार पटेल
6 प्रान्तीय संविधान समिति सरदार पटेल
7 मौलिक अधिकारों पर उपसमिती जे. बी. कृपलानी
8 झण्डा समिति अध्यक्ष जे. बी. कृपलानी
9 प्रक्रिया नियम समिति(संचालन) राजेद्र प्रसाद
10 सर्वोच्च न्यायलय से संबधित समिति एस. एच. वर्धाचारियर
11 प्रारूप संविधान का परीक्षण करने वाली समिति अल्लादी कृष्णा स्वामी अरयर
12 प्रारूप समिति/ड्राफटिंग/मसौदा समिति डा. भीमराव अम्बेडकर
13 संविधान समीक्षा आयोग एम एन बैक्टाचेलेया
प्रारूप समिति के 7 सदस्य निम्न थे
डाॅ. बी. आर. अम्बेडकर
अल्लादी कृष्णा स्वामी अयंगर
एन. गोपाल स्वामी अयंगर
कन्हैयालाल माणिक्यलाल मुशी
एन. माधवराज -यह बी. एल. मित्तल के स्थान पर आये थे।
टी. टी. कृष्णामाचारी - यह डी. पी. खेतान के स्थान पर आये थे।
मोहम्मद सादुल्ला
प्रारूप समिति 29 अगस्त 1947 को गठित की गई थी।
संविधान सभा में पहली बैठक क अन्तर्गत 207 सदस्यों ने भाग लिया।
संविधान सभा में कुल 15 महिलाओं ने भाग लिया। तथा 8 महिलाओं ने संविधान पर हस्ताक्षर किए।
15 अगस्त 1947 को भारत विभाजन उपरान्त संविधान सभा में सदस्य संख्या घटकर 324 रह गई।
अक्टुबर 1947 को संविधान सभा में सदस्य संख्या घटकर 299 रह गई।
संविधान सभा द्वारा संविधान के कुल 3 वाचन सम्पन्न किए गए।
अन्तिम वाचन 17 नवम्बर 1949 से 26 नवम्बर 1949 तक।
कुल बैठके 105 तथा 12 अधिवेशन सम्पन्न किए गए। भारत विभाजन से पूर्व 4 अधिवेशन सम्पन्न किए गए।
7 वे अधिवेशन में महात्मा गांधी को श्रद्वांजली अर्पित कि गई।
मई 1949 में भारत ने राष्ट्रमण्डल की सदस्यता ग्रहण करना सुनिश्चित किया।
भारतीय संविधान सहमति और समायोजन के आधार पर बनाया गया है।
भारतीय संविधान सभा ने दो प्रकार से कार्य किया।
(1) जब संविधान निर्माण का कार्य किया जाता तो इसकी अध्यक्षता राजेन्द्र प्रसाद करते तथा
(2) जब संविधान सभा विधायिका के रूप में कार्य करती है तो अध्यक्षता गणेश वासुदेव मावंलकर द्वारा की जाती।
संविधान सभा की अंतिम बैठक संविधान निर्माण हेतु 24 नवम्बर 1949 को आयोजित की गई। इस दिन 284 लोगों ने संविधान पर हस्ताक्षर किए।
हस्ताक्षर करने वाला पहला व्यक्ति जवाहर लाल नेहरू था।
राजस्थान से हस्ताक्षर करने वाला पहला व्यक्ति बलवंत सिंह मेहता था। तथा राजस्थान से 12 सदस्य भेजे गए।
11 सदस्य देशी रियासतों से तथा 1 चीफ कमीश्नरी अजमेर-मेरवाड़ा क्षेत्र से है।
26 नवम्बर 1949 को संविधान के 15 अनुच्छेद जिसमें नागरिकता, अन्तरिम संसद तथा सक्रमणकालीन उपबंध लागु किए गए।
सम्पुर्ण संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया।
लेकिन लागु करने से पूर्व 24 जनवरी 1950 को अन्तिम बैठक बुलाई गई। जिसमें डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद को भारत का राष्ट्रपति चुना गया तथा राष्ट्रीय गीत और राष्ट्रगान को अपनाया गया।
राष्ट्रगान:- रविन्द्र नाथ टैगोर - पहली बार 1911 के कोलकत्ता अधिवेशन में गाया गया। अवधि - लगभग 52 सैकण्ड। रचना - मूल बांग्ला भाषा में
राष्ट्रीय गीत - बंकिम चन्द चटर्जी
यह मुलतः संस्कृत भाषा में है तथा आनन्द मठ से लिया गया था।
भारतीय संविधान संहिताबद्ध एक दस्तावेज़ में लिखा गया है और एक ही निकाय द्वारा अधिनियमित किया गया है। भारतीय संविधान सर्वोच्च है, कठोरता और लचीलेपन का समामेलन है। हमारे समाज और राजनीति को बदलने वाले स्वतंत्रता संग्राम के माध्यम से संविधान बनाने के लिए बहुत सारी आम सहमति बनी। भारतीय संविधान का निर्माण कैसे हुआ
भारतीय संविधान का मसौदा बहुत पहले 1928 में मोतीलाल नेहरू और कांग्रेस के आठ सदस्यों द्वारा तैयार किया गया था।
1931 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कराची अधिवेशन में स्वतंत्र भारत के लिए एक संविधान के विचार पर प्रस्ताव दिया गया था।
सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार, स्वतंत्रता और समानता के अधिकार और अल्पसंख्यकों के अधिकारों जैसे बुनियादी मूल्यों को इस प्रस्ताव से वापस ले लिया गया था।
औपनिवेशिक शासन के अनुभव ने भारत के लिए विधायी संस्थागत डिजाइन के विकास और विकास में मदद की। (एसएससी सीपीओ, स्टेनो, एमटीएस, यूपी पुलिस, बैंकिंग, यूपीएससी) और अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए उपयोगी।
भारतीय संविधान के निर्माण का कालक्रम
भारतीय संविधान सभा की मांग
1922 में एनी बेसेंट की आम सभा ने संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए एक सम्मेलन बुलाने पर सहमति व्यक्त की।
ब्रिटिश संसद को 1925 के भारतीय राष्ट्रमंडल विधेयक के साथ प्रस्तुत किया गया था। भारत के सबसे महत्वपूर्ण संवैधानिक सुधारों में से एक।
मोतीलाल नेहरू रिपोर्ट, जिसे पूर्ण संविधान की दिशा में पहला बड़ा प्रयास माना जाता था, 1928 में प्रकाशित हुई थी।
1930 और 1932 के बीच, संवैधानिक सुधार पर तीन गोलमेज बैठकें बुलाई गईं।
1934 में एमएन रॉय ने संविधान सभा का विचार रखा।
1935 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने संविधान बनाने के लिए एक संविधान सभा की मांग की।
1938 में, जवाहरलाल नेहरू ने घोषणा की कि संविधान सभा में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर निर्वाचित सदस्य होने चाहिए।
1940 में ब्रिटिश सरकार ने इस मांग को स्वीकार कर लिया। इसे अगस्त ऑफर का नाम दिया गया।
1942 में , सर स्टैंडफोर्ड क्रिप्स ने हिंदुओं और मुसलमानों के लिए स्वतंत्र राष्ट्र बनाने का प्रस्ताव रखा। इसे क्रिप्स मिशन कहा गया।
1946 में कैबिनेट मिशन के आधार पर संविधान सभा का गठन किया गया।
संविधान सभा में भारतीय संविधान का निर्माण
संविधान सभा निर्वाचित प्रतिनिधियों की एक सभा थी, जिन्होंने संविधान के दस्तावेज का मसौदा तैयार किया था।
इस विधानसभा के चुनाव जुलाई 1946 में हुए थे और इसकी पहली बैठक दिसंबर 1946 में हुई थी।
विभाजन के कारण संविधान सभा का भी विभाजन हो गया।
इसमें 299 सदस्य शामिल थे जिन्होंने 26 नवंबर 1947 को संविधान को अपनाया जो 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ।
संविधान सभा के पास भारत के संविधान को तैयार करने की जिम्मेदारी थी।
इसने दिसंबर 1946 से नवंबर 1949 तक कार्य किया।
संविधान सभा में विभिन्न विषयों के लिए 8 प्रमुख समितियां और 15 लघु समितियां थीं।
इसने संविधान के गठन से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर चर्चा के लिए 11 सत्र आयोजित किए।
संविधान सभा की संरचना
संविधान सभा में सीटों की कुल संख्या – 389 सीटें (292 सीटें – ब्रिटिश प्रांत और 93 सीटें – रियासतें)।
ब्रिटिश प्रांतों को तीन प्रमुख समुदायों में विभाजित किया गया था जिसमें मुस्लिम, सिख और सामान्य शामिल थे। प्रत्येक समुदाय के प्रतिनिधियों को उस विशेष समुदाय के सदस्यों द्वारा विधानसभा के लिए चुना जाता था।
बाद में, भारत के विभाजन के कारण कुछ क्षेत्रों को पाकिस्तान में स्थानांतरित कर दिया गया। इससे सीटों की संख्या घटकर 299 रह गई।
चुनाव का तरीका आनुपातिक प्रतिनिधित्व के माध्यम से था, जहां 1 सीट लगभग 10 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करती थी।
संविधान सभा की विशेषताएं और कार्य
प्रांतों ने 292 सदस्यों का चुनाव किया, जिसमें भारतीय राज्यों को अधिकतम 93 सीटें प्राप्त हुईं।
प्रत्येक प्रांत में सीटों को तीन मुख्य समितियों: मुस्लिम, सिख और जनरल के बीच उनकी संबंधित आबादी के अनुपात में विभाजित किया गया था।
प्रांतीय विधान सभा में, प्रत्येक समुदाय के सदस्य आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति और एकल संक्रमणीय मत का उपयोग करके अपने स्वयं के प्रतिनिधि चुनते हैं।
रियासतों के प्रतिनिधियों को रियासतों के प्रमुखों द्वारा चुना जाना था।
13 दिसंबर, 1946 को, जवाहरलाल नेहरू ने उद्देश्य प्रस्ताव पेश किया, जिसने औपचारिक रूप से भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने के संविधान सभा के मिशन की शुरुआत की।
संकल्प का लक्ष्य था “… भारत को एक स्वतंत्र संप्रभु गणराज्य के रूप में घोषित करना और उसके भविष्य के प्रशासन के लिए एक संविधान का मसौदा तैयार करना…”
प्रस्ताव में बुनियादी सिद्धांतों को रेखांकित किया गया जो संविधान सभा के काम का मार्गदर्शन करेंगे। 22 जनवरी 1947 को संविधान सभा ने प्रस्ताव पारित किया।
रियासतों के प्रतिनिधि धीरे-धीरे इसमें शामिल हो गए। विधानसभा का गठन 28 अप्रैल, 1947 को छह राज्यों के प्रतिनिधियों के साथ किया गया था।
3 जून, 1947 को देश के विभाजन के लिए माउंटबेटन योजना को स्वीकार किए जाने के बाद अन्य रियासतों के बहुमत के प्रतिनिधियों ने विधानसभा में अपनी सीट ग्रहण की।
संविधान का मसौदा तैयार करने और सामान्य कानूनों को अपनाने के अलावा निम्नलिखित कार्यों के लिए संविधान सभा जिम्मेदार थी :
इसने मई 1949 में राष्ट्रमंडल की सदस्यता नामांकन में सुधार किया।
22 जुलाई 1947 को इसने राष्ट्रीय ध्वज को अपनाया ।
24 जनवरी, 1950 को इसने राष्ट्रगान को अपनाया ।
24 जनवरी 1950 को इसने भारत के पहले राष्ट्रपति के रूप में डॉ. राजेंद्र प्रसाद को चुना।
संविधान सभा की समितियां
मसौदा समिति
इसके अध्यक्ष डॉ. बी.आर. अंबेडकर थे।
अक्टूबर 1948 में दूसरे मसौदे के बाद फरवरी 1948 में भारत के संविधान का पहला मसौदा दिया गया था।
अंतिम मसौदा 4 नवंबर 1948 को विधानसभा में पेश किया गया था।
संविधान सभा द्वारा 26 नवंबर 1949 को मसौदा प्रस्ताव पारित किया गया था।
दिसंबर 1939 में लाहौर अधिवेशन के प्रस्ताव के बाद 26 जनवरी 1930 को पूर्ण स्वराज दिवस मनाया गया।
इस प्रकार, नागरिकता, चुनाव, अनंतिम संसद आदि से संबंधित कुछ प्रावधानों को छोड़कर, 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू हुआ, जो 26 नवंबर 1949 को लागू हुआ।
संविधान सभा की आलोचना
प्रतिनिधि निकाय नहीं – क्योंकि यह सीधे निर्वाचित नहीं हुआ था।
एक संप्रभु निकाय नहीं- जैसा कि ब्रिटिश सरकार के प्रस्ताव द्वारा बनाया गया था।
इसे समय लेने वाला माना जाता था।
माना जाता था कि इसमें कांग्रेस और हिंदुओं का वर्चस्व था।
स्वतंत्रता अधिनियम द्वारा परिवर्तन
संविधान सभा एक संप्रभु निकाय बन गई और ब्रिटिश संसद द्वारा बनाए गए कानूनों को बदलने का अधिकार था।
इसने संविधान बनाने और एक विधायी निकाय के रूप में संसद के रूप में कार्य करने के दो कार्य किए।
मुस्लिम लीग के सदस्य संविधान सभा से हट गए और स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के बाद पाकिस्तान अस्तित्व में आया।
भारतीय संविधान के निर्माण का उद्देश्य संकल्प
13 दिसंबर 1946 को जवाहरलाल नेहरू द्वारा उद्देश्य प्रस्ताव दिया गया था जिसने संविधान की दार्शनिक संरचना को निर्धारित किया था।
जवाहरलाल नेहरू ने भारत के संविधान को तैयार करने की आकांक्षाओं और मूल्यों को समझाया।
इसे 22 जुलाई 1947 को अपनाया गया था।
यह भारतीय संविधान की प्रस्तावना का आधार है।
उद्देश्य संकल्प की विशेषताएं
यह प्राप्त करने के लिए संविधान सभा के सदस्यों के लिए एक दिशानिर्देश के रूप में कार्य करता है –
आर्थिक स्थिरता, राजनीतिक सुरक्षा और राष्ट्र की तेज एकता।
भारत को एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य राष्ट्र के रूप में घोषित करें।
केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों के वितरण के साथ अपनी संघीय सरकार सुनिश्चित करें।
भारत के नागरिकों को न्याय, समानता, स्वतंत्रता, विश्वास, आस्था पूजा और स्थान की गारंटी और सुरक्षा।
पिछड़े और आदिवासी क्षेत्रों, दलित वर्ग और अन्य पिछड़े वर्गों के हितों की रक्षा करना।
भूमि, समुद्र और वायु पर क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता बनाए रखें।
भारत को दुनिया में एक सही और सम्मानित स्थान प्राप्त करने में मदद करें जो विश्व शांति और मानव जाति के कल्याण को बढ़ावा देगा।
संविधान सभा द्वारा संविधान में 395 अनु., 22 भाग, 8 अनुसूचीयां तथा 14 भाषाएं रखी गई।
वर्तमान संविधान में 395 अनु.(445), 22 भाग, 22 भाषाएं एवं 12 अनुसूचियां है।
विभिन्न देशों से संविधान में लिए गए प्रावधान
(1)इग्लैण्ड
इकहरी नागरीकता,विधि का शासन,कानून निर्माण की प्रक्रिया,
संसदीय शासन प्रणाली,
राष्ट्रपति पद की औपचारिक स्थिति.मंत्री मण्डलीय शासन,
मंत्री परिषद का सामुहिक उतरदायित्व
नियत्रक एंव महालेखा परीक्षक पद का प्रावधान
सांसदों एवं विधायकों के विशेषाधिकार
राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति
(2) अमेरिका
मौलिक अधिकार, न्यायिक सर्वोच्चता, न्यायिक पुनरावलोकन, उपराष्ट्रपति का पद
महाभियोग की प्रक्रिया
लोकतन्त्र
न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया
वितीय आपातकाल(विशेष)
संविधान का तीनों सेनाओं का सर्वोच्च कमाण्डर होना।
संघात्मक शासन के प्रावधान
(3) फ्रांस
गणतंत्र
गणतंत्र से तात्पर्य भारत का राष्ट्राध्यक्ष जनता द्वारा निश्चित समय के लिए अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है, इसका पद वंशानुगत नहीं है।
(4) कनाडा
संघीय शासन व्यवस्था के प्रावधान
अतिविशिष्ट शक्तियां केन्द्र के अधीन रखी गई है।
युनियन आॅफ स्टेट्स शब्द की अवधारणा।
राष्ट्रपति का सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श प्राप्त करना।
(5) पुर्व सोवियत संघ(रूस)
मौलिक कर्तव्य
पंचवर्षीय योजनाएं
समाजवाद
(6) जर्मनी
राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियों के प्रावधान
(7) आयरलैण्ड
नीति निर्देशक तत्व
राष्ट्रपति के निर्वाचक मण्डल की व्यवस्था
राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा में 12 सदस्यों को मनोनित करना।
(8) दक्षिणी अफ्रीका
संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया
राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन
(9) आस्ट्रेलिया
समवर्ती सूची
प्रस्तावना की भाषा
संसद के दोनो सदनों की संयुक्त बैठक का प्रावधान
(10) जापान
विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया ।
1935 का भारत शासन अधिनियम
संविधान में इसका लगभग 2/3 भाग लिया गया है।
भारतीय संविधान का सबसे बड़ा एकाकी स्त्रोत है।
अधिवेता - आइबर जेनिंग्स - "वकीलो का स्वर्ग"
TRICKS
नि आ आ ज स द को ग फा क रू
1. नीति निर्देशक तत्व - आयरलैण्ड
2. आपातकाल - जर्मनी
3. संविधान संशोधन - द. अफ्रीका
4. गणतन्त्रात्मक शासन प्रणाली - फ्रांस
5. मूल कर्तव्य - रूस
अ न्याय की पुनः उप मा लो - अमेरिका
1 मुल अधिकार
2. न्यायपालिका
3. पूर्वालोकन
4. उपराष्ट्रपति
5. महावियोग
6. लोक तंत्र
इक विका स रा मंत्र - इग्लैण्ड
1. इकहरी नागरिकता
2. विधि का शासन
3. संसदिय शासन प्रणाली
4. राष्ट्रपति
5. मंत्रीपरिषद
भारत में कैबिनेट समितियाँ शासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, विभिन्न क्षेत्रों में नीति निर्माण और निर्णय लेने में सहायता करती हैं। भारत के शासन ढांचे को समझने के लिए उनकी संरचना, कार्य और महत्व को समझना आवश्यक है।
कैबिनेट समितियां क्या हैं?
कैबिनेट समितियाँ सरकार की कार्यकारी शाखा के भीतर विशेष समूह हैं, जिनमें चयनित कैबिनेट सदस्य और कभी-कभी गैर-कैबिनेट अधिकारी शामिल होते हैं। वे विशिष्ट नीति क्षेत्रों या शासन चुनौतियों को संबोधित करने के लिए एकत्रित होते हैं, निर्णय लेने और नीति निर्माण में सहायता करते हैं। यदि प्रधानमंत्री सदस्य हैं, तो उनकी अध्यक्षता में ये समितियाँ शासन को सुव्यवस्थित करती हैं, मंत्रालयों के बीच समन्वय को बढ़ावा देती हैं और सरकारी पहलों के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करती हैं। प्रत्येक समिति अलग-अलग कार्यों पर ध्यान केंद्रित करती है, कुशल नीति निर्माण और प्रशासन में योगदान देती है।
सुरक्षा पर कैबिनेट समिति (सीसीएस) सबसे महत्वपूर्ण क्यों है?
सुरक्षा पर कैबिनेट समिति (CCS) राष्ट्रीय सुरक्षा मामलों की निगरानी के कारण अत्यंत महत्वपूर्ण है। रक्षा, गृह मामलों, वित्त और विदेश मामलों के लिए जिम्मेदार मंत्रियों सहित प्रमुख मंत्रियों से मिलकर बनी CCS रक्षा व्यय, आंतरिक सुरक्षा, कानून और व्यवस्था तथा सुरक्षा मामलों पर विदेश नीति से संबंधित महत्वपूर्ण निर्णयों के लिए जिम्मेदार है। आम तौर पर प्रधानमंत्री CCS की अध्यक्षता करते हैं, इसलिए इसके निर्णयों का देश की सुरक्षा संरचना पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है, जिससे यह सबसे महत्वपूर्ण कैबिनेट समिति बन जाती है।
कैबिनेट समितियां: गठन और संरचना
कैबिनेट समितियों की स्थापना सरकार की कार्यकारी शाखा के भीतर प्रधानमंत्री द्वारा की जाती है।
वे विशिष्ट नीति क्षेत्रों या शासन चुनौतियों पर ध्यान देते हैं।
यदि प्रधानमंत्री इन समितियों के सदस्य हैं तो वे इनकी अध्यक्षता करते हैं।
अन्य सदस्यों में आमतौर पर चयनित कैबिनेट सदस्य और कभी-कभी गैर-कैबिनेट अधिकारी शामिल होते हैं।
ये समितियां केंद्रित विचार-विमर्श को सुगम बनाती हैं तथा यह सुनिश्चित करती हैं कि निर्णय लेने में प्रमुख हितधारकों की भागीदारी हो।
उनकी संरचना सरकारी अधिकारियों और विभागों के बीच कुशल समन्वय और सहयोग की अनुमति देती है।
कैबिनेट समितियों के प्रकार
भारत में प्रमुख कैबिनेट समितियों में कैबिनेट की नियुक्ति समिति, आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति, राजनीतिक मामलों की कैबिनेट समिति और सुरक्षा पर कैबिनेट समिति शामिल हैं। प्रत्येक समिति विशिष्ट शासन चुनौतियों से निपटने पर ध्यान केंद्रित करती है।
कैबिनेट समितियों के कार्य और जिम्मेदारियाँ
कैबिनेट समितियों को विशिष्ट नीति क्षेत्रों पर विचार-विमर्श करने, जटिल मुद्दों को हल करने और पूर्ण कैबिनेट द्वारा विचार के लिए प्रस्ताव तैयार करने का काम सौंपा गया है। वे निर्णय लेने, नीति निर्माण और निरीक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, तथा शासन संबंधी चुनौतियों की एक विस्तृत श्रृंखला का समाधान करते हैं। प्रत्येक समिति के कार्य और जिम्मेदारियाँ उसके कार्यक्षेत्र के भीतर विशिष्ट मुद्दों को संबोधित करने के लिए तैयार की जाती हैं। भारत में कुछ प्रमुख कैबिनेट समितियों में शामिल हैं:
कैबिनेट की नियुक्ति समिति (एसीसी): प्रमुख नौकरशाही और प्रशासनिक पदों सहित सरकार में शीर्ष-स्तरीय पदों पर नियुक्तियां करने के लिए जिम्मेदार।
आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति (सीसीईए): यह समिति निवेश, विकास, बुनियादी ढांचे के विकास और राजकोषीय प्रबंधन से संबंधित मुद्दों सहित आर्थिक नीति निर्माण पर ध्यान केंद्रित करती है।
राजनीतिक मामलों पर कैबिनेट समिति (सीसीपीए): यह समिति राजनीतिक घटनाक्रम, अंतर-सरकारी संबंधों और विभिन्न राजनीतिक हितधारकों के बीच समन्वय से संबंधित मामलों को देखती है।
सुरक्षा पर कैबिनेट समिति (सीसीएस): रक्षा, आंतरिक सुरक्षा, विदेशी मामलों और संकट के समय रणनीतिक निर्णय लेने सहित राष्ट्रीय सुरक्षा मामलों के लिए प्राथमिक जिम्मेदारी रखती है।
निवेश एवं विकास पर कैबिनेट समिति: मोदी सरकार द्वारा स्थापित यह समिति निवेश में तेजी लाने, आर्थिक विकास को बढ़ावा देने तथा बुनियादी ढांचे और औद्योगिक विकास में बाधाओं को दूर करने पर ध्यान केंद्रित करती है।
कैबिनेट समितियों का महत्व
रणनीतिक निर्णय लेना: कैबिनेट समितियां देश के शासन और सुरक्षा को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण मुद्दों पर गहन विचार-विमर्श और रणनीतिक निर्णय लेने के लिए एक मंच प्रदान करती हैं।
नीति निर्माण: वे विभिन्न क्षेत्रों में नीतियों, रणनीतियों और कार्य योजनाओं को तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, तथा सरकार के उद्देश्यों के साथ सामंजस्य और संरेखण सुनिश्चित करते हैं।
समन्वय और निगरानी: कैबिनेट समितियां विभिन्न मंत्रालयों और विभागों के बीच समन्वय को सुगम बनाती हैं, जिससे सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों का प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित होता है।
संकट प्रबंधन: प्राकृतिक आपदाओं या सुरक्षा खतरों जैसे संकट या आपात स्थितियों के दौरान, ये समितियां प्रतिक्रियाओं के समन्वय और स्थिति को प्रभावी ढंग से संबोधित करने के लिए संसाधनों को जुटाने में केंद्रीय भूमिका निभाती हैं।
बढ़ी हुई जवाबदेही: निर्णयों के कार्यान्वयन की समीक्षा और निगरानी करके, कैबिनेट समितियां शासन में बढ़ी हुई जवाबदेही और पारदर्शिता में योगदान देती हैं।
एक संवैधानिक निकाय या संस्थान वह है जिसका संविधान के मूल रूप में या उसमें किसी प्रकार के संशोधन के बाद उल्लेख किया गया है, जबकि एक गैर-संवैधानिक निकाय वह है जिसका संविधान में उल्लेख नहीं किया गया हैI
➤चुनाव आयोग
• संविधान के भाग XV के अनुच्छेद 324 में चुनाव आयोग का उल्लेख किया गया हैI
• वर्तमान में चुनाव आयोग संस्थान में, राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त मुख्य निर्वाचन आयुक्त और दो अन्य निर्वाचन आयुक्त सम्मिलित हैंI
• उनका कार्यकाल 6 वर्ष का होता हैI उनकी सेवानिवृत्ति की उम्र 65 वर्ष है, जो भी पहले होI
• सुकुमार सेन भारत के पहले चुनाव आयुक्त थेI
➤संघ लोक सेवा आयोग
• संविधान के भाग XIV के अनुच्छेद 315 से 323 के तहत उल्लेखित (अनुच्छेद 315 में संघ और राज्यों के लिए लोक सेवा आयोग के बारे में उल्लेख किया गया है)I
• यू.पी.एस.सी में भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त एक अध्यक्ष और अन्य सदस्य शामिल हैंI
• 6 वर्ष का कार्यकाल या सेवानिवृत्ति की उम्र 65 वर्ष, जो भी पहले होI
• यू.पी.एस.सी का अध्यक्ष (पद संभालने के बाद से), इस पद के बाद भारत सरकार या किसी राज्य में किसी भी रोजगार के लिए पात्र नहीं होता हैI
➤राज्य लोक सेवा आयोग
• राज्य लोक सेवा आयोग में राज्य के राज्यपाल द्वारा नियुक्त एक चेयरमैन और अन्य सदस्य शामिल होते हैंI
• 6 वर्ष का कार्यकाल या सेवानिवृत्ति की आयु 62 वर्ष है जो भी पहले होI वह अपना त्यागपत्र राज्यपाल को सौंपते हैंI
• चेयरमैन और सदस्यों को केवल राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है, जबकि उनकी नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती हैI अध्यक्ष या सदस्यों को हटाने का आधार यू.पी.एस.सी के अध्यक्ष या सदस्यों को हटाने के समान होता हैI
• नोट – संविधान के अंतर्गत दो या दो से अधिक राज्यों के लिए संयुक्त लोक सेवा आयोग (जे.पी.एस.सी) की स्थापना का भी प्रावधान हैI
• संबंधित राज्यों की अर्जी पर संसद के अधिनियम द्वारा यू.पी.एस.सी और एस.पी.एस.सी से भिन्न जे.पी.एस.सी की स्थापना की जा सकती है, जो एक संवैधानिक निकाय है, जे.पी.एस.सी एक वैधानिक निकाय है न की संवैधानिकI
• जे.एस.पी.एस.सी के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती हैI इनका कार्यकाल 6 वर्ष या सेवानिवृत्ति 62 वर्ष तक होती है, जो भी पहले लागू होता होI
➤वित्त आयोग
• भारतीय संविधान के अनुच्छेद 280 में वित्त आयोग का उल्लेख किया गया हैI इसका गठन प्रत्येक पांच वर्ष में राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है या उससे पहले जैसा उन्हें आवश्यक लगेI
• वित्त आयोग में एक अध्यक्ष और चार अन्य सदस्य होते हैं, जिनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती हैI उनका कार्यकाल तब तक होता है जैसा की राष्ट्रपति द्वारा उनके आदेश में निर्दिष्ट होता हैI वे पुनः नियुक्ति के पात्र होते हैंI
• हालांकि यह प्रमुख रूप से एक सलाहकार निकाय है और यह केंद्र और राज्यों के बीच साझा किए जाने वाले करों के शुद्ध लाभ के वितरण तथा इस प्रकार की आय से संबंधित हिस्सों को राज्यों के बीच आवंटित करने पर सलाह देता है।
• के.सी. नियोगी पहले वित्त आयोग के अध्यक्ष थे और वर्तमान में यह 14वां वित्त आयोग है जिसके अध्यक्ष वाई.वी. रेड्डी हैंI
➤अनुसूचित जाति के लिए राष्ट्रीय आयोग
• इससे संबंधित उल्लेख भारत के संविधान के अनुच्छेद 338 में किया गया हैI
➤अनुसूचित जनजाति के लिए राष्ट्रीय आयोग
• इससे संबंधित उल्लेख भारतीय संविधान के अनुच्छेद 338-A में किया गया हैI
➤भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए विशेष अधिकारी
• इसका उल्लेख भारतीय संविधान के भाग XVII के अनुच्छेद 350-B में किया गया हैI
➤भारत के नियंत्रक और महालेखापरीक्षक
• भारत के संविधान के अनुच्छेद 148 के तहत नियंत्रक और महालेखापरीक्षक (सीएजी) का एक स्वतंत्र पद होना चाहिए I
• वह भारतीय ऑडिट और लेखा विभाग का प्रमुख होता हैI
• वह आम लोगों के धन का अभिवावक होता है और उसका पुरे देश के दोनों वित्तीय तंत्र केन्द्रीय और राज्य पर नियंत्रण होता हैI
• यही कारण है की डॉ. बी.आर. अम्बेड़कर ने कहा था की भारत के संविधान के तहत सी.ए.जी सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी होगाI
• सी.ए.जी की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा उनके हस्ताक्षर और मुहर के तहत वारंट द्वारा की जाती हैI
• उनका कार्यकाल 6 वर्ष का होता है और सेवानिवृति की आयु 65 वर्ष होती है, जो भी पहले होI
• उनको राष्ट्रपति द्वारा उनके दुर्व्यवहार या अक्षमता के आधार पर हटाया जा सकता हैI उनको हटाने का तरीका सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने के समान हैI
• उनके सेवानिवृत होने के बाद या हटाए जाने के बाद वह किसी भी प्रकार के या तो केंद्र या फिर राज्य सरकार के स्तर पर रोजगार के अधिकारी नहीं हैI
• सी.ए.जी के कार्यालय के प्रशासनिक व्ययों में उस कार्यालय में काम कर रहे सभी लोगों के वेतन, भत्ते, सेवारत लोगों की पेंशन इत्यादि के लिए भारत की समेकित निधि को चार्ज किया जाता हैI इस प्रकार, वे संसद में वोट करने के सम्बद्ध नहीं हैI
• वह भारत की समेकित निधि, प्रत्येक राज्य और संघीय राज्य जहाँ पर विधान सभा है, की समेकित निधि से संबंधित सभी एकाउंट्स से किए गए सभी खर्चों का ऑडिट करता हैI
• वह भारत की आकस्मिकता निधि से किए गए सभी खर्चों और भारत के पब्लिक अकाउंट साथ ही प्रत्येक राज्य की आकस्मिकता निधि और राज्यों के पब्लिक अकाउंट पर किए गए सभी खर्चों का ऑडिट करता हैI
• वह केंद्र के लेखों से संबंधित सभी खर्चों पर अपनी ऑडिट रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपते हैं, जो बाद में , रिपोर्ट को संसद के दोनों सदनों में रखते हैं (अनुच्छेद 151)I
• वह राज्यपाल को राज्यों के लेखों से संबंधित अपनी ऑडिट रिपोर्ट को सौंपते हैं, जो, बाद में, रिपोर्ट को विधान सभा में रखते हैं (अनुच्छेद 151)I
• राष्ट्रपति सी.ए.जी द्वारा सौंपे गए रिपोर्ट को संसद के दोनों सदनों में रखा जाता हैI लोक लेखा समिति उन्हें जांचती है और अपनी जांच को संसद के समक्ष रखती हैI
➤भारत के अटॉर्नी जनरल
• भारत के संविधान के अनुच्छेद 76 में उल्लेखित हैI
• देश में सबसे बड़े कानून अधिकारी की पदवी हैI
• राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता हैI
• ए.जी.आई वह होता है जो सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने की पात्रता रखता हैI
• कार्यकाल निश्चित नहीं है और वह राष्ट्रपति की इच्छानुसार अपने पद पर रह सकता हैI
• उनके आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन में, अटॉर्नी जनरल भारत के किसी भी क्षेत्र में सभी न्यायालयों में श्रोता की तरह भाग लेने का अधिकार रखता हैI साथ ही, संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही में वह भाग ले सकता है और बोलने का अधिकार भी रखता है या संयुक्त बैठने की व्यवस्था और संसद के किसी समिति जिसके लिए उन्हें नामित किया गया हो परन्तु बिना वोट के अधिकार के साथI वह संसद के सदस्य के लिए उपलब्ध सभी सुविधाओं और अधिकारों का आनंद लेता हैI
• नोट – अटॉर्नी जनरल के साथ ही, भारत सरकार के अन्य कईं कानून अधिकारी होते हैंI वे भारत के सोलिसिटर जनरल और अतिरिक्त सोलिसिटर जनरल हैI वे अटॉर्नी जनरल को उनके आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन में मदद करते हैंI यहाँ ध्यान रखा जाना चाहिए की केवल अटॉर्नी जनरल पद का निर्माण संविधान द्वारा किया गया हैI अन्य शब्दों में, अनुच्छेद 76 सोलिसिटर जनरल और अतिरिक्त सोलिसिटर जनरल के बारे में उल्लेख नहीं करता हैI
• भारत के पहले और सबसे लंबे समय के लिए सेवा में रहे ए.जी.आई मोतीलाल चिमनलाल सेतालवाद थेI
➤राज्य के एडवोकेट जनरल
• संविधान के अनुच्छेद 165 के तहत राज्यों के लिए एडवोकेट जनरल के पद का उल्लेख किया गया हैI वह राज्य का उच्च कानून अधिकारी होता हैI अतः वह राज्य में भारत के अटॉर्नी जनरल का प्रतिरूप होता हैI
• एडवोकेट जनरल की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती हैI वह एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किए जाने योग्य है।
➤भारत के उप-राष्ट्रपति (आर्टिकल्स 63-73)
भारतीय संविधान के भाग पांच में पहला अध्याय (कार्यकारी) भारत के उप-राष्ट्रपति के कार्यालय के बारे में चर्चा करता है। भारत के उप-राष्ट्रपति का ऑफिस देश का दूसरा सर्वोच्च संवैधानिक पद है।
अनुच्छेद 63: भारत के उप-राष्ट्रपति
• भारत में एक उप-राष्ट्रपति होंगे।
अनुच्छेद 64: उपराष्ट्रपति का पद राज्य सभा के पदेन सभापति के रूप में है।
• उपराष्ट्रपति का पद राज्य सभा के पदेन परिषद के अध्यक्ष सभापति के रूप में है और वह कोई अन्य लाभ का पद धारण नहीं करेगा:
• दिया गया है कि उस दौरान जब उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है या अनुच्छेद 65 के तहत राष्ट्रपति के कृत्यों का निर्वहन करने के दौरान, वह राज्य सभा के सभापति के पद के कर्तव्यों का पालन नहीं करेगा और राज्यों की परिषद के अध्यक्ष के तौर पर कोई वेतन या भत्ता अनुच्छेद 97 के तहत लेने का हकदार नहीं होगा।
अनुच्छेद 65
• उप-राष्ट्रपति को कार्यालय में आकस्मिक रिक्तियों के दौरान अपने कार्यों का निर्वहन, या राष्ट्रपति की अनुपस्थिति के दौरान राष्ट्रपति के रूप में कार्य करना होगा।
अनुच्छेद 66: उप-राष्ट्रपति का चुनाव
• उपराष्ट्रपति का चुनाव एक चुनावी कॉलेज के सदस्यों द्वारा किया जायेगा जिसमे संसद के दोनों सदनों के सदस्यों द्वारा मिलकर चुना जायेगा। हालांकि, यह चुनाव राष्ट्रपति के उस चुनाव से अलग है क्योंकि राज्य विधानसभाओं का इसमें कोई हिस्सा नहीं है। कोई व्यक्ति उपराष्ट्रपति निर्वाचित होने का पात्र तभी होगा जब वह—
भारत का नागरिक है,
• पैंतीस वर्ष की आयु पूरी कर चुका है, और
• राज्य सभा का सदस्य निर्वाचित होने के लिए अर्हित है।
• कोई व्यक्ति, जो भारत सरकार के या किसी राज्य की सरकार के अधीन अथवा उक्त सरकारों में से किसी के नियंत्रण में किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकारी के अधीन कोई लाभ का पद धारण करता है, उपराष्ट्रपति निर्वाचित होने का पात्र नहीं होगा।
• स्पष्टीकरण- इस अनुच्छेद के प्रयोजनों के लिए, कोई व्यक्ति केवल इस कारण कोई लाभ का पद धारण करने वाला नहीं समझा जाएगा कि वह संघ का राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति या किसी राज्य का राज्यपाल है अथवा संघ का या किसी राज्य का मंत्री है।
अनुच्छेद 67: उपराष्ट्रपति की पदावधि
उपराष्ट्रपति अपने पद ग्रहण की तारीख से पांच वर्ष की अवधि तक पद धारण करेगा:
परंतु--
1. उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षरित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा;
2. उपराष्ट्रपति, राज्य सभा के ऐसे संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जा सकेगा जिसे राज्य सभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत ने पारित किया है और जिससे लोकसभा सहमत है; किंतु इस खंड के प्रयोजन के लिए कोई संकल्प तब तक प्रस्तावित नहीं किया जाएगा जब तक कि उस संकल्प को प्रस्तावित करने के आशय की कम से कम चौदह दिन की सूचना न दे दी गई हो;
3. उपराष्ट्रपति, अपने पद की अवधि समाप्त हो जाने पर भी, तब तक पद धारण करता रहेगा जब तक उसका उत्तराधिकारी अपना पद ग्रहण नहीं कर लेता है।
अनुच्छेद 68:
• उपराष्ट्रपति के पद में रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचन करने का समय और आकस्मिक रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचित व्यक्ति की पदावधि
(1) उपराष्ट्रपति की पदावधि की समाप्ति से हुई रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचन, पदावधि की समाप्ति से पहले ही पूर्ण कर लिया जाएगा।
(2) उपराष्ट्रपति की मृत्यु, पदत्याग या पद से हटाए जाने या अन्य कारण से हुई उसके पद में रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचन, रिक्ति होने के पश्चात् यथाशीघ्र किया जाएगा और रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचित व्यक्ति, अनुच्छेद 67 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, अपने पद ग्रहण की तारीख से पाँच वर्ष की पूरी अवधि तक पद धारण करने का हकदार होगा।
अनुच्छेद 69: उपराष्ट्रपति द्वारा शपथ या प्रतिज्ञान-
प्रत्येक उपराष्ट्रपति अपना पद ग्रहण करने से पहले राष्ट्रपति अथवा उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्त किसी व्यक्ति के समक्ष निम्नलिखित प्ररूप में शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपने हस्ताक्षर करेगा, अर्थात्: --
ईश्वर की शपथ लेता हूँ
''मैं, अमुक ---------------------------------कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञा करता हूँ, श्रद्धा और निष्ठा रखूँगा तथा जिस पद को मैं ग्रहण करने वाला हूँ उसके कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक निर्वहन करूँगा।''
अनुच्छेद 70:
• अन्य आकस्मिकताओं में राष्ट्रपति के कृत्यों का निर्वहन--संसद, ऐसी किसी आकस्मिकता में जो इस अध्याय में उपबंधित नहीं है, राष्ट्रपति के कृत्यों के निर्वहन के लिए ऐसा उपबंध कर सकेगी जो वह ठीक समझे।
अनुच्छेद 71:
• राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के निर्वाचन से संबंधित या संसक्त विषय—
(1) राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के निर्वाचन से उत्पन्न या संसक्त सभी शंकाओं और विवादों की जांच और विनिश्चय उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जाएगा और उसका विनिश्चय अंतिम होगा।
(2) यदि उच्चतम न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति के राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के रूप में निर्वाचन को शून्य घोषित कर दिया जाता है तो उसके द्वारा, यथास्थिति, राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के पद की शक्तियों के प्रयोग और कर्तव्यों के पालन में उच्चतम न्यायालय के विनिश्चय की तारीख को या उससे पहले किए गए कार्य उस घोषणा के कारण अधिमान्य नहीं होंगे।
(3) इस संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए, राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के निर्वाचन से संबंधित या संसक्त किसी विषय का विनियमन संसद विधि द्वारा कर सकेगी।
(4) राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के रूप में किसी व्यक्ति के निर्वाचन को उसे निर्वाचित करने वाले निर्वाचकगण के सदस्यों में किसी भी कारण से विद्यमान किसी रिक्ति के आधार पर प्रश्नगत नहीं किया जाएगा।
➤भारत के उप-राष्ट्रपतियों की सूची (कार्यकाल के साथ)
भारतीय संसदीय प्रणाली में, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और मंत्रिपरिषद के साथ-साथ प्रधानमंत्री संघीय कार्यकारिणी में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जबकि राष्ट्रपति प्रतीकात्मक रूप से राज्य के प्रमुख के रूप में कार्य करते हैं, यह प्रधानमंत्री ही होता है जो सरकार के वास्तविक प्रमुख के रूप में कार्य करता है। इस लेख में प्रधानमंत्री की शक्तियों के बारे में विस्तार से जानें।
प्रधानमंत्री की शक्तियां
संसदीय या अर्ध-राष्ट्रपति प्रणाली में, प्रधानमंत्री कार्यकारी शाखा का नेतृत्व करते हैं, मंत्रिपरिषद का नेतृत्व करते हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 75 के तहत राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त, प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद की देखरेख करते हैं, अनुच्छेद 74(1) के अनुसार राष्ट्रपति को सलाह देते हैं। यूपीएससी भारतीय राजनीति और शासन पाठ्यक्रम में शामिल, प्रधानमंत्री मुख्य प्रवक्ता के रूप में कार्य करते हैं और कैबिनेट बैठकों की अध्यक्षता करते हैं, सरकार की कार्यकारी शाखा के भीतर महत्वपूर्ण शक्तियों का प्रयोग करते हैं।
प्रधानमंत्री की शक्तियां और कार्य
भारत का प्रधानमंत्री सरकार का मुखिया होता है और इसके कामकाज और अधिकार के लिए जिम्मेदार होता है। प्रधानमंत्री की शक्तियों और कार्यों में शामिल हैं:
राष्ट्रपति को सलाह देना: प्रधानमंत्री सरकार के काम को विभिन्न मंत्रालयों और कार्यालयों में वितरित करने में राष्ट्रपति की मदद करता है। प्रधानमंत्री राष्ट्रपति और कैबिनेट के बीच आधिकारिक कड़ी के रूप में भी काम करता है।
मंत्रिमंडल की अध्यक्षता: प्रधानमंत्री मंत्रिमंडल की अध्यक्षता करता है तथा उसकी बैठकों की अध्यक्षता करता है।
विभागों का आवंटन: प्रधानमंत्री के पास मंत्रियों को विभागों का आवंटन करने का अधिकार है।
परिषद के सदस्यों का चयन और बर्खास्तगी: प्रधानमंत्री एकतरफा रूप से मंत्रिपरिषद के सदस्यों का चयन और बर्खास्तगी कर सकता है।
पदों का आवंटन: प्रधानमंत्री सरकार के भीतर एकतरफा तौर पर पदों का आवंटन कर सकते हैं।
देश का प्रतिनिधित्व: प्रधानमंत्री उच्च स्तरीय अंतर्राष्ट्रीय बैठकों में भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं।
प्रधानमंत्री के पास यह शक्ति भी है:
संधियों पर हस्ताक्षर या अनुसमर्थन करना
विदेशी सरकारों को मान्यता दें
राजदूतों, स्थायी सचिवों और अन्य अधिकारियों की नियुक्ति करना
आपातकाल की स्थिति घोषित करें
संपत्ति और परिसंपत्तियों को जब्त करना, जब्त करना या जब्त करना
क्षमा जारी करें
अपराधियों या पागलों को हिरासत में लें
कानूनी कार्यवाही शुरू करना या रद्द करना
कानूनी कार्यवाही में क्राउन प्रतिरक्षा का दावा करें
सार्वजनिक हित प्रतिरक्षा प्रमाणपत्र प्रदान करें
प्रधानमंत्री के अधिकार प्रतिबंध
प्रधानमंत्री (पीएम) की शक्ति प्रतिबंध संविधान, राजनीतिक व्यवस्था और सरकार के भीतर विभिन्न जाँच और संतुलन से प्रभावित होते हैं। कुछ सामान्य सीमाएँ इस प्रकार हैं:
विधायी शक्ति : हालाँकि प्रधानमंत्री अक्सर कानून पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं, लेकिन उन्हें आम तौर पर विधायिका से अनुमोदन की आवश्यकता होती है। इस प्रक्रिया में बहस, संभावित संशोधन और अस्वीकृति की संभावना शामिल है।
न्यायिक शक्ति : प्रधानमंत्री के पास न्यायपालिका पर सीधा नियंत्रण नहीं होता, जबकि न्यायपालिका स्वतंत्र रहती है। वे न्यायालय के निर्णयों को पलट नहीं सकते या कानूनी कार्यवाही में हस्तक्षेप नहीं कर सकते।
निगरानी और जवाबदेही : प्रधानमंत्री विधायिका, स्वतंत्र आयोगों और मीडिया जैसी संस्थाओं की निगरानी के अधीन होते हैं। ये संस्थाएँ कार्यों की जाँच कर सकती हैं, गलत कामों को उजागर कर सकती हैं और निंदा या महाभियोग सहित प्रतिबंधों की सिफारिश कर सकती हैं।
संवैधानिक बाध्यताएँ : संविधान प्रधानमंत्री की शक्तियों को परिभाषित करता है, उन कार्यों की रूपरेखा बताता है जो वे नहीं कर सकते, आपातकाल के दौरान उनके अधिकारों को सीमित करता है, या अन्य निकायों की सलाह का पालन करना अनिवार्य बनाता है।
पार्टी की आंतरिक गतिशीलता : प्रधानमंत्री को समर्थन बनाए रखने और सत्ता में बने रहने के लिए अपनी पार्टी के भीतर की राजनीति को समझना चाहिए। इसके लिए अक्सर समझौता, बातचीत और पार्टी लाइन का पालन करना पड़ता है।
जनता की राय और मीडिया की जांच : प्रधानमंत्री लगातार जनता और मीडिया की जांच के दायरे में रहते हैं। नकारात्मक कवरेज या सार्वजनिक अस्वीकृति प्रधानमंत्री को अपने निर्णयों पर पुनर्विचार करने या राजनीतिक परिणामों का सामना करने के लिए मजबूर कर सकती है।
अंतर्राष्ट्रीय संबंध : यद्यपि प्रधानमंत्री वैश्विक मंच पर अपने देश का प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन उनके विदेश नीति निर्णयों के लिए अन्य सरकारी निकायों से अनुमोदन की आवश्यकता हो सकती है या वे अंतर्राष्ट्रीय समझौतों से बाध्य हो सकते हैं।
वित्तीय प्रतिबंध : प्रधानमंत्री का खर्च करने का अधिकार बजटीय निरीक्षण और विधायी निकायों से अनुमोदन के अधीन है। वे बिना किसी औचित्य और कानूनी प्रक्रियाओं के स्वतंत्र रूप से धन आवंटित नहीं कर सकते।
प्रधानमंत्री द्वारा सत्ता का दुरुपयोग
अपनी शक्ति पर प्रतिबंधों के बावजूद, प्रधानमंत्री अभी भी अपने अधिकार का दुरुपयोग कर सकते हैं। दुरुपयोग के सामान्य रूपों में शामिल हैं:
कानून के शासन की अनदेखी करना : व्यक्तिगत लाभ के लिए कानूनों को तोड़ना या तोड़ना, कानूनी तरीकों से असहमति को दबाना, या राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ कानूनों का उपयोग करना।
भ्रष्टाचार और आत्म-संवर्धन : रिश्वत लेना, सार्वजनिक धन का गबन करना, या व्यक्तिगत लाभ के लिए परिवार और दोस्तों को लाभ पहुंचाना।
असहमति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन : विरोध प्रदर्शनों को रोकना, मीडिया आलोचना को सेंसर करना, या जनमत को प्रभावित करने के लिए सूचना को नियंत्रित करना।
लोकतांत्रिक संस्थाओं का क्षरण : न्यायिक स्वतंत्रता को कमजोर करना, जांच और संतुलन को कमजोर करना, या चुनावी प्रक्रियाओं में हस्तक्षेप करना।
हिंसा और भेदभाव को उकसाना : घृणा को बढ़ावा देने के लिए बयानबाजी का उपयोग करना, हाशिए पर पड़े समूहों को निशाना बनाना, या कथित दुश्मनों के खिलाफ हिंसा को प्रोत्साहित करना।
शक्ति का विस्तार : कार्यकाल सीमा बढ़ाना, कार्यकारी शाखा के भीतर शक्ति को समेकित करना, या सत्ता के परिवर्तन में बाधा डालना।
विदेश नीति दुस्साहस : लापरवाहीपूर्ण सैन्य कार्रवाइयों में संलग्न होना, राष्ट्रीय सुरक्षा पर व्यक्तिगत हितों को प्राथमिकता देना, या राजनयिक संबंधों को नुकसान पहुंचाना।
आपातस्थितियों का दुरुपयोग : सत्ता का विस्तार करने के लिए संकटों का फायदा उठाना, सुरक्षा सुनिश्चित करने की आड़ में नागरिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करना।
सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम सभी को किसी भी मीडिया के माध्यम से किसी भी विषय के बारे में जानकारी और राय तक पहुँचने की स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है, सभी बाधाओं के पार। 1948 में मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के हिस्से के रूप में अधिनियमित, 2005 में आरटीआई अधिनियम में महत्वपूर्ण संशोधन किए गए थे। यह अधिनियम भारतीय राजनीति की आधारशिला है, जो यूपीएससी पाठ्यक्रम में एक महत्वपूर्ण विषय है। उम्मीदवारों के लिए, यूपीएससी मॉक टेस्ट के साथ अभ्यास करना तैयारी की सटीकता को बढ़ा सकता है।
सूचना का अधिकार (आरटीआई)
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1) सूचना के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में पहचानता है। राज नारायण बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1976) के ऐतिहासिक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पुष्टि की कि सूचना का अधिकार अनुच्छेद 19 का अभिन्न अंग है। इस निर्णय ने इस बात पर जोर दिया कि लोकतंत्र में नागरिकों को यह जानने का अधिकार है कि उनकी सरकार कैसे काम करती है। परिणामस्वरूप, 2005 में सूचना का अधिकार अधिनियम लागू किया गया, जिसमें इस मौलिक अधिकार का प्रयोग करने के लिए एक रूपरेखा प्रदान की गई।
सुप्रीम कोर्ट महत्वपूर्ण आरटीआई मुद्दे पर फैसला करेगा
सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका (पीआईएल) पर विचार किया है कि क्या सूचना के अधिकार (आरटीआई) अधिनियम के तहत पहली अपील के दौरान प्रस्तुत किए गए दस्तावेजों को दूसरी अपील के दौरान फिर से प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने प्रतिवादी प्राधिकारी से जवाब मांगते हुए एक नोटिस जारी किया। याचिकाकर्ता का तर्क है कि दस्तावेजों को फिर से प्रस्तुत करना अनावश्यक और बोझिल है, जबकि प्रतिवादी प्राधिकारी यह तर्क दे सकता है कि यह सुनिश्चित करता है कि सभी प्रासंगिक सूचनाओं पर विचार किया जाए। न्यायालय का निर्णय आरटीआई अधिनियम के एक महत्वपूर्ण पहलू को स्पष्ट करेगा, जो अपील प्रक्रिया और नागरिकों की सूचना तक पहुँच को प्रभावित करता है।
आरटीआई अधिनियम का उद्देश्य
आरटीआई अधिनियम का उद्देश्य नागरिकों को सशक्त बनाना, सरकारी कार्यों में पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा देना, भ्रष्टाचार से निपटना और यह सुनिश्चित करना है कि लोकतंत्र लोगों की प्रभावी रूप से सेवा करे। एक जागरूक नागरिक शासन तंत्र की बेहतर ढंग से जांच करने और सरकार को जवाबदेह ठहराने में सक्षम होता है।
आरटीआई अधिनियम की विशेषताएं
नागरिकों का सूचना का अधिकार : कोई भी भारतीय नागरिक किसी सार्वजनिक प्राधिकरण से सूचना मांग सकता है। सूचना 30 दिनों के भीतर प्रदान की जानी चाहिए।
लोक सूचना अधिकारी (पीआईओ) : प्रत्येक सार्वजनिक प्राधिकरण को सूचना अनुरोधों को संभालने के लिए पीआईओ की नियुक्ति करनी होगी।
अभिलेखों का डिजिटलीकरण : सरकारी एजेंसियों को व्यापक सार्वजनिक पहुंच के लिए अभिलेखों का डिजिटलीकरण करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
छूट : आरटीआई अधिनियम जम्मू और कश्मीर पर लागू नहीं होता है, जिसका अपना आरटीआई अधिनियम 2009 है। कुछ खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों को भी छूट दी गई है।
त्रिस्तरीय प्रवर्तन प्रणाली : इसमें लोक सूचना अधिकारी, प्रथम अपीलीय प्राधिकरण और केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) शामिल हैं। यदि 30 दिनों के भीतर सूचना उपलब्ध नहीं कराई जाती है तो अपील की जा सकती है, यदि आवश्यक हो तो 90 दिनों के भीतर आगे की अपील संभव है।
सूचना के अधिकार की आवश्यकता
सरकारी कार्यों में पारदर्शिता और जवाबदेही बनाए रखने के लिए आरटीआई अधिनियम महत्वपूर्ण है। यह नागरिकों को सार्वजनिक प्राधिकरणों द्वारा रखी गई जानकारी तक पहुँचने का अधिकार देता है, जिससे ऐसा माहौल बनता है जहाँ सूचना का दुरुपयोग कम से कम हो। यह अधिनियम विशेष रूप से हाशिए पर पड़े समुदायों को सशक्त बनाता है, जिससे वे अपने कल्याण को प्रभावित करने वाली सरकारी नीतियों और पहलों के बारे में पूछताछ कर सकते हैं। आरटीआई अधिनियम विभिन्न क्षेत्रों में उच्च-स्तरीय भ्रष्टाचार को उजागर करने में सहायक रहा है।
आरटीआई अधिनियम, 2005 के प्रमुख प्रावधान
धारा 2(एच) : इसमें 'सार्वजनिक प्राधिकरण' को परिभाषित किया गया है, जिसमें संघ, राज्य या स्थानीय निकाय के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत सभी एजेंसियां और संगठन शामिल हैं।
धारा 4(1)(बी) : सरकार द्वारा सूचना का सक्रिय प्रकटीकरण और अद्यतनीकरण अनिवार्य है।
अनुभाग 6 : सूचना सुरक्षित करने की सरल प्रक्रिया की रूपरेखा दी गई है।
धारा 7 : पीआईओ द्वारा सूचना उपलब्ध कराने के लिए समय सीमा निर्दिष्ट करती है।
धारा 8 : प्रकटीकरण से छूट की सूची।
धारा 19 : दो-स्तरीय अपील प्रक्रिया का विवरण।
धारा 20 : समय पर, सटीक या पूर्ण जानकारी उपलब्ध न कराने पर दंड लगाती है।
धारा 23 : आरटीआई विवादों पर निचली अदालतों के अधिकार क्षेत्र को बाहर रखता है, तथा सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के रिट अधिकार क्षेत्र को संरक्षित रखता है।
आरटीआई अधिनियम की चुनौतियाँ
महिलाओं की अपर्याप्त भागीदारी : आरटीआई प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी कम है।
पीआईओ के लिए प्रशिक्षण का अभाव : कई पीआईओ को पर्याप्त प्रशिक्षण के बिना नियुक्त किया जाता है।
खराब रिकॉर्ड-कीपिंग : अपर्याप्त रिकॉर्ड-कीपिंग प्रथाएं पारदर्शिता में बाधा डालती हैं।
लंबित मामले : लंबित मामलों का बढ़ना प्रशासनिक उपेक्षा को दर्शाता है।
अपर्याप्त बुनियादी ढांचा : सूचना आयोगों के प्रबंधन के लिए बुनियादी ढांचे और कर्मचारियों की भारी कमी है।
व्हिसलब्लोअर संरक्षण : कमजोर कानून आरटीआई कार्यकर्ताओं को पर्याप्त रूप से सुरक्षा प्रदान करने में विफल रहते हैं।
राजनीतिक दलों और न्यायपालिका के लिए छूट : ये छूट पारदर्शिता को बढ़ावा देने के प्रयासों को कमजोर करती हैं।
हालिया संशोधन : हालिया परिवर्तन अधिनियम के प्राथमिक लक्ष्यों को नष्ट कर सकते हैं, तथा सूचना आयुक्तों की नियुक्ति में राजनीतिक पक्षपात को बढ़ावा दे सकते हैं।
आरटीआई अधिनियम में संशोधन
आरटीआई संशोधन अधिनियम 2019 में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए:
मुख्य सूचना आयुक्त का कार्यकाल : केंद्र सरकार अब केंद्रीय और राज्य स्तर पर मुख्य सूचना आयुक्त का कार्यकाल निर्धारित करती है।
वेतन और भत्ते : केंद्र सरकार मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों के वेतन और भत्ते निर्धारित करती है।
पेंशन और सेवानिवृत्ति लाभ : संशोधन ने मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों को पूर्व सार्वजनिक सेवा से पेंशन या सेवानिवृत्ति लाभ प्राप्त करने पर रोक लगाने वाले खंडों को हटा दिया।
परिचय:
जनहित याचिका (PIL) मानव अधिकारों और समानता को आगे बढ़ाने या व्यापक सार्वजनिक चिंता के मुद्दों को उठाने के लिये कानून का उपयोग है।
‘जनहित याचिका (Public Interest Litigation-PIL)’ की अवधारणा अमेरिकी न्यायशास्त्र से ली गई है।
भारतीय कानून में PIL का मतलब जनहित की सुरक्षा के लिये याचिका या मुकदमा दर्ज करना है। यह पीड़ित पक्ष द्वारा नहीं बल्कि स्वयं न्यायालय या किसी अन्य निजी पक्ष द्वारा विधिक अदालत में पेश किया गया मुकदमा है।
यह न्यायिक सक्रियता के माध्यम से अदालतों द्वारा जनता को दी गई शक्ति है।
इसे केवल सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय में दायर किया जा सकता है।
यह रिट याचिका से अलग है, जो व्यक्तियों या संस्थानों द्वारा अपने लाभ के लिये दायर की जाती है, जबकि जनहित याचिका आम जनता के लाभ के लिये दायर की जाती है।
जनहित याचिका की अवधारणा भारत के संविधान के अनुच्छेद 39 A में निहित सिद्धांतों के अनुकूल है ताकि कानून की मदद से त्वरित सामाजिक न्याय की रक्षा और उसे विस्तारित किया जा सके।
वे क्षेत्र जहाँ जनहित याचिका दायर की जा सकती है: प्रदूषण, आतंकवाद, सड़क सुरक्षा, निर्माण संबंधी खतरे आदि।
महत्त्व:
जनहित याचिका सामाजिक परिवर्तन और कानून के शासन को बनाए रखने तथा कानून एवं न्याय के बीच संतुलन को तीव्र गति देना का एक महत्त्वपूर्ण साधन है।
जनहित याचिकाओं का मूल उद्देश्य गरीबों और हाशिये के वर्ग के लोगों के लिये न्याय को सुलभ या न्याय संगत बनाना है। यह सभी के लिये न्याय की पहुँच का लोकतंत्रीकरण करता है।
यह राज्य संस्थानों जैसे- जेलों, आश्रयों, सुरक्षात्मक घरों आदि की न्यायिक निगरानी में मदद करता है।
न्यायिक समीक्षा की अवधारणा को लागू करने के लिये यह एक महत्त्वपूर्ण उपकरण है।
मुद्दे:
दुरुपयोग:
अदालतों में लंबित मामलों की संख्या पहले से ही अधिक है और जनहित याचिकाओं का दुरुपयोग बढ़ रहा है।
वर्ष 2010 में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यक्तिगत या अप्रासंगिक मामलों से जुड़ी जनहित याचिकाओं पर काफी नाराज़गी व्यक्त की थी और जनहित याचिकाओं को स्वीकार करने के लिये अदालतों को कुछ दिशा-निर्देश जारी किये थे।
प्रतिस्पर्द्धी अधिकारों की समस्या:
जनहित याचिका की कार्रवाइयाँ कभी-कभी प्रतिस्पर्द्धी अधिकारों की समस्या को जन्म दे सकती है।
उदाहरण के लिये जब कोई न्यायालय प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग को बंद करने का आदेश देती है तो कामगारों और उनकी आजीविका से वंचित उनके परिवारों के हितों को न्यायालय द्वारा ध्यान में नहीं रखा जा सकता है।
विलंब:
शोषित और वंचित समूहों से संबंधित जनहित याचिकाएँ कई वर्षों से लंबित हैं।
जनहित याचिका के मामलों के निपटान में अत्यधिक देरी से कई प्रमुख निर्णय अव्यवहारिक/अक्रियात्मक मूल्य (Academic Value) के हो सकते हैं।
न्यायिक अतिरेक:
जनहित याचिकाओं के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक या पर्यावरणीय समस्याओं को हल करने की प्रक्रिया में न्यायपालिका द्वारा न्यायिक अतिक्रमण के मामले हो सकते हैं।
पूर्व अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी की राय में जनहित याचिका के दुरुपयोग को नियंत्रित करने के लिये 3 बुनियादी नियम:
संदिग्ध जनहित याचिका को उपयुक्त मामलों में अनुकरणीय लागत के साथ अस्वीकार करना।
ऐसे मामलों में जहाँ महत्त्वपूर्ण परियोजना या सामाजिक आर्थिक नियमों में अधिक विलंब के बाद चुनौती दी जाती है, ऐसी याचिकाओं को निलंबित कर देना चाहिये।
यदि जनहित याचिका को अंततः खारिज कर दिया जाता है, तो जनहित याचिका को सख्त शर्तों के तहत होना चाहिये जैसे कि याचिकाकर्त्ताओं को क्षतिपूर्ति प्रदान करना या हर्ज़ाने को कवर करना।
न्यायिक सक्रियता नागरिकों के अधिकारों की रक्षा में न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका को दर्शाती है।
न्यायिक सक्रियता का अभ्यास सबसे पहले संयुक्त राज्य अमेरिका में शुरूऔर विकसित हुआ।
भारत में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को किसी भी कानून की संवैधानिकता की जाँच करने की शक्ति प्राप्त है और यदि ऐसा कानून संविधान के प्रावधानों के साथ असंगत पाया जाता है, तो अदालत कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकती है।
यह ध्यान दिया जाना चाहिये कि अधीनस्थ न्यायालयों के पास कानूनों की संवैधानिकता की समीक्षा करने की शक्ति नहीं है।
न्यायिक सक्रियता शब्द वर्ष 1947 में इतिहासकार आर्थर स्लेसिंगर जूनियर द्वारा गढ़ा गया था।
भारत में न्यायिक सक्रियता की नींव न्यायमूर्ति वी.आर कृष्ण अय्यर, न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती, न्यायमूर्ति ओ.चिन्नप्पा रेड्डी और न्यायमूर्ति डी.ए. देसाई ने रखी थी।
न्यायिक सक्रियता ने संसद और सर्वोच्च न्यायालयों के बीच सर्वोच्चता के संबंध में विवाद को जन्म दिया है।
यह शक्तियों के पृथक्करण, नियंत्रण और संतुलन के नाजुक सिद्धांत को बिगाड़ सकता है।
न्यायिक संयम न्यायिक सक्रियता का विपरीत शब्द है।
न्यायिक संयम न्यायिक व्याख्या का एक सिद्धांत है जो न्यायाधीशों को अपनी शक्ति के प्रयोग को सीमित करने के लिये प्रोत्साहित करता है।
संक्षेप में न्यायालयों को कानून की व्याख्या करनी चाहिये और नीति-निर्माण में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये।
न्यायाधीशों को हमेशा निम्नलिखित के आधार पर मामलों का निर्णय करने का प्रयास करना चाहिये:
संविधान लिखने वालों का मूल उद्देश्य।
मिसाल/उदाहरण - एक जैसे मामलों में पिछले फैसले।
साथ ही अदालत को नीति निर्धारण दूसरों पर छोड़ देना चाहिये।
यहाँ अदालतें अपने निर्णयों के साथ नई नीतियाँ निर्धारित करने से खुद को "रोक" देती हैं।
न्यायपालिका की बढ़ती भूमिका को समझने के लिये उन कारणों को जानना आवश्यक है जिनकी वजह से न्यायपालिका सक्रिय भूमिका निभा रही है।
सरकार के अन्य अंगों जैसे- कार्यपालिका, विधायिका में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार।
कार्यपालिका का अपने काम में कठोर होना और अपेक्षित परिणाम देने में विफल रहना।
संसद का अपने विधायी कर्तव्यों से अनभिज्ञ होना।
लोकतंत्र के सिद्धांतों का लगातार क्षरण होना।
जनहित याचिकाओं द्वारा सार्वजनिक मुद्दों की तात्कालिकता को सामने लाना।
ऐसे में न्यायपालिका को सक्रिय भूमिका निभाने के लिये मजबूर होना पड़ा। यह न्यायपालिका जैसी संस्था के माध्यम से ही संभव था, जिसमें समाज में विभिन्न गलतियों को सुधारने की शक्तियाँ निहित हैं। लोकतंत्र से समझौते को रोकने के लिये सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने इन समस्याओं के समाधान की ज़िम्मेदारी ली।
उदाहरण के लिये जी. सत्यनारायण बनाम ईस्टर्न पावर डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी (वर्ष 2004) मामले में न्यायमूर्ति गजेंद्र गडकर ने फैसला सुनाया कि यदि किसी कर्मचारी को कदाचार के आधार पर बर्खास्त किया जाता है तो एक अनिवार्य जाँच की जानी चाहिये और उसे अपना बचाव करने का अवसर प्रदान किया जाना चाहिये। इस फैसले ने श्रम कानून में नियमों को जोड़ा जिसे कानून द्वारा नज़रअंदाज कर दिया गया।
इसी तरह विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (वर्ष 1997) एक महत्त्वपूर्ण मामला है जो न्यायिक सक्रियता की आवश्यकता की याद दिलाता है। यहाँ सर्वोच्च न्यायालय ने दिशा-निर्देश निर्धारित किये जिनका पालन सभी कार्यस्थलों में किया जाना चाहिये ताकि महिलाओं के साथ उचित व्यवहार को सुनिश्चित किया जा सके। इसने आगे कहा कि इन दिशा-निर्देशों को एक कानून के रूप में माना जाना चाहिये जब तक कि संसद लैंगिक समानता को लागू करने के लिये कानून नहीं बनाती।
केशवानंद भारती मामला (वर्ष 1973): भारत के शीर्ष न्यायालय ने घोषणा की कि कार्यपालिका को संविधान के मूल ढाँचे में हस्तक्षेप करने और छेड़छाड़ करने का कोई अधिकार नहीं है।
शीला बरसे बनाम महाराष्ट्र राज्य (वर्ष 1983): इस मामले में एक पत्रकार द्वारा जेल में महिला कैदियों की हिरासत के दौरान हिंसा के संबंध में एक पत्र के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय को सूचित किया गया। न्यायालय ने उस पत्र को एक रिट याचिका के रूप में माना और मामले का संज्ञान लिया।
आई.सी. गोलकनाथ एवं अन्य बनाम पंजाब राज्य और अन्य (वर्ष 1967): सर्वोच्च न्यायालय ने घोषणा की कि भाग- 3 में निहित मौलिक अधिकार इम्यून और इन्हें विधानसभा द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता है।
हुसैनारा खातून (I) बनाम बिहार राज्य (वर्ष 1979): एक समाचार पत्र में प्रकाशित लेखों के माध्यम से विचाराधीन कैदियों के खिलाफ अमानवीय और बर्बरता की स्थिति पर प्रकाश डाला गया। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत, शीर्ष अदालत ने इसे स्वीकार किया और माना कि त्वरित सुनवाई का अधिकार एक मौलिक अधिकार है।
ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (वर्ष 1950): भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि किसी व्यक्ति को उसके जीवन या स्वतंत्रता से वंचित करने के लिये न केवल कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिये, बल्कि यह भी कि ऐसी प्रक्रिया निष्पक्ष एवंउचित होनी चाहिये।
न्यायिक संयम सरकार के तीन अंगों- न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के बीच संतुलन बनाए रखने में मदद करता है।
विधायिका में सरकार द्वारा स्थापित कानून को बनाए रखने के लिये।
विधायिका और कार्यपालिका को उनके कार्यक्षेत्र में दखल न देकर कर्तव्यों का पालन करने की अनुमति देना।
नीतियों के निर्माण का कार्य नीति निर्माताओं पर छोड़कर सरकार के लोकतांत्रिक स्वरूप के प्रति सम्मान को चिह्नित करना।
एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (वर्ष 1994) मामला इस संबंध में एक प्रमुख उदाहरण है जिसे न्यायपालिका द्वारा न्यायिक संयम दिखाने के रूप में देखा जाता है। फैसले में कहा गया कि कुछ मामलों में न्यायिक समीक्षा संभव नहीं है क्योंकि मामला राजनीतिक होता है। अदालत के अनुसार, अनुच्छेद 356 की शक्ति एक राजनीतिक प्रश्न है, इस प्रकार न्यायिक समीक्षा से इनकार कर दिया। न्यायालय ने कहा कि अगर राजनीतिक मामलों पर न्यायपालिका के मानदंड लागू होते हैं तो यह राजनीतिक क्षेत्र में हस्तक्षेप होगा और न्यायालय ऐसा करने से बचेगा।
इसी प्रकार अलमित्र एच. पटेल बनाम भारत संघ (वर्ष 1998) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली की सफाई की ज़िम्मेदारी सौंपने के मुद्दे पर नगर निगम को निर्देश देने से इनकार कर दिया और कहा कि वह केवल अधिकारियों को कानून के अनुसार सौंपे गए कर्तव्य को पूरा करने के लिये कह सकता है।
विधायी और कार्यकारी लापरवाही या अक्षमता का प्रत्यक्ष प्रभाव "न्यायिक अतिरेक" है।
कमज़ोर और अविवेकपूर्ण परिणाम, न केवल कानून बनाने में, बल्कि उनके आवेदन में भी।
भारतीय न्यायपालिका की कई कानूनी विद्वानों, वकीलों और स्वयं न्यायाधीशों द्वारा अत्यधिक सक्रिय भूमिका निभाने और अतिरेक के लियेआलोचना की गई है।
चूँकि विधायिका अपने कार्य में पिछड़ रही है, न्यायपालिका अपने कार्य से आगे निकल जाती है, जिससे विधायिका और न्यायपालिका के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है। न्यायपालिका के इस तरह के अतिक्रमण का स्पष्ट प्रभाव इस प्रकार हैं:
यह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के लिये खतरा है जो संविधान की भावना को कमज़ोर करता है। विधायिका और न्यायपालिका के बीच सामंजस्य की कमी है और विधायिका की निष्क्रियता की धारणा जनता में बनी हुई है।
कुछ परिदृश्यों, जैसे- पर्यावरण, नैतिक, राजनीतिक मामलों में विशेष ज्ञान की आवश्यकता होती है जो हमेशा न्यायपालिका के पास नहीं हो सकता है। यदि इन क्षेत्रों में कोई अनुभव न होने पर भी वह निर्णय देती है तो यह निर्णय न केवल विशेषज्ञता के अभाव में कमज़ोर होगा बल्कि देश के लिये हानिकारक भी साबित हो सकता है।
न्यायिक अतिरेक जनता द्वारा चुनी गई सरकार या प्रतिनिधित्व के प्रति न्यायपालिका की अवहेलना की अभिव्यक्ति का कारण बन सकता है। यह लोकतांत्रिक संस्था में जनता के विश्वास को कम कर सकता है। अतः न्यायालयों का यह दायित्व है कि वे अपने अधिकार क्षेत्र में रहें और शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को बनाए रखें।
सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं वर्ष 2007 में अन्य अदालतों को न्यायिक संयम बरतने की याद दिलाई है। इसमें कहा गया है, "न्यायाधीशों को अपनी सीमाएँ पता होनी चाहिये और सरकार को चलाने की कोशिश नहीं करनी चाहिये। उनमें विनम्रता होनी चाहिये सम्राटों की तरह व्यवहार नहीं करना चाहिये।" इसके अलावा इसने कहा, "न्यायिक सक्रियता के नाम पर न्यायाधीश अपनी सीमाओं को पार नहीं कर सकते हैं और उन शक्तियों पर कब्ज़ा करने की कोशिश नहीं कर सकते जो राज्य के दूसरे अंग से संबंधित हैं"।
न्यायिक अतिरेक का एक प्रसिद्ध मामला फिल्म जॉली एलएलबी II की सेंसरशिप है। मामला एक रिट याचिका के रूप में दायर किया गया था और आरोप लगाया कि फिल्म ने कानूनी पेशे को एक मजाक के रूप में चित्रित किया, जिससे यह अवमानना और उकसाने वाला कार्य बन गया। बॉम्बे उच्च न्यायालय ने फिल्म देखने और उस पर रिपोर्ट देने के लिये तीन व्यक्तियों की एक समिति नियुक्त की। इसे अनावश्यक माना गया, क्योंकि फिल्म प्रमाणन बोर्ड पहले से मौजूद है और सेंसर करने की शक्ति उसमें निहित है। समिति की रिपोर्ट के आधार पर निदेशकों ने फिल्म के चार सीन हटा दिये। इसे अनुच्छेद 19(2) के उल्लंघन के रूप में देखा गया, क्योंकि इसने भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाया था।
सड़क सुरक्षा के बारे में एक जनहित याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने किसी भी राष्ट्रीय या राज्य राजमार्ग के 500 मीटर के दायरे में खुदरा दुकानों, रेस्त्रां, बार में शराब की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया। न्यायालय के सामने ऐसा कोई सबूत पेश नहीं किया गया जिससे पता चलता हो कि राजमार्गों पर शराबबंदी का संबंध मौतों की संख्या से है। इस फैसले से राज्य सरकारों को राजस्व का नुकसान भी हुआ तथा रोज़गार का भी नुकसान हुआ। मामले को न्यायिक अतिरेक के रूप में देखा गया क्योंकि मामला प्रशासनिक था जिसके लिये कार्यकारी ज्ञान की आवश्यकता थी।
न्यायिक सक्रियता:
न्यायिक समीक्षा के माध्यम से
न्यायिक समीक्षा वह सिद्धांत है जिसके तहत न्यायपालिका द्वारा विधायी और कार्यकारी कार्यों की समीक्षा की जाती है।
न्यायिक समीक्षा आधुनिक सरकारी व्यवस्था में नियंत्रण और संतुलन का एक उदाहरण है।
न्यायिक समीक्षा को भारत के संविधान में संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से अपनाया गया है।
यह सर्वोच्च न्यायालय को किसी भी कानून की संवैधानिकता की जाँच करने की शक्ति देती है और यदि ऐसा कानून संविधान के प्रावधानों से असंगत पाया जाता है तो न्यायालय कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकता है।
जनहित याचिका के माध्यम से:
जनहित याचिका का अर्थ है जनहित की सुरक्षा के लिये अदालत में दायर एक मुकदमा।
जनहित याचिका के कारण भारत में न्यायिक सक्रियता को महत्त्व मिला। इसे किसी कानून या अधिनियम में परिभाषित नहीं किया गया है।
भारत में शुरू में समाज के वंचित वर्ग,जो गरीबी और अज्ञानता के कारण न्यायालयों से न्याय मांगने की स्थिति में नहीं थे, की स्थिति में सुधार लाने के लिये जनहित याचिका का सहारा लिया गया था।
न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती और वी.आर. कृष्णा अय्यर ने देश के सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाने के इस रास्ते को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
संवैधानिक व्याख्या के माध्यम से:
संवैधानिक व्याख्या, विवादों को हल करने का प्रयास करने वाले लोगों के लिये उपलब्ध संविधान
व्याख्या के संभावित स्रोतों में सामान्य सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ सहित संविधान का पाठ, इसका "मूल इतिहास" शामिल है।
संवैधानिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय विधियों तक पहुँच के माध्यम से:
न्यायालय अपने निर्णयों में विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय विधियों का उल्लेख करता है।
यह कार्य सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नागरिकों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिये किया जाता है।
अंतर्राष्ट्रीय कानून को कई मामलों में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों द्वारा संदर्भित किया जाता है। उदाहरण: हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने जीजा घोष बनाम भारत संघ मामले में विकलांग व्यक्ति के सम्मान के साथ जीने के अधिकारों की पुष्टि की। न्यायालय ने संधि के कानून, 1963 पर वियना कन्वेंशन को रेखांकित किया, जिसके लिये अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं का पालन करने हेतु भारत के आंतरिक कानून की आवश्यकता है।
संविधान लिखने वालों के मूल इरादे का जिक्र करते हुए:
न्यायाधीश संविधान के लेखकों की मूल मंशा को देखते हैं।
न्यायाधीश
मूल संविधान की भाषा में कोई भी परिवर्तन केवल संवैधानिक संशोधनों द्वारा ही किया जा सकता है।
मिसाल/उदाहरण के ज़रिये:
मिसाल का मतलब पिछले मामलों में दिये गए फैसलों से है।
नीतियों को तय करने के लिये विधायिका और कार्यपालिका को छोड़कर:
न्यायिक संयम का अभ्यास तब किया जाता है जब न्यायालय नीति निर्धारण को दूसरों पर छोड़ देता है।
न्यायालय आमतौर पर संसद या किसी अन्य संवैधानिक निकाय द्वारा संविधान की व्याख्याओं का उल्लेख करते हैं।
न्यायिक सक्रियता बनाम न्यायिक संयम:
अर्थ के आधार पर:
न्यायिक सक्रियता: समकालीन मूल्यों और शर्तों की वकालत करने के लिये संविधान की व्याख्या।
न्यायिक संयम: किसी कानून को रद्द करने के लिये न्यायाधीशों की शक्तियों को सीमित करना।
लक्ष्यों के आधार पर:
न्यायिक संयम: न्यायाधीश और न्यायालय मौजूदा कानून को संशोधित करने के बजाय उस कानून की समीक्षा को प्रोत्साहित करते हैं, जबकि
न्यायिक सक्रियता में वे कुछ कृत्यों या निर्णयों को रद्द करने की शक्ति का प्रयोग करते हैं।
उद्देश्य के आधार पर:
न्यायिक सक्रियता न्यायाधीशों को संविधान बनाने वालों के मूल इरादे से परे देखना चाहिए।
न्यायिक संयम में न्यायाधीशों को संविधान के लेखकों की मूल मंशा को देखना चाहिए।
शक्ति के आधार पर:
न्यायिक सक्रियता में न्यायाधीशों को किसी भी अन्याय के मामले में सुधार के लिये अपनी शक्ति का उपयोग करने की आवश्यकता होती है, खासकर जब अन्य संवैधानिक निकाय कार्य नहीं कर रहे हों।
न्यायिक संयम एक कानून को खत्म करने के लिये न्यायाधीशों की शक्तियों को सीमित कर रहा है।
उनकी भूमिका के आधार पर:
किसी व्यक्ति के अधिकारों की सुरक्षा, नागरिक अधिकार, सार्वजनिक नैतिकता और राजनीतिक अन्याय जैसे मुद्दों पर सामाजिक नीतियाँ बनाने में न्यायिक सक्रियता की एक बड़ी भूमिका है।
न्यायिक संयम सरकार, न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका की तीन शाखाओं के बीच संतुलन बनाए रखने में मदद करता है।
निष्कर्ष:
भारत में न्यायपालिका ने अपनी सक्रियता, विशेष रूप से जनहित याचिका के माध्यम से सक्रिय भूमिका निभाई है। इसने समाज के वंचित वर्गों के अधिकारों को बहाल किया है।
सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने प्रगतिशील सामाजिक नीतियों के पक्ष में काम किया है और नागरिक न्यायपालिका की संस्था का बहुत सम्मान करते हैं।
हालाँकि लोकतंत्र में शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत और सरकार के तीनों अंगों की वैधता को बनाए रखना महत्त्वपूर्ण है।
यह तभी संभव हो सकता है जब कार्यपालिका और विधायिका चौकस और क्रियाशील हों।
साथ ही न्यायपालिका को उन गतिविधियों के क्षेत्रों में कदम रखने से सावधान रहना चाहिये जो इससे संबंधित नहीं हैं।