ENVIRONMENT AND ECOSYSTEM
ENVIRONMENT AND ECOSYSTEM
पहल: गिद्धों की गणना और इस गंभीर रूप से संकटग्रस्त पक्षी प्रजाति के बारे में जागरूकता बढ़ाना।
तिथियाँ: 7 सितंबर से 6 अक्टूबर तक।
अंतर्राष्ट्रीय गिद्ध जागरूकता दिवस के साथ मेल खाता है।
गिद्धों का महत्व:
स्वस्थ पारिस्थितिक तंत्र के लिए जरूरी हैं।
प्रकृति की सफाई करने वाले दल हैं, बीमारियों के प्रसार को रोकते हैं।
पोषक तत्वों के चक्रण और पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखने में मदद करते हैं।
गिद्धों को खतरे:
पशुओं के इलाज के लिए इस्तेमाल होने वाली जहरीली एनएसएआईडी (डाइक्लोफेनेक)।
आवास का नुकसान, बिजली के झटके, भोजन की कमी और मानवीय हस्तक्षेप।
गिद्ध गणना 2024 के उद्देश्य:
गिद्धों की आबादी का व्यवस्थित रूप से निरीक्षण करना।
बुनियादी डेटा एकत्र करना ताकि रुझानों को ट्रैक किया जा सके और महत्वपूर्ण आवासों की पहचान की जा सके।
पर्यावरणीय परिवर्तनों के प्रभाव का आकलन करें।
लक्षित संरक्षण रणनीतियाँ और नीतियाँ विकसित करें।
जनता में जागरूकता और गिद्ध संरक्षण के लिए समर्थन बढ़ाएँ।
नागरिक विज्ञान की भागीदारी:
WWF-India नागरिक वैज्ञानिकों, पक्षी उत्साही और स्थानीय समुदायों से भाग लेने का आग्रह कर रहा है।
स्वयंसेवकों को गिद्धों की पहचान और डेटा एकत्र करने के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा।
मुख्य गिद्ध प्रजातियाँ:
सफेद-पुच्छ, लाल-सिर, भारतीय, दाढ़ी वाले, पतले-चोंच वाले, हिमालयी गिद्ध, यूरेशियन गिद्ध, मिस्री गिद्ध और सिनरेसियस गिद्ध।
वर्चुअल अभिविन्यास:
6 सितंबर को विशेषज्ञ पक्षी विज्ञानी नीरव भट्ट द्वारा एक वर्चुअल अभिविन्यास सत्र आयोजित किया जाएगा।
सत्र स्वयंसेवकों को आवश्यक प्रशिक्षण और जानकारी प्रदान करेगा।
सार्वजनिक भागीदारी:
WWF-India ने सार्वजनिक भागीदारी के लिए स्थानों की सिफारिश की है।
कुल मिलाकर: गिद्ध गणना 2024 इन खतरे वाले पक्षियों के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण डेटा एकत्र करने और उनके पारिस्थितिक तंत्र के लिए महत्व के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए एक महत्वपूर्ण पहल है।
संदर्भ
तमिलनाडु जल संसाधन विभाग (WRD) ने राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण को सूचित किया है कि उसने कामराजार बंदरगाह से 160 करोड़ रुपए की मांग की हैं ताकि बंदरगाह के पास तट पर विदेशज सीपियों (Invasive Mussel) को हटाने में मदद मिल सके।
यह माइटेला स्ट्रिगाटा (Mytella strigata) नामक सीपियों के प्रसार से संबंधित है, जिसे ‘चारु सीपी’ (Charru Mussel) भी कहते हैं।
यह समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचाता है और मछुआरों की नावों की आवाजाही में बाधक बनता है। इससे उनकी आजीविका प्रभावित होती है।
WRD के अनुसार, तमिलनाडु के एन्नोर में स्थित कामराजार बंदरगाह द्वारा जलयानों से आने वाले ब्लॅास्ट वॉटर के विनियमिन का अभाव आक्रामक प्रजातियों के प्रसार का मुख्य कारण है।
ब्लॅास्ट वाटर समुद्री जहाजों (जलयानों) में भरकर लाया जाने वाला समुद्री जल है, जिसका उपयोग जहाज के स्थायित्व व संतुलन के लिए किया जाता है।
एक पारितंत्र से दूसरे पारितंत्र में जाने के कारण यह जल पर्यावरण एवं जैव विविधता के लिए गंभीर खतरा भी उत्पन्न कर सकता है।
ब्लॅास्ट वाटर में विभिन्न प्रकार के सूक्ष्मजीव, पौधे व छोटे समुद्री जीव होते हैं। जब ये एक समुद्री क्षेत्र से दूसरे समुद्री क्षेत्र में ले जाए जाते हैं तो स्थानीय पारितंत्र को प्रभावित कर सकते हैं।
इन जीवों में कुछ आक्रामक व विदेशज प्रजातियाँ भी हो सकती हैं, जो नए पर्यावरण में तेजी से फैलकर वहां की स्थानीय प्रजातियों को नुकसान पहुंचा सकती हैं।
ब्लॅास्ट वाटर आक्रामक प्रजातियों को दूसरे देशों में ले जाता है जो पारिस्थितिकी तंत्र को नष्ट करते हैं। इसलिए, भारत में वैश्विक शिपिंग ने ब्लॅास्ट पानी के निर्वहन को विनियमित करने की मांग की है।
ब्लॅास्ट वाटर प्रबंधन की आवश्यकता इसलिए पड़ी क्योंकि यह समुद्री पर्यावरण के लिए खतरा बन सकते हैं।
यह अनुमान है कि दुनिया भर में वार्षिक 5 बिलियन टन तक ब्लॅास्ट वॉटर स्थानांतरित होता है और लगभग 10,000 अवांछित प्रजातियाँ प्रतिदिन जलयानों के ब्लॅास्ट टैंक में ले जाई जाती हैं।
इसलिए, ब्लॅास्ट वॉटर को व्यापक रूप से एक प्रमुख पर्यावरणीय खतरा माना जाता है क्योंकि यह संवेदनशील समुद्री पारितंत्र को खतरे में डालता है और समुद्री जीवन को अपरिवर्तनीय क्षति पहुँचा सकता है।
हाल ही में, भारत में वैज्ञानिकों ने ब्लॅास्ट वाटर से आने वाली लगभग 30 आक्रामक प्रजातियों को दर्ज किया है और सबसे ज़्यादा नुकसानदायक प्रजातियों में ‘चारु सीपी’ है।
केरल विश्वविद्यालय में जलीय जीव विज्ञान एवं मत्स्य पालन विभाग के अनुसार, तमिलनाडु की पुलिकट झील में केरल की अष्टमुडी झील की तरह चारु सीपी ने लगभग सभी अन्य प्रजातियों का स्थान ले लिया है।
चारु सीपी की जीवित रहने और अंडा देने की दर बहुत अधिक है। यद्यपि यह समुद्री मूल का जीव है किंतु यह ताजे पानी में भी जीवित रह सकता है।
ब्लॅास्ट वाटर प्रबंधन को नियमित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय समुद्री संगठन (IMO) ने वर्ष 2004 में ब्लॅास्ट वाटर प्रबंधन अभिसमय (BWM Convention) को अपनाया। यह अभिसमय वैश्विक स्तर पर वर्ष 2017 से लागू हुआ।
इसका उद्देश्य जलयान ब्लॅास्ट वाटर को पर्यावरण अनुकूल तरीके से प्रबंधित करना और समुद्री जीवन व पर्यावरण को खतरे से बचाने के लिए जलयानों को अपने ब्लॅास्ट वाटर को विशेष तकनीकों से स्वच्छ करना है।
BWM अभिसमय लागू होने पर 400 सकल रजिस्टर टन भार (Gross Register Tonnage : GRT) और उससे अधिक के सभी जलयानों को जहाज पर एक स्वीकृत ब्लॅास्ट वाटर उपचार प्रणाली फिट करना आवश्यक होगा। साथ ही, जलयानों को समुद्री प्रशासन द्वारा अनुमोदित एक जलयान विशिष्ट BWM योजना की आवश्यकता होगी जिसे एक अंतर्राष्ट्रीय BWM प्रमाण-पत्र जारी करके सत्यापित किया जाएगा।
ब्लॅास्ट वाटर विनिमय : इस प्रक्रिया में जलयान द्वारा समुद्र के गहरे जल में अपने ब्लॅास्ट वाटर का आदान-प्रदान करना शामिल है, जिससे तटीय क्षेत्रों में रहने वाले सूक्ष्मजीव व अन्य जीव गहरे समुद्र में जाने से वहां जीवित नहीं रह सकते हैं।
ब्लॅास्ट वाटर उपचार प्रणालियाँ : इन प्रणालियों में ब्लॅास्ट वाटर को जैविक व रासायनिक तरीकों से साफ किया जाता है। इसमें फ़िल्ट्रेशन, यूवी विकिरण और क्लोरीनीकरण जैसी तकनीकें शामिल हैं, जो पानी में मौजूद जीवों को नष्ट करने या उन्हें निष्क्रिय करने के लिए उपयोग की जाती हैं।
निक्षेप प्रबंधन : ब्लॅास्ट टैंक के तल पर जमा होने वाले निक्षेप को नियंत्रित व प्रबंधित करना भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इनमें भी आक्रामक प्रजातियाँ हो सकती हैं।
भारत ने वर्ष 2015 में BWM अभिसमय को स्वीकार किया और केंद्रीय मंत्रिमंडल ने मई 2015 में मर्चेंट शिपिंग (संशोधन) विधेयक, 2015 को पेश करने को मंजूरी दी।
विधेयक में अभिसमय में निहित नियमों के उल्लंघन या अनुपालन न करने पर जुर्माने का प्रावधान है और बंदरगाहों पर अतिरिक्त सुविधाओं का उपयोग करने वाले जहाजों से शुल्क लेने का प्रावधान है।
इसके अलावा, भारत के प्रादेशिक जल में चलने वाले 400 जी.आर.टी. से कम के भारतीय जहाजों को अंतर्राष्ट्रीय प्रमाणपत्र के बजाए भारतीय ब्लॅास्ट वाटर प्रबंधन प्रमाण-पत्र जारी किया जाएगा और उन्हें भारतीय जल में अभिसमय के तहत सभी नियमों का पालन करना होगा।
भारत ने BWM पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं, इसलिए भारतीय बंदरगाहों पर आने वाले जहाजों पर BWM अभिसमय को लागू करने की कोई बाध्यता नहीं है।
यद्यपि पेट्रोलियम के रिसाव (निष्कर्षण) से संबंधित अन्य नियम भारतीय बंदरगाहों पर लागू होते हैं किंतु अन्य देशों से आने वाले ब्लॅास्ट वाटर के निष्कर्षण पर जाँच या विनियमन नहीं होता है।
भारतीय बंदरगाहों ने भी ब्लॅास्ट वाटर प्रबंधन के प्रति अपने प्रयासों को तेज किया है। कुछ प्रमुख बंदरगाहों पर आधुनिक ब्लॅास्ट वाटर उपचार प्रणालियों की स्थापना की गई है।
समुद्री पर्यावरण के संरक्षण के लिए जागरूकता अभियान चलाए जा रहे हैं, ताकि जलयान स्वामी व संचालक ब्लॅास्ट वाटर प्रबंधन के नियमों का पालन कर सके।
सभी जलयानों पर ब्लॅास्ट वाटर प्रबंधन प्रणाली को लागू करना महंगा व तकनीकी रूप से चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
विभिन्न देशों के बीच कानूनों व नियमों में भी एकरूपता का अभाव है, जिससे अंतर्राष्ट्रीय समुद्री परिवहन पर प्रभाव पड़ सकता है।
ब्लॅास्ट वाटर के कारण समुद्री पारितंत्र असंतुलित हो रहा है और गैर-स्थानीय प्रजातियों के प्रसार के कारण अन्य प्रजातियों का जीवन चुनौतीपूर्ण हो गया है।
आगे की राह
भारत में ब्लॅास्ट वाटर प्रबंधन को अधिक प्रभावी बनाने के लिए नीतिगत स्तर पर और कदम उठाने की आवश्यकता है।
जलयान स्वामियों को सख्त निगरानी में लाने, बेहतर तकनीकी समाधान विकसित करने और स्थानीय समुद्री पारितंत्र संरक्षण के लिए ठोस कदम उठाने की जरूरत है।
इसके अलावा, अंतरराष्ट्रीय सहयोग एवं अनुभव साझा करने से भी भारत इस चुनौती का सामना करने में सफल हो सकता है।
क्या है : संयुक्त राष्ट्र की एक विशेष एजेंसी
स्थापना : जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में अपनाए गए एक अभिसमय के माध्यम से 17 मार्च, 1948 को
सदस्य देश : 174
मुख्यालय : लन्दन
उद्देश्य :
समुद्री सुरक्षा पर अंतर्राष्ट्रीय संधियाँ व अन्य तंत्र विकसित करना
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में भेदभावपूर्ण एवं प्रतिबंधात्मक प्रथाओं को हतोत्साहित करना
शिपिंग चिंताओं द्वारा अनुचित व्यवहार को रोकना
समुद्री प्रदूषण को कम करना
यह परिचालन या दुर्घटना के कारण जहाजों द्वारा समुद्री पर्यावरण के प्रदूषण की रोकथाम को कवर करने वाला मुख्य अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय है।
2 नवंबर, 1973 को MARPOL अभिसमय को अपनाया गया था।
पर्यावरण : शाब्दिक अर्थ एवं परिभाषा
पर्यावरण शब्द दो शब्दों परि (चारों ओर) तथा आवरण (घेरा) से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है- चारों ओर से घिरा हुआ अर्थात् वह क्षेत्र जो किसी जीवधारी के चारों ओर विस्तृत है।
अंग्रेजी भाषा के Environment शब्द की उत्पत्ति Environ से हुई है, जिसका अर्थ भी आस-पड़ोस (Surroundings) को इंगित करता है।
पर्यावरण उन समस्त जैविक एवं अजैविक कारकों के समग्र प्रभाव का योग है, जो सभी सजीवों को प्रभावित करता है। इसमें भौतिक व रासायनिक कारक (जैसे- जल, वायु, मृदा, प्रकाश, अग्नि, ताप और भौगोलिक स्थिति) तथा जैविक कारक (जैसे- सूक्ष्म जीव, पेड़-पौधे और जीव-जन्तु) सम्मिलित किये जाते हैं।
पर्यावरण एक सापेक्षिक अवधारणा है जो किसी जीव के आस-पास की उन परिस्थितियों या परिवेश को दर्शाता है, जो उन जीवों के विकास व परिवर्तन में सहायक होते हैं।
पर्यावरण प्रकृति में किसी जीव के लिये वह उपयुक्त वातावरण है, जिसमें वह जीवित रह सके, विकास कर सके एवं अन्य जीवों के साथ पारस्परिक क्रियाएँ एवं अन्तर्सम्बंध स्थापित कर सके।
पर्यावरणीय परिस्थितियाँ एक स्थान से दूसरे स्थान पर बदलती रहती हैं, जैसे- पंजाब की पर्यावरणीय दशाएँ जहाँ गेहूँ के लिए उपयुक्त हैं वहीं तमिलनाडु का कावेरी डेल्टा इसके लिए अनुपयुक्त है।
प्रमुख पर्यावरणविदों के विचार
• होरोविट्ज (Horovitz) के अनुसार, किसी जीवित तत्व के विकास चक्र को प्रभावित करने वाली समस्त बाह्य दशाओं को पर्यावरण कहते हैं।
पी. गिजबर्ट के अनुसार. वह सब कुछ पर्यावरण है जो किसी वस्तु को घेरे हुए है तथा उसको प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है।
ई.जे. रॉस के अनुसार, पर्यावरण एक बाह्य बल है जो हमें प्रभावित करता है।
पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 के अनुसार, पर्यावरण के अन्तर्गत वायु, जल, भूमि, मानव जीवन एवं उसके क्रियाकलाप एवं अन्य जीव-जन्तु, पेड़-पौधे, सूक्ष्म जीव तथा उनके अंतर्सम्बंध सम्मिलित हैं।
पर्यावरण की संरचना (Structure of Environment)
पर्यावरण के अंतर्गत पृथ्वी के जैविक एवं अजैविक दोनों घटक सम्मिलित होते हैं-
(i) जैविक घटक (Biotic Components) : इसके अन्तर्गत जन्तु, वनस्पतिक तथा सूक्ष्म जीव सम्मिलित होते हैं।
(ii) अजैविक घटक (Abiotic Components) : इसके अन्तर्गत स्थलमण्डल, वायुमण्डल तथा जलमण्डल को सम्मिलित किया जाता है।
उपर्युक्त घटकों के अतिरिक्त मानव द्वारा प्राकृतिक वातावरण में परिवर्तन के परिणामस्वरूप निर्मित सांस्कृतिक पर्यावरण भी. अत्यंत महत्वपूर्ण है। जहाँ भौतिक पर्यावरण में मानव हस्तक्षेपकर्ता न होकर एक घटक के रूप में होता है वहीं सांस्कृतिक पर्यावरण में मानव एक सक्रिय हस्तक्षेपकर्ता है। इसके अन्तर्गत सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं राजनैतिक पर्यावरण सम्मिलित हैं।
जैविक पर्यावरण (Biotic Envirronment)
पादप (Plant)
पादप पर्यावरण के महत्वपूर्ण घटक हैं। हरे पादप प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से भोजन निर्माण करके तथा भूमि से विविध पोषक तत्वों को ग्रहण कर जैव मण्डल में खाद्य श्रृंखला को ऊर्जा प्रवाहित करते हैं। ये पर्यावरण के जैविक पदार्थों एवं पोषक तत्वों का चक्रण संभव बनाते हैं। अपना भोजन स्वयं निर्मित करने के कारण पादपों को स्वपोषी (Autotrophic) कहा जाता हैं।
जीव (Organism)
जीव, स्वपोषी एवं परपोषी दोनों प्रकार के होते हैं परन्तु अधिकांशतः
जीव परपोषी (Heterotrophic) होते हैं क्योंकि वे अपने भोजन हेतु
अन्य पर्यावरणीय घटकों पर निर्भर रहते हैं। स्वपोषी जीव अपने
भोजन का निर्माण स्वयं करते हैं, जैसे- साइनोबैक्टीरिया (Cyanobacteria-Blue Green Algae) पर्णहरित (Chlorophyll) की उपस्थिति में अपने भोजन का निर्माण स्वयं करता है।
पोषण के स्रोत के आधार पर जीवों को तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-
1. मृतजीवी (Saprophytes): इस वर्ग के जीव मृत जीवों एवं वनस्पतियों से भोजन प्राप्त करते हैं। उदाहरणः कवक, बैक्टीरिया।
2. परजीवी (Parasites): इस वर्ग के जीव पोषण हेतु अन्य जीवों पर निर्भर होते हैं। उदाहरण: जोंक, खटमल आदि।
3. प्राणी समभोजी (Holozoic): इस वर्ग के जीव अपना भोजन ठोस अथवा तरल रूप में मुख से ग्रहण करते हैं। इनका भोजन पादप उत्पाद या जन्तु उत्पाद अथवा दोनों हो सकता है। उदाहरणः मनुष्य, कुत्ता, भालू, बन्दर आदि।
सूक्ष्म जीव (Micro Organism)
सूक्ष्म जीव, जिन्हें अपघटक (Decomposer) कहते हैं, पौधों एवं जन्तुओं के मृत शरीर में उपस्थित कार्बनिक यौगिकों का अपघटन करते हैं तथा उन्हें सरल यौगिकों में विघटित कर अन्य जीवों एवं पौधों हेतु सुलभ बनाते हैं। सूक्ष्म जीवों में बैक्टीरिया तथा कवक सम्मिलित होते हैं।
भौतिक पर्यावरण (Physical Environment)
भौतिक पर्यावरण के अन्तर्गत स्थलमण्डल, वायुमण्डल, जलमण्डल तथा ऊर्जा संघटकों को सम्मिलित किया गया है। हमारे चारों ओर का वातावरण वायु, प्रकाश, ताप, जल, मृदा आदि कारकों से निर्मित हैं। ये कारक जीवों की संरचना, जीवन चक्र, शरीर क्रिया विज्ञान तथा जीवों के व्यवहार को प्रभावित करते हैं।
1. मृदा (Soil)
मृदा स्थलमंडलीय उपसंघटक है। यह भूपर्पटी का सबसे ऊपरी स्तर है, जो खनिज एवं आंशिक रूप से अपघटित कार्बनिक पदार्थों से निर्मित होती है। मृदा का निर्माण पृथ्वी की मूल शैलों के अपक्षय, अपरदन एवं पदार्थों के निक्षेपण के द्वारा होता है।
मृदा में ह्यूमस एवं अन्य कार्बनिक पदार्थों तथा सूक्ष्म पदार्थों की मात्रा, मृदा की उर्वरता एवं पादप अनुकूलन हेतु आवश्यक अंतर्क्रियाएँ सम्पन्न करती हैं।
2. वायुमण्डल (Atmosphere)
वायुमण्डल एक बहुस्तरीय गैसीय आवरण है जो पृथ्वी को चारों ओर से घेरे हुए है। इससे जीवमण्डल के सभी जीवधारियों के अस्तित्व के लिए आवश्यक गैसें, ऊष्मा तथा जल आदि प्राप्त होता है। वायुमंडल पृथ्वी से उसके गुरुत्त्राकर्षण बल द्वारा जुड़ा रहता है।
वायुमण्डल के सम्पूर्ण द्रव्यमान का 99% भाग पृथ्वी की सतह से 32 किमी. की ऊँचाई तक ही पाया जाता है तथा वायुमण्डल की इसी परत में अधिकांश मौसमी या जलवायविक परिवर्तन घटित होते हैं।
वायुमण्डल विभिन्न गैसों का मिश्रण है, जिनका संघटन (Composition) वायुमण्डल के निचले स्तरों में अपेक्षाकृत एक समान रहता है। शुद्ध एवं शुष्क वायु में नाइट्रोजन (78%), ऑक्सीजन (21%), ऑर्गन (0.9%), कार्बन डाइऑक्साइड (0.03%) तथा हाइड्रोजन, हीलियम व ओजोन भी अल्प मात्रा में विद्यमान रहती हैं।
उपर्युक्त गैसों के अतिरिक्त कुछ अन्य गैसें भी होती हैं जो पेड़-पौधों के अपघटन से वातावरण में निर्मुक्त होती हैं, जैसे- सल्फर-डाई-ऑक्साइड (SO₂), नाइट्रोजन के ऑक्साइड (NO), अमोनिया, मीथेन आदि।
वायु पौधों के रन्ध्रों (सूक्ष्म छिद्र) को खोले रखने में सहायता करती है, जिससे वे प्रकाश संश्लेषण एवं श्वसन की क्रिया सुचारू रूप से कर पाते हैं। वातावरण में विभिन्न गैसों का चक्रण वायुमण्डल के कारण ही संभव होता है।
इन गैसों के अतिरिक्त विभिन्न जल स्रोतों के वाष्पीकरण एवं पेड़-पौधों के वाष्पोत्सर्जन से वायुमण्डल की निचली परत में जलवाष्प भी पायी जाती है। वायु में धूल, पराग आदि के ठोस कण भी पाए जाते हैं।
वायुमण्डल की संरचना (Structure of Atmosphere)
विभिन्न ऊँचाइयों पर तापमान एवं वायुदाब की विशेषताओं के आधार पर वायुमंडल को निम्नलिखित परतों में विभाजित किया गया है-
क्षोभमंडल (Troposphere)
मध्यमंडल (Mesosphere)
बाह्यमंडल (Exosphere)
समताप मंडल (Stratosphere)
आयनमंडल (Ionosphere)
क्षोभमंडल (Troposhpere): यह वायुमंडल की सबसे निचली परत है, जिसकी ऊँचाई ध्रुवों पर पृथ्वी की सतह से लगभग 8 किमी. तथा विषुवत् रेखा पर 18 किमी. है। क्षोभमंडल में जलवाष्प तथा धूल के कण उपस्थित होते हैं। जलवायु तथा मौसम में परिवर्तन से सम्बंधित समस्त घटनाएँ जैसे आंधी, तूफान, वर्षा, चक्रवात इत्यादि वायुमंडल की इसी परत में घटित होती हैं। इस परत में प्रति 165 मी. की ऊँचाई पर जाने पर तापमान में 1°C की दर से गिरावट होती है।
समतापमंडल (Stratosphere): यह क्षोभमंडल की ऊपरी परत होती है, जिसकी ऊँचाई विषुवत रेखा पर 18 किमी. से 50 किमी. तक होती है। इस परत में ओजोन परत (Ozone Layer) उपस्थित होती है, जो सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों के दुष्प्रभाव से पृथ्वी की सुरक्षा करती है।
- ओजोन परत की अधिकता के कारण इस मंडल में ऊपर की ओर जाने पर तापमान में वृद्धि होती है। इस परत में वायुमण्डलीय या मौसम सम्बंधी घटनाएँ नहीं घटित होती हैं, इसलिए इस परत - में वायुयानों की उड़ान के लिए आदर्श परिस्थितियाँ विद्यमान होती हैं।
मध्यमंडल (Mesosphere): समतापमंडल के ऊपर मध्यमंडल पाया जाता है। जिसकी ऊँचाई 50-80 किमी. तक होती है। मध्यमंडल में ऊँचाई के साथ तापमान में गिरावट आती है।
आयनमंडल (Ionosphere): मध्यमंडल के ऊपर आयनमंडल पाया जाता है। यह वायुमंडल का आयनित भाग है जो पृथ्वी की सतह से लगभग 80-700 किमी. ऊँचाई तक विस्तृत है। आयनमंडल सौर विकिरण द्वारा आयनित होता है। इसका उपयोग
हम रेडियो तथा टेलीविजन के प्रसारण में किया जाता है।
बहिर्मंडल (Exosphere): यह वायुमंडल की सबसे बाह्य परत है, जहाँ वायुमण्डल एवं अन्तरिक्ष परस्पर मिले-जुले प्रतीत होते हैं।
3. आर्द्रता (Humidity)
वायु में उपस्थित जलवाष्प की मात्रा को आर्द्रता अथवा वायुमण्डलीय नमी कहते हैं। आर्द्रता को निरपेक्ष आर्द्रता एवं सापेक्ष आर्द्रता के रूप में परिभाषित किया जाता है। किसी स्थान पर वायु की प्रति इकाई में उपस्थित जलवाष्प की मात्रा निरपेक्ष आर्द्रता (Absolute Humidity) कहलाती है जबकि किसी ताप व दाब पर वायु के आर्द्रता सामर्थ्य (नमी धारण करने की क्षमता) तथा वायु में उपस्थित आर्द्रता के अनुपात को सापेक्षिक आर्द्रता (Relative Humidity) कहते हैं।
सापेक्षिक आर्द्रता का जलवायु पर महत्वपूर्ण प्रभाव होता है क्योंकि वाष्पीकरण की मात्रा, संघनन, वर्षा की संभावना एवं मौसम के शुष्क एवं नम होने में यह महत्वपूर्ण कारक होता है। इसके साथ ही पादप एवं प्राणियों की उपलब्धता एवं वितरण के निर्धारण में भी इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
4. जल (Water)
पृथ्वी पर प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला एकमात्र अकार्बनिक तरल पदार्थ जल है जो कि, जीवों के संसाधन, पारिस्थितिकी या आवास के रूप में प्रयोग किया जाता है। पृथ्वी का लगभग 71% भाग जल से घिरा हुआ है। बिना जल के पारितंत्र की क्रियाशीलता संभव नहीं है।
जल विभिन्न रूपों में पृथ्वी एवं उसके वायुमंडल में उपलब्ध है जो पृथ्वी को एक विशेष ग्रह का दर्जा प्रदान करता है तथा उस पर रहने वाले समस्त सजीव प्राणियों को जीवन जीने का आधार प्रदान करता है। जल, चक्रीय माध्यम से वातावरण में पहुँचता रहता है तथा जलवाष्प के रूप में भी वातावरण में विद्यमान रहता है।
ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड तथा अन्य गैसें जल में आंशिक रूप से घुली रहती हैं। जल के अंदर ऑक्सीजन की आपूर्ति वायु से तथा जलीय पौधों के प्रकाश संश्लेषण द्वारा होती है।
5. ऊर्जा संघटक (Energy Component)
पृथ्वी पर ऊर्जा का प्रधान स्रोत सूर्य है। हरे-पौधे सूर्य के प्रकाश द्वारा प्रकाश संश्लेषण करके ऊर्जा एकत्र करते हैं तथा उसे अन्य जीवों
हेतु सुलभ बनाते हैं। पृथ्वी के तल पर प्राप्त होने वाली सम्पूर्ण सौर ऊर्जा को सूर्यातप या सौर विकिरण (Solar Radiation) कहते हैं। सौर ऊर्जा पृथ्वी के तापमान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह पृथ्वी के सभी जीवों के क्रियाकलापों एवं भौतिक पर्यावरण को प्रभावित करती है। ऊर्जा संघटक के अन्तर्गत प्रकाश तथा तापमान को सम्मिलित किया जाता है।
(i) प्रकाश (Light)
प्रकाश एक महत्वपूर्ण जलवायवीय कारक (Climatic Factor) है तथा समस्त जीवधारियों के लिए सूर्य ही ऊर्जा का मुख्य स्रोत है। पौधे प्रकाश की उपस्थिति में प्रकाश संश्लेषण क्रिया द्वारा अपने भोजन का निर्माण करते हैं तथा जन्तु भोजन के लिए पेड़-पौधों पर निर्भर रहते हैं।
दृश्य स्पेक्ट्रम की तरंगदैर्ध्य 400-700 नैनो मीटर होती है। इसे प्रकाश संश्लेषी सक्रिय विकिरण (Photo Synthesis Active Radiation-PAR) भी कहते हैं। दृश्य प्रकाश में ही प्रकाश संश्लेषण की क्रिया सम्भव हो पाती है।
अधिकांश पराबैगनी किरणें समताप मंडल में उपस्थित ओजोन परत द्वारा अवशोषित कर ली जाती हैं तथा इनका कुछ भाग ही पृथ्वी पर पहुँचता है।
तरंगदैर्ध्य के आधार पर पराबैंगनी तरंगें (Ultraviolet Rays) तीन प्रकार की होती हैं-
(i) UV-A (315-400 nm)
(ii) UV-B (280-315 nm)
(iii) UV-C (100-280 nm)
• इनमें केवल UV-A ही पृथ्वी तक पहुँच पाती हैं जबकि UV-C एवं UV-B की अधिकांश मात्रा वातावरण द्वारा परावर्तित कर दी जाती है। UV-C तथा UV-B विकिरणों का सभी जीवों पर अत्यधिक घातक प्रभाव पड़ता है।
प्रकाश का प्रभाव
पादपों पर प्रकाश का प्रभाव (Effect of Light on Plants)
प्रकाश के गुण, मात्रा तथा अवधि का प्रभाव पौधों पर पड़ता है। नीले रंग के प्रकाश में प्रकाश संश्लेषण क्रिया कम तथा लाल रंग में अधिक होती है।
प्रकाश द्वारा ही पौधों में वाष्पोत्सर्जन, गति, वृद्धि, प्रजनन (पष्पन, बीजन एंव अंकुरण) आदि क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं। पोषण एवं फलन को प्रकाश की अवधि नियंत्रित करती है। पौधों में प्रकाश की दिशा की ओर प्रकाशानुवर्तन गतियाँ होती हैं।
प्रकाश पौधों में वृद्धि कारक हार्मोन्स (ऑक्सिन) के उत्पादन को नियंत्रित करता है, जिसके परिणामस्वरूप पौधों की लम्बाई. आकार एवं आकृति में परिवर्तन होता है।
बीजों के अंकुरण मे लाल प्रकाश सबसे अधिक प्रभावी होता है।
पुष्पन की क्रिया को सम्पन्न करने के लिए आवश्यक प्रकाश की मात्रा को दीप्तिकालिता (Photoperiodism) कहते हैं।
जंतुओं पर प्रकाश का प्रभाव (Effect of Light on Animals)
जंतुओं के उपापचय, गैसीय अनुक्रियाएँ व लवणों की घुलनशीलता पर प्रकाश का सीधा प्रभाव पड़ता है। प्रकाश की तीव्रता बढ़ने पर विभिन्न एंजाइमों की क्रिया तथा लवणों की घुलनशीलता बढ़ जाती है जिससे जंतु अधिक फुर्तीले एवं सक्रिय नजर आते हैं।
प्रकाश जंतुओं के शारीरिक आवरण (त्वचा पर बाल) में प्रवेश कर उनमें उत्तेजना, सक्रियता, आयनीकरण और विभिन्न शारीरिक कोशिकाओं के प्रोटोप्लाज्म की उष्णता का कारण बनता है। पराबैंगनी किरणें विभिन्न जीवों के डी.एन.ए. में उत्परिवर्तन (Mutation) भी कर सकती हैं।
प्रकाश जंतुओं के शरीर व रंग को भी प्रभावित करता है। जल में रहने वाले जीवों की त्वचा तुलनात्मक रूप से रंगहीन एवं आँखें निष्क्रिय हो जाती हैं। भूमण्डल के विभिन्न भागों में प्रकाश की तीव्रता व उपलब्धता के अनुसार ऐसे अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं।
विभिन्न जीवों में परिवर्द्धन का तीव्र एवं धीमा होना तथा उनकी चालन गति (Locomotion) पर प्रकाश का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। उदाहरणः केकडे का लार्वा प्रकाश की तीव्रता बढ़ने पर अधिक गतिशील हो जाता है।
प्रकाश की दीप्तिकालिता (दैनिक अवधि) अनेक पक्षियों एवं स्तनधारियों के प्रजनन, प्रवास तथा उनकी शारीरिक संरचना में ऋतुनिष्ठ परिवर्तन लाती है, जो उनके जीवन चक्र को नई स्फूर्ति देती है।
(ii) तापमान (Temperature)
तापमान ऊर्जा का एक रूप है, जो किसी पदार्थ के गर्म या ठंडा होने का परिमाण होता है। वातावरण में ताप का मुख्य स्रोत सूर्य है जबकि पृथ्वी के भीतर ताप का स्रोत ज्वालामुखीय लावा है।
अक्षांश, स्थलाकृति, ऊँचाई, वनस्पति तथा ढाल आदि भौगोलिक कारक तापमान को प्रभावित करते हैं। पृथ्वी की सतह से ऊर्ध्वाधर तापमान प्रवणता ताप ह्रास दर (Lapse Rate of Temperature) कहलाती है, जो कि औसतन प्रति एक हजार मीटर पर 6.5°C है।
जीवों पर तापमान का प्रभाव (Effect of Temperature on Animals)
न्यूनतम तापमान पर पौधों की उपापचयी क्रियाएँ प्रारम्भ हो जाती हैं, किन्तु उच्चतम् (Optimum) तापमान पर ये क्रियाएँ अपनी अधिकतम् गति के साथ घटित होती हैं जो पौधों के विकास के लिए लाभकारी होती हैं। प्रकाश संश्लेषण हेतु सर्वोत्तम तापमान 30-45°C है क्योंकि तापमान बढ़ने पर श्वसन दर बढ़ती है। परन्तु, एक निश्चित तापमान के पश्चात् यह घटने लगती है।
प्राणियों में प्रजनन (Reproduction), प्रवासन (Migration), भ्रूणीय परिवर्द्धन (Embryonic Development) तथा अन्य क्रियाएँ तापमान व तापमान के अन्य अजैविक कारकों (जैसे- आर्द्रता, वायु, वाष्पीकरण आदि) के साथ होने वाली अंतःक्रिया के कारण प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से प्रभावित होती हैं।
तापमान की सहनशीलता के आधार पर प्राणियों को दो वर्गों में विभाजित किया गया है-
(i) पृथुतापी (Eurythermal) (ii) तनुतापी (Stenothermal) ।
पृथुतापी प्राणी वातावरणीय तापक्रम के वृहद् परास (Range) को सहन कर सकते हैं, जैसे- मनुष्य, ह्वेल आदि। इसके विपरीत, तनुतापी प्राणी तापक्रम के कम परास को सहन करने में सक्षम होते हैं। जैसे- सरीसृप, प्रवाल आदि।
पर्यावरण की विशेषताएं (Characteristics of Environment)
पर्यावरण की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1 . अन्योन्याश्रितताः परस्पर निर्भरता के कारण किसी जीव का अस्तित्व अन्य असंख्य जीवों के अस्तित्व पर निर्भर करता है, जो परस्पर आश्रित एवं अन्तर्सम्बंधित होते हैं। वस्तुतः इस दृष्टि से मानव भी स्वतंत्र नहीं है। यदि पेड़-पौधे, मृदा, सूक्ष्म जीव आदि अपना कार्य बन्द कर दें, तो मानव सहित विभिन्न जीवों का समाप्त होना निश्चित है। जैसे- पादपों द्वारा ऑक्सीजन उत्पन्न करना, सूक्ष्मजीवों द्वारा विभिन्न पोषक तत्वों का अपघटन एवं स्थिरीकरण करना।
इसी प्रकार, उपभोक्ताओं (प्रथम, द्वितीय व तृतीय श्रेणी के) का न होना भी उत्पादकों के अस्तित्व को अस्थायी कर देगा। परिणामस्वरूप, जैवविविधता में ह्रास होगा तथा पोषक तत्वों के असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी।
खाद्य श्रृंखला, खाद्य जाल एवं विभिन्न पोषक चक्र एवं पारितंत्रों की उपस्थिति पर्यावरण के अन्योन्याश्रितता सिद्धांत के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं और इस प्रकार मानव एवं पर्यावरण भी परस्पर अन्योन्याश्रित (Interdependent) हैं।
2. सीमित क्षमताः पौधे निश्चित मात्रा में सूर्य किरणें ग्रहण करते हैं और एक निश्चित सीमा तक ही ऑक्सीजन उत्पन्न कर सकते हैं।
3. जटिल सम्बन्धः पर्यावरण में जीवों एवं तत्वों की अन्योन्याश्रितता एवं उनकी सीमित क्षमता ने सम्बन्धों को जटिल बना दिया है जहाँ
कोई भी तत्व स्वतंत्र नहीं है। पर्यावरण में दृश्यमान वस्तुएँ वैसी नहीं हैं, जैसी दिखाई देती हैं। उनकी संरचना, अन्तर्क्रियाएँ एवं उनका अन्य से सम्बन्ध उन्हें और अधिक जटिल बना देता है।
भौतिक तथा जैविक पर्यावरण एवं उनके घटक विभिन्न जीवों को आधार एवं आश्रय प्रदान करते हैं और उनके विकास एवं संवर्द्धन हेतु आवश्यक दशाएँ उपलब्ध कराते हैं तथा उन्हें प्रभावित भी करते हैं।
भौतिक पर्यावरण की यांत्रिक एवं रासायनिक समष्टि तथा उनकी अन्तर्क्रियाओं में निरन्तर हो रहे परिवर्तनों से ही जैविक पर्यावरण की उत्पत्ति मानी जाती है, जहाँ पोषक तत्वों की बहुलता एवं उपयुक्त दशाओं ने पर्यावरण को विविधतापूर्ण एवं परिवर्तनशील बनाया है।
समय के साथ भौतिक एवं जैविक पर्यावरण में होने वाले परिवर्तनों (जैसे- स्थलाकृति, ज्वालामुखी, ऋतुएँ, जलवायु एवं जीवों हेतु प्रतिकूल एवं अनुकूल दशाएँ) के आधार पर मनुष्य ने समाज एवं संस्कृति की एक संरचना विकसित की, जिसमें वह एक सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण का निर्माण करता है।
सांस्कृतिक पर्यावरण (Cultural Environment)
सांस्कृतिक पर्यावरण का सम्बंध मुख्य रूप से मनुष्य जाति से है क्योंकि मनुष्य श्रेष्ठ प्राणी होने के कारण अपने समूहों, समुदायों, रूढ़ियों, परम्पराओं, आदर्शों तथा सामाजिक विरासत को लेकर सांस्कृतिक पर्यावरण का निर्माण करता है।
सांस्कृतिक पर्यावरण के विविध वर्ग हैं, जो निम्नलिखित हैं-
1. सामाजिक पर्यावरण : सामाजिक विरासत, धर्म, प्रथा,
संस्कार, कला एवं साहित्य आदि मिलकर सामाजिक पर्यावरण का निर्माण करते हैं।
2. आर्थिक पर्यावरण : मनुष्य स्वविवेक और प्रौद्योगिकी के द्वारा,
भौतिक/प्राकृतिक पर्यावरण से भौमिक पदार्थों को प्राप्त करता है तथा उनका उपयोग करने के लिए संवर्द्धन करता है। इस प्रकार वह एक आर्थिक पर्यावरण का सृजन करता है।
3. प्रौद्योगिकी पर्यावरण : प्राकृतिक पर्यावरण का वह भाग जिस पर
मानव ने विज्ञान की सहायता से नियंत्रण स्थापित कर लिया है, प्रौद्योगिकी पर्यावरण (Technology Environment) कहलाता है। इसमें मनुष्य प्रविधि (Technology) एवं यंत्रों की सहायता से नियंत्रण व संशोधन करता है।
4. राजनीतिक पर्यावरण : भौमिक पर्यावरण पर नियंत्रण स्थापित करने के साथ-साथ मानव पर नियंत्रण स्थापित कर पाने तथा उन पर अपना आधिपत्य स्थापित करने की मानव की प्रबल इच्छाओं ने राजनीतिक पर्यावरण को जन्म दिया है।
5.मनोवैज्ञानिक पर्यावरण : मानव की मानसिक परिस्थितियाँ जैसे- बुद्धि, रुचि, प्रेरणाएँ, चिन्तन, विचार आदि और व्यवहारात्मक आदतें उसके मनोवैज्ञानिक पर्यावरण को निर्मित करती हैं। दो व्यक्ति एक साथ खड़े होकर अलग-अलग मनोवैज्ञानिक पर्यावरण में खड़े हो सकते हैं।
पर्यावरणीय अध्ययन की आवश्यकता
(Need of Environmental Studies)
जीवों एवं पर्यावरण में अन्योन्याश्रित सम्बन्ध पाया जाता है। इस सम्बंध में दो दृष्टिकोण हैं- एक जीव (मनुष्य) एवं पर्यावरण दोनों को प्रकृति की अभिन्न इकाई मानता है जबकि दूसरा, आधुनिक परिप्रेक्ष्य में मनुष्य को पर्यावरण से पृथक् मानता है, जो तकनीकी एवं विज्ञान के व्यापक प्रयोग से अपनी प्राकृतिक दशाओं में अत्यधिक बदलाव लाने में समर्थ है।
संसाधन न्यूनीकरण : इसके अन्तर्गत मनुष्य द्वारा अपने आर्थिक
लाभ एवं आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्राकृतिक संसाधनों का तीव्रता से किये जा रहे दोहन को शामिल किया जाता है क्योंकि संसाधनों का प्राकृतिक रूप से पुनर्भरण उस गति से नहीं हो पा रहा है, जिससे संसाधनों की निरन्तर कमी होती जा रही है।
संसाधन क्षरण के लिए जनसख्या का दबाव, तीव्र वृद्धि दर और लोगों का उपभोग प्रतिरूप अत्यधिक उत्तरदायी है क्योंकि इनकी भोजन, पानी, आवास व अन्य आवश्यकताओं में निरंतर वृद्धि हो रही है। साथ ही तेजी से बढ़ती तकनीकी एवं वैज्ञानिक ज्ञान के कारण मनुष्य का प्रकृति में हस्तक्षेप भी बढ़ रहा है और संसाधन अवनयन के साथ प्रदूषण में भी वृद्धि हो रही है।
चूँकि विश्व के विभिन्न देश विकास की विभिन्न अवस्थाओं से गुजर रहे हैं। प्रत्येक देश शीघ्रातिशीघ्र विकसित होने का आकांक्षी है जिससे विकास के साथ ही पर्यावरण सम्बन्धी समस्याएँ भी बढ़ रही हैं। विश्व की आबादी के एक बड़े भाग को आज भी स्वच्छ जल व पर्याप्त भोजन की उपलब्धता नहीं है।
सर्वप्रथम सन् 1972 में स्टॉकहोम में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा आयोजित सम्मेलन में पर्यावरण अध्ययन पर बल दिया गया तथा 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाने का लक्ष्य रखा गया, जो वर्ष 1974 से प्रतिवर्ष मनाया जा रहा है।
यूनेस्को (UNESCO) के अनुसार, जनसाधारण में पर्यावरण सम्बन्धी जागरूकता, ज्ञान, दृष्टिकोण एवं क्षमता विकसित की जानी चाहिए तथा उनकी पर्यावरण सम्बन्धी समस्याओं को सुलझाने में भागीदारी होनी चाहिए।
पर्यावरण का सम्पूर्णता से अध्ययन उसके प्राकृतिक, कृत्रिम, तकनीकी, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, नैतिक एवं सौन्दर्यात्मक आदि पहलुओं पर विचार करके किया जाना चाहिए जिससे पर्यावरण को बचाया जा सके।
पर्यावरणीय अध्ययन के उद्देश्य
(Objective of Environmental Studies)
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) तथा यूनेस्को ने संयुक्त रूप से सर्वप्रथम वर्ष 1975 में एक अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण अध्ययन कार्यक्रम प्रारम्भ किया, जिसके उद्देश्य वर्ष 1975 के बेलग्रेड चार्टर के रूप में सामने आये, जो निम्नवत है-
बेलग्रेड चार्टर
1. पर्यावरण की दशा का मूल्यांकन करना।
2. पर्यावरण के लिए लक्ष्य का निर्धारण करना।
3. पर्यावरणीय शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम निर्धारित करना।
4. पर्यावरणीय अध्ययन को उद्देश्यपरक बनाना।
कालान्तर में पर्यावरणीय अध्ययन के कुछ अन्य सर्वमान्य उद्देश्यों का विकास हुआ, जो निम्नवत् हैं-
1. पर्यावरण समस्या समाधान व मूल्य निर्धारण करना।
2. पर्यावरण से अन्य विषयों को जोड़ना।
3. पर्यावरण संरक्षण एवं पर्यावरण सुधार हेतु जन जागरूकता एवं जन सहभागिता बढ़ाना।
4. पर्यावरण अनुकूल तकनीक के विकास को प्रोत्साहित करना।
5. पर्यावरणीय क्षति को रोकने के प्रति एक दृष्टिकोण पैदा करना।
6. प्रकृति के साथ सद्भाव (Harmony) प्राप्त करने का प्रयास करना।
7. पर्यावरणीय शिक्षा का संस्थानीकरण एवं पर्यावरण प्रबंधन हेतु प्रयास करना।
8. पर्यावरणीय मुद्दों पर अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग का प्रयत्न करना।
पर्यावरणीय अध्ययन का महत्व
(Importance of Environmental Studies)
पर्यावरणीय अध्ययन के अन्तर्गत पर्यावरण सम्बन्धी समस्याओं व परिवर्तनों पर ध्यान दिया जाता है तथा समाज में जन जागरूकता के माध्यम से उसके प्रभाव को कम करने का प्रयास किया जाता है।
पर्यावरण विज्ञान (Environment Science) के अन्तर्गत पर्यावरण के भौतिक व जैविक कारकों को हो रही क्षति को रोकने तथा सुरक्षित व स्वस्थ वातावरण बनाए रखने के वैज्ञानिक पद्धतियों का अध्ययन किया जाता है।
पर्यावरण अभियांत्रिकी (Environmental Engineering) में प्रदूषण का मापन एवं उसको न्यूनतम् रखने की तकनीकों का अध्ययन किया जाता है।
पर्यावरण को समझने हेतु कृषि, खनन, अभियांत्रिकी, वानिकी, विधि, समाजशास्त्र, सूक्ष्मजीव विज्ञान तथा अर्थशास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता होती है। इसी तरह प्रत्येक विषय के विशेषज्ञ को भी पर्यावरण की जानकारी होनी चाहिए जिससे पर्यावरण संरक्षण के प्रत्येक पहलू पर विचार हो सके।
व्यावहारिक रूप में पर्यावरणीय अध्ययन के अन्य महत्त्व
1. जैवविविधता के संरक्षण हेतु आधुनिक पर्यावरणीय अवधारणाओं को स्पष्ट करने हेतु।
2. जीवन को अधिक संधारणीय बनाने हेतु।
3. प्राकृतिक संसाधनों का अधिक कुशलतापूर्वक उपयोग करने हेतु।.
4. विभिन्न प्राकृतिक दशाओं में जीवों के व्यवहार के अध्ययन हेतु।
5. आबादी एवं समुदायों में जीवों के मध्य अन्तर्सम्बन्धों के
अध्ययन हेतु।
6. स्थानीय, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरणीय मुद्दों और समस्याओं के विषय में लोगों को जागरूक व शिक्षित करने हेतु।
7. सतत् विकास के बोध हेतु।
संदर्भ
भारत में पारिस्थितिकीय संकट एवं पर्यावरणीय ह्रास के मुद्दे पर पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन राज्य मंत्री श्री कीर्ति वर्धन सिंह ने राज्य सभा में भारत सरकार के द्वारा पर्यावरण संरक्षण के लिए किये गए प्रयासों का ब्यौरा प्रस्तुत किया।
भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण (BSI) के अनुसार वर्तमान में भारत में पाई जाने वाली 2970 पौधों की प्रजातियों को अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) की रेड लिस्ट में शामिल किया गया है।
इनमें से गंभीर रूप से संकटग्रस्त (155), लुप्तप्राय (274), कमजोर (213) और निकट संकटग्रस्त (80) हैं, जिनके लिए BSI और अन्य संबंधित संस्थानों द्वारा संरक्षण उपाय किए जा रहे हैं।
2043 से अधिक प्रजातियों को 'सबसे कम चिंताजनक' के रूप में वर्गीकृत किया गया है और उन्हें तत्काल संरक्षण उपायों की आवश्यकता नहीं है।
भारतीय प्राणी सर्वेक्षण (ZSI) के अनुसार वर्तमान में भारत से 7076 जीव-जंतु प्रजातियों को IUCN रेड लिस्ट की विभिन्न श्रेणियों में शामिल है, जिन्हें संरक्षण की आवश्यकता है।
IUCN रेड लिस्ट में से 3739 प्रजातियाँ वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की विभिन्न अनुसूचियों के अंतर्गत संरक्षित हैं तथा अन्य प्रजातियाँ देश के संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क के अंतर्गत संरक्षित हैं।
एक्स-सीटू संरक्षण के माध्यम से BSI देश के विभिन्न फाइटो-भौगोलिक क्षेत्रों में स्थित अपने 16 वनस्पति उद्यानों में IUCN रेड लिस्ट में सूचीबद्ध प्रजातियों सहित अन्य पौधों का संरक्षण करता है।
समुद्री प्रजातियों के संरक्षण के लिए वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के अंतर्गत देश के तटीय राज्यों और द्वीपों में संरक्षित क्षेत्रों का एक नेटवर्क बनाया गया है।
समुद्री प्रजातियों के संरक्षण के लिए 106 तटीय और समुद्री स्थलों की पहचान की गई है और उन्हें महत्वपूर्ण तटीय और समुद्री जैव विविधता क्षेत्रों (ICMBA) के रूप में चिह्नित किया गया है।
कई संकटग्रस्त समुद्री प्रजातियों को शिकार से सुरक्षा प्रदान करते हुए वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम 1972 की अनुसूची I और II में शामिल किया गया है।
भारत में समुद्री कछुओं और उनके आवासों के संरक्षण के उद्देश्य से राष्ट्रीय समुद्री कछुआ कार्य योजना जारी है।
वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 में संशोधन कर अधिनियम के प्रावधानों के उल्लंघन के मामले में भारतीय तट रक्षकों को प्रवेश, तलाशी, गिरफ्तारी और हिरासत में लेने का अधिकार दिया गया है।
समुद्री मेगाफौना के प्रबंधन के लिए वर्ष 2021 में 'समुद्री मेगाफौना स्ट्रैंडिंग प्रबंधन दिशानिर्देश' जारी किए गए हैं।
पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के अंतर्गत प्रख्यापित तटीय विनियमन क्षेत्र (CRZ) अधिसूचना, 2019 में पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों (ESA) पर विशेष ध्यान दिया गया है।
जैसे कि मैंग्रोव, समुद्री घास, रेत के टीले, प्रवाल भित्तियाँ, जैविक रूप से सक्रिय मिट्टी के मैदान, कछुओं के घोंसले के मैदान और केंकड़े के आवास।
आर्द्रभूमियों के मूल्यों और उपयोग के बारे में समाज के सभी वर्गों के बीच जागरूकता प्रसार के लिए प्रत्येक वर्ष 2 फरवरी को राष्ट्रीय स्तर पर विश्व आर्द्रभूमि दिवस मनाया जाता है।
जून, 2024 तक देश में 82 आर्द्रभूमियाँ हैं जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय महत्व के रामसर स्थल के रूप में नामित किया गया है।
सरकार ने आर्द्रभूमि के संरक्षण के लिए 80 रामसर स्थल, 16 राज्यों में 45 जैव विविधता विरासत स्थल, भारत की मुख्य भूमि, अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह और लक्षद्वीप में 7517 किलोमीटर के तटीय विनियमन क्षेत्र की घोषणा की है।
वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के अंतर्गत कई मीठे पानी की आर्द्रभूमियों को संरक्षित क्षेत्रों के रूप में अधिसूचित किया गया है।
आर्द्रभूमियों के संरक्षण एवं प्रबंधन के लिए आर्द्रभूमि (संरक्षण और प्रबंधन) नियम 2017 को अधिसूचित किया गया है, एवं इसके कार्यान्वयन के लिए व्यापक दिशा-निर्देश प्रकाशित किए गए हैं।
समुद्री राज्यों में मैंग्रोव के लिए आवास पुनर्स्थापन और संवेदनशील वन पारिस्थितिकी तंत्र में वनीकरण जैसे उपाय किए गए हैं।
आर्द्रभूमियों के संरक्षण और प्रबंधन के लिए, राष्ट्रीय जलीय पारिस्थितिकी तंत्र संरक्षण योजना (NPCA) नामक केन्द्र प्रायोजित योजना का क्रियान्वयन किया जा रहा है।
आर्द्रभूमि पर ज्ञान साझा करने और सूचना प्रसार को सुविधाजनक बनाने के लिए "भारतीय आर्द्रभूमि पोर्टल" (indianwetlands.in) लॉन्च किया गया है।