ECONOMIC CONTENTS
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1. भारतीय मुद्रा का इतिहास:
प्राचीन भारत: प्राचीन भारत में विभिन्न प्रकार की मुद्राएं प्रचलित थीं, जैसे कि सोने, चांदी और तांबे के सिक्के।
मुगल काल: मुगल काल में रुपया नामक मुद्रा का प्रचलन शुरू हुआ।
ब्रिटिश शासन: ब्रिटिश शासन के दौरान, रुपया भारतीय मुद्रा के रूप में बना रहा, लेकिन ब्रिटिश पाउंड से जुड़ा हुआ था।
स्वतंत्रता के बाद: 1947 में भारत स्वतंत्र होने के बाद, भारतीय रुपया भारत की आधिकारिक मुद्रा बन गया।
2. भारतीय मुद्रा की वर्तमान स्थिति:
मुद्रा का नाम: भारतीय रुपया (₹)
प्रतीक: ₹ (2010 में अपनाया गया)
मुद्रा का विभाजन: 1 रुपया = 100 पैसे
नोट जारी करने वाला: भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई)
सिक्के जारी करने वाला: भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई)
मुद्रा का प्रबंधन: भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई)
3. भारतीय रुपये के नोट:
मूल्यवर्ग: ₹ 10, ₹ 20, ₹ 50, ₹ 100, ₹ 200, ₹ 500,
नोटों पर चित्र: महात्मा गांधी, भारतीय स्मारक, प्राकृतिक दृश्य
सुरक्षा सुविधाएँ: वाटरमार्क, सिक्योरिटी थ्रेड, माइक्रोलेटर्स, फ्लोरोसेंट इंक, इंक विंडो
4. भारतीय रुपये के सिक्के:
मूल्यवर्ग: ₹ 1, ₹ 2, ₹ 5, ₹ 10, ₹ 20, ₹ 50
सिक्कों पर चित्र: महात्मा गांधी, भारतीय स्मारक, प्राकृतिक दृश्य
धातु: एल्यूमीनियम, निकल-स्टील, तांबा-निकल, ब्रॉन्ज
5. भारतीय मुद्रा की प्रमुख विशेषताएँ:
कानूनी निविदा: भारतीय रुपया भारत में कानूनी निविदा है, अर्थात इसे किसी भी वस्तु या सेवा के भुगतान के लिए स्वीकार किया जाना चाहिए।
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार: भारतीय रुपया अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में भी प्रयोग होता है, लेकिन अमेरिकी डॉलर की तुलना में इसकी वैल्यू कम होती है।
मुद्रा की स्थिरता: भारतीय रुपये की स्थिरता भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति पर निर्भर करती है।
मुद्रा का मूल्य: भारतीय रुपये का मूल्य अन्य मुद्राओं के सापेक्ष बदलता रहता है।
6. भारतीय मुद्रा के भविष्य की संभावनाएं:
डिजिटल मुद्रा: भारतीय रिजर्व बैंक डिजिटल मुद्रा शुरू करने पर विचार कर रहा है।
वैश्विक मुद्रा: भारतीय रुपये को वैश्विक मुद्रा के रूप में स्वीकार करवाने के प्रयास चल रहे हैं।
7. भारतीय मुद्रा के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें:
भारतीय मुद्रा का इतिहास बहुत लंबा है और यह भारत के आर्थिक विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
भारतीय रुपया आज दुनिया की प्रमुख मुद्राओं में से एक है।
भारतीय मुद्रा की स्थिरता और वैश्विक प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए सरकार लगातार प्रयास कर रही है।
ख़बरों में क्यों?
RBI गवर्नर शक्तिकांत दास ने हाल ही में यूनिफाइड लेंडिंग इंटरफ़ेस (ULI) की घोषणा की, जिसका उद्देश्य यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफ़ेस (UPI) की सफलता पर निर्माण करना और ऋण प्रक्रिया को सरल बनाना है।
यूनिफाइड लेंडिंग इंटरफ़ेस (ULI) के बारे में:
स्रोत: भारतीय रिजर्व बैंक (RBI)
प्लेटफ़ॉर्म: RBI इनोवेशन हब (RBIH) द्वारा विकसित एक प्लेटफ़ॉर्म।
कार्य: मानकीकृत एप्लीकेशन प्रोग्रामिंग इंटरफ़ेस (APIs) का उपयोग करके तकनीकी एकीकरण को सरल बनाना, जिससे विभिन्न सूचना स्रोतों तक डिजिटल पहुँच के लिए ‘प्लग एंड प्ले’ दृष्टिकोण संभव होता है।
‘नई त्रिमूर्ति’: JAM (जन धन-आधार-मोबाइल), UPI, और ULI को एक ‘नई त्रिमूर्ति’ के रूप में वर्णित किया गया है जो भारत के डिजिटल बुनियादी ढांचे को आगे बढ़ाएगी।
ULI के लाभ:
दक्षता: देश भर में, खासकर छोटे और ग्रामीण उधारकर्ताओं के लिए, ऋण वितरण को कुशल और कम खर्चीला बनाना।
माँग को पूरा करना: कृषि और सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (MSMEs) जैसे क्षेत्रों में ऋण की महत्वपूर्ण अपूर्ण मांग को पूरा करना।
सूचना प्रवाह: विभिन्न राज्यों से भूमि रिकॉर्ड सहित डिजिटल जानकारी का सहमति-आधारित प्रवाह, कई डेटा सेवा प्रदाताओं से ऋणदाताओं तक।
डिजिटल लेंडिंग में मौजूदा चुनौतियाँ और ULI द्वारा प्रदान किया गया लाभ:
डेटा एकत्रीकरण: ऋण मूल्यांकन के लिए आवश्यक डेटा वर्तमान में विभिन्न संस्थाओं जैसे सरकारों, बैंकों, खाता एकत्रीकरणकर्ताओं और क्रेडिट सूचना कंपनियों में बिखरा हुआ है।
ULI का समाधान: ULI की वास्तुकला मानकीकृत APIs प्रदान करती है जो एक ‘प्लग एंड प्ले’ समाधान प्रदान करती हैं, जिससे विभिन्न स्रोतों से डिजिटल रूप से जानकारी तक पहुँचना आसान हो जाता है और कई तकनीकी एकीकरण की जटिलता कम हो जाती है।
ULI UPI से कैसे अलग है?
फोकस: ULI ऋण और क्रेडिट सूचना साझाकरण पर केंद्रित है, जबकि UPI डिजिटल भुगतान पर केंद्रित है।
उपयोगकर्ता: ULI मुख्य रूप से वित्तीय संस्थानों और ऋण संस्थाओं के लिए है; UPI आम जनता और व्यवसायों के लिए पैसे के हस्तांतरण और भुगतान के लिए है।
एकीकरण: ULI क्रेडिट मूल्यांकन के लिए कई डेटा स्रोतों को एकीकृत करता है; UPI निर्बाध भुगतान के लिए कई बैंक खातों को एकीकृत करता है।
The literal meaning of economics is the science of money. Under economics, a comprehensive study and analysis of money and all its related aspects is done.
The five major pillars of economics
1. production
2. Consumption
3. Delivery
4. exchange
5. Public Finance
In modern economics, along with the study of the above mentioned traditional areas, many new concepts are also studied such as Revenue, Public Welfare, International Trade, Foreign Exchange, Banking. Banking) etc.
Opinions of scholars regarding the definition of economics
Alfred Marshall - Economics is the study of human behavior.
Adam Smith - Economics is the science of money.
Robbins - Economics is a science that studies the relationship between human behavior and his needs, desires, and alternative uses of available resources.
On the basis of definitions of various scholars, it would be appropriate to say that economics is a science, whose axis revolves around wealth and through which economic development, public welfare and daily needs are fulfilled.
Definitions of economics at the international level
1. Economics is the study of the concept which states that. How society produces valuable products with the help of scarce resources.
2. How do individuals, firms, government and other institutions choose their options in society? And how does this selection affect society's use of resources? Its study is called economics.
Adam Smith (1723-1790) is called the Father of Economics. Classical Economics is considered to have originated from his book (An Inquiry into the Nature and Causes of the Wealth of Nations) (year 1776).
Economics
Pro. According to Samuelson, economics is the oldest in the arts group and the newest in the science group and is the queen of all social sciences.
In simple language, all human activities related to money/money are the subject matter of study of economics. These human activities can be performed by a single person or a group of people. For example, an individual's purchase of a product is an individual-level economic activity. Similarly, any activity done by a family, government or private company will be called collective economic activity.
Major books related to economy
1. Principal off Economics (1890) alfred marshall
2. Nature and significance of Economic Sciences (1932) Robbins
3. The Theory of Income, Employment and Interest J.M. Keynes
Importance of economics
अनुच्छेद-116 के अन्तर्गत लेखानुदान, प्रत्ययानुदान तथा अपवादानुदान के द्वारा संचित निधि से धन निकालने का प्रावधान किया गया है।
लेखानुदान (Votes on Account)
यह एक अग्रिम व्यवस्था है। संचित निधि से धन निकालने के लिए विनियोग विधेयक का पारित होना आवश्यक है (अनुच्छेद-114)।
परन्तु, यदि किसी कारणवश किसी वित्तीय वर्ष के कुछ भाग के लिए अनुमानित व्यय हेतु विनियोग विधेयक पारित करना सम्भव न हो तो लोकसभा ऐसे वित्तीय वर्ष के किसी भाग के लिए भारत की संचित निधि से अग्रिम अनुदान दे सकती है।
अतः लेखानुदान संघ सरकार को एक निश्चित अवधि के लिए भारत की संचित निधि से धन निकालने की अनुमति प्रदान करता है। इसे अग्रिम अनुदान भी कहा जाता है।
प्रत्ययानुदान (Votes of Credit)
जब किसी सेवा के अति विशाल होने या उसके अनिश्चित स्वरूप के कारण उसकी माँग के विवरण को वार्षिक बजट के साथ देना सम्भव नहीं हो, तो ऐसी माँग के लिए लोकसभा संचित निधि से धन प्रदान कर सकती है। इसे प्रत्ययानुदान (Votes of Credit) कहा जाता है।
अपवादानुदान (Exceptional Grants)
लोकसभा किसी विशिष्ट प्रयोजन हेतु कोई ऐसा अनुदान पारित कर सकती है, जो किसी वित्तीय वर्ष की चालू सेवा का भाग नहीं हैं अर्थात् जो बजट में शामिल नहीं है। इसे अपवादानुदान कहा जाता है।
सार्वजनिक आय तथा सार्वजनिक व्यय- बजट का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष है। सरकार को एक वित्तीय वर्ष में प्राप्त होने वाली अनुमानित आय को, सार्वजनिक आय कहते हैं और उसी 5 वित्तीय वर्ष में होने वाले अनुमानित व्यय को सार्वजनिक व्यय कहते हैं।
बजट में सार्वजनिक आय को दो भागों में बाँटा जा सकता है-
1. राजस्व प्राप्तियाँ,
2. पूँजीगत प्राप्तियाँ,
राजस्व प्राप्तियों तथा पूँजीगत प्राप्तियों में अन्तर
(Difference between Revenue Receipts and Capital Receipts)
राजस्व प्राप्तियाँ (Revenue Receipts)
1. वे प्राप्तियाँ सरकार की देयता की स्थिति को प्रभावित नहीं करती हैं।
2. राजस्व प्राप्तियाँ भावी पीढ़ी के लिए कोई कर भार उत्पन्न नहीं करती हैं।
3. राजस्व प्राप्तियों का उच्च स्तर (जैसे-कर प्राप्तियाँ) अर्थव्यवस्था की बेहतर वित्तीय स्थिति को प्रकट करता है।
पूँजीगत प्राप्तियाँ (Capital Receipts)
1.ये प्राप्तियाँ सरकार की देयता की स्थिति को प्रभावित करती हैं। इससे परिसंपत्तियाँ कम होती हैं अथवा देनदारियाँ बढ़ती हैं।
2. पूँजीगत प्राप्तियाँ भावी पीढ़ी के लिए कर दायित्व उत्पन्न कर सकती हैं। उदाहरणः उधार लिया गया ऋण अपनी अदायगी के लिए भावी पीढ़ी के लिए दायित्व होता है।
3. पूँजीगत प्राप्तियों का उच्च स्तर (जैसे- उधार तथा विनिवेश) अर्थव्यवस्था की कमजोर वित्तीय स्थिति को प्रकट करता है।
राजस्व प्राप्तियाँ (Revenue Receipts)
(A) राजस्व प्राप्तियाँ- इसके अन्तर्गत उस आय को रखा जाता हैं, जिसका सम्बंध उसी वित्तीय वर्ष से होता है। इसे चालू खाता के नाम से भी जाना जाता है। इस खाते में आय के उन स्रोतों को शामिल किया जाता है जिनके बदले में कोई भुगतान नहीं करना होता है।
राजस्व आय के प्रमुख स्त्रोत निम्नलिखित हैं-
1. कर आय
2. गैर-कर आय
3. सार्वजनिक उपक्रमों के द्वारा अर्जित लाभ
4. सरकार द्वारा दिए गए ऋण से प्राप्त ब्याज
राजस्व प्राप्तियों से सरकार की देयताओं (Liabilities) में किसी भी प्रकार से वृद्धि नहीं होती है।
(i) कर आय
कर लोगों द्वारा सरकार को किया जाने वाला एक अनिवार्य भुगतान है, जिसके माध्यम से सरकार को सार्वजनिक व्यय हेतु धन की प्राप्ति होती है।
करों द्वारा प्राप्त होने वाली आय को करों के आधार पर दो भागों में विभाजित किया जाता है- प्रत्यक्ष करों से प्राप्त आय तथा अप्रत्यक्ष करों से प्राप्त आय।
प्रत्यक्ष कर (Direct Tax)
केन्द्र सरकार के प्रत्यक्ष कर
1. आय कर
2. निगम कर (Corporate Tax)
3. सम्पत्ति कर
4. सम्पदा शुल्क (Estate Duty)
5. उपहार कर
6. व्यय-कर (Expenditure Tax)
7. ब्याज कर
राज्य सरकार के प्रत्यक्ष कर
1. होटल प्राप्तियों पर कर
2. भू-राजस्व
3. कृषि आय पर कर
4. व्यवसाय कर
5. गैर-शहरी अचल सम्पत्तियों पर कर
6. रोजगारों पर कर
अप्रत्यक्ष कर (Indirect Tax)
केन्द्र सरकार के अप्रत्यक्ष कर
1. सीमा शुल्क
2. केन्द्रीय उत्पाद शुल्क
3. जी.एस.टी.
4. केन्द्रीय बिक्री कर
5. केन्द्रीय व्यापार कर
राज्य सरकार के अप्रत्यक्ष कर
1. जी. एस. टी.
2. स्टाम्प एवं पंजीयन शुल्क
3. राज्य उत्पाद शुल्क
4. डीजल/पेट्रोल पर बिक्री कर
5. वाहनों पर कर
6. परिवहन कर
7. प्रवेश कर (चुंगीकर)
8. विज्ञापन कर
9. विद्युत पर कर व शुल्क
10. शिक्षा उपकर
11. सट्टेबाजी पर कर
(ii) लाभ एवं लाभांश
भारत सरकार स्वयं अनेक प्रकार की औद्योगिक कम्पनियों तथा वित्तीय संस्थाओं का संचालन करती है, जैसे-तेल तथा प्राकृतिक
गैस निगम (ONGC), भारतीय इस्पात प्राधिकरण लिमिटेड (SAIL), राज्य व्यापार निगम (STC), खनिज तथा धातु व्यापार निगम (MMTC), राष्ट्रीय बैंक, जीवन बीमा निगम आदि। सरकार को इन कम्पनियों एवं संस्थाओं से प्रतिवर्ष लाभ तथा लाभांश प्राप्त होता है।
(iii) ब्याज आय
केन्द्र सरकार के द्वारा राज्य सरकारों, अन्य संस्थाओं तथा विदेशी सरकारों को ऋण दिया जाता है, जिस पर केन्द्र सरकार को वार्षिक ब्याज के रूप में आय प्राप्त होती है।
(iv) करेत्तर या गैर-कर आय
सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली विभिन्न सेवाओं, जैसेः डाकघर सेवाएँ, रेडियो तथा टीवी के विज्ञापन आदि से प्राप्त होने वाला शुल्क करेत्तर आय के अंतर्गत रखा जाता है।
पूँजीगत प्राप्तियाँ (Capital Receipts)
सरकार की ऐसी प्राप्तियाँ जो या तो परिसम्पत्तियों के विक्रय से प्राप्त हों अथवा जिनके कारण सरकार की देयता (Liability) में वृद्धि हो, पूँजीगत प्राप्तियाँ कहलाती हैं।
इसके अन्तर्गत आय के उन समस्त स्रोतों को रखा जाता है, जिनके बदले में सरकार को कुछ भुगतान करना आवश्यक होता है परन्तु, ये भुगतान उसी वित्तीय वर्ष में न होकर आगामी वित्तीय वर्षों में किए जाते हैं।
इसे पूँजी खाता के नाम से जानते हैं, इस प्रकार राजस्व प्राप्तियों की प्रकृति जहाँ अल्पकालिक होती है वहीं पूँजीगत प्राप्तियों की प्रकृति दीर्घकालिक होती है। पूँजी खाते का प्रमुख स्रोत है- निवल घरेलू ऋण, निवल विदेशी ऋण वापसी तथा लोक लेखा प्राप्तियाँ।
केन्द्र सरकार की पूँजीगत प्राप्तियाँ
बाजारी ऋण (निवल प्राप्तियाँ)
अल्प बचतें (निवल)
लोक भविष्य निधियाँ (निवल)
गैर-सरकारी भविष्य निधियों के विशेष निक्षेप
विशेष प्रतिभूतियाँ
विविध पूँजीगत प्राप्तियाँ (निक्षेपों एवं अग्रिमों की प्राप्तियाँ)
अन्तरण प्रारक्षित कोष
नकदी अधिशेष खाते प्रतिभूतियों की बिक्री
आकस्मिकता निधि से प्राप्तियाँ
राज्य सरकारों की पूँजीगत प्राप्तियाँ
1. बाजारी ऋण (निवल)
2. केन्द्र से प्राप्त ऋण
3. अन्य ऋण (निवल)
→ राष्ट्रीय कृषि साख निधि (भारतीय रिजर्व बैंक)
→ राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम
→ केन्द्रीय भण्डारागार निगम
→ जीवन बीमा निगम
→ अन्य ऋण देयतायें
4. राज्य भविष्य निधियाँ (निवल)
5. विविध पूँजीगत प्राप्तियाँ
→ अन्तर्राज्यीय निपटान प्राप्तियाँ
→ आरक्षित निधियाँ
→ निक्षेप एवं अग्रिम
→ अन्तरण
→ सस्पेंस एवं विविध खाते
(1) निवल घरेलू ऋण
निवल घरेलू ऋण से आशय उन सरकारी प्रपत्रों (बॉण्ड एवं प्रतिभूतियों) द्वारा अर्जित आय से है, जिनका प्रयोग भारत सरकार धन उगाहने के लिए करती है। ये प्रतिभूतियाँ प्रायः बैंक तथा ट्रस्टों द्वारा क्रय की जाती हैं। इनकी भिन्न-भिन्न परिपक्वता अवधियों (Maturity Periods) पर भिन्न-भिन्न ब्याज दरें देय होती हैं, जिनके भुगतान हेतु भारत सरकार वचनबद्ध होती है। अतः सरकार को विगत वर्षों में प्राप्त नये ऋणों में से इस वर्ष चुकाए जाने वाले ब्याज को घटाने पर निवल घरेलू ऋण की मात्रा ज्ञात हो जाती है।
(ii) निवल विदेशी ऋण
सरकार को विदेशी सरकारों, विदेशी वाणिज्यिक बैंकों तथा अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक संस्थाओं से ऋण प्राप्त होता है। तथा विगत वर्षों में प्राप्त हुए ऋणों पर ब्याज भी देना होता है। अतः सभी नये ऋणों में से विगत वर्षों के ऋणों पर इस वर्ष चुकाए जाने वाले ब्याज की मात्रा घटाने पर निवल विदेशी ऋण की मात्रा ज्ञात होती है।
(III) ऋण वापसी
सरकार ने पिछले वित्तीय वर्ष में राज्य सरकारों, सार्वजनिक निगमों, अन्य संस्थाओं तथा विदेशी सरकारों को यदि कोई ऋण दिया है.
तो उसके जिस भाग की वापसी चालू वित्तीय वर्ष में होती है, उस धन को ऋण वापसी के अन्तर्गत रखा जाता हैं।
(iv) लोक लेखा प्राप्तियाँ
सरकार बैंकिग संस्थाओं का नियंत्रक होने के साथ-साथ बैंकर के रूप में भी कार्य करती हैं। डाकघरों में सावधि जमाएँ, लघु बचतों तथा विभिन्न प्रकार के बचत-पत्र, किसान विकास-पत्र आदि समय-समय पर जारी होते रहते हैं। इन सबसे जो निवल आय प्राप्त होती है, उसे लोक लेखा प्राप्तियों के अन्तर्गत रखा जाता है।
इन स्रोतों से प्राप्त समग्र आय में से, उसी वित्तीय वर्ष में किए जाने वाले ब्याज भुगतान को घटाकर जो आय प्राप्त होती हैं उसे निवल लोक लेखा प्राप्तियाँ कहते हैं।
सरकार के बजट में सर्वप्रथम चालू वित्तीय वर्ष में होने वाले व्यय के अनुमान लगाए जाते हैं। सरकार द्वारा किए जाने वाले सम्पूर्ण सार्वजनिक व्यय को दो भागों में बाँटा जा सकता है-
(i) राजस्व व्यय (Revenue Expenditure)
(ii) पूँजीगत व्यय (Capital Expenditure)
राजस्व व्यय (Revenue Expenditure)
राजस्व व्यय को बजट में गैर-विकासात्मक तथा विकासात्मक व्यय के रूप में विभाजित किया जाता है।
राजस्व व्यय के अन्तर्गत गैर-विकासात्मक मदें
(i) सरकारी सेवाओं पर होने वाले व्यय
(ii) सरकारी सब्सिडी
(iii) ब्याज अदायगी
(iv) सरकारी अनुदान
i) सरकारी सेवाओं पर होने वाला व्यय- सरकार के व्यय का मुख्य कारण कल्याणकारी योजनाओं में वृद्धि होना है।
समाज कल्याण हेतु सरकार कई प्रकार की सेवाएँ उपलब्ध कराती हैं, जैसे- प्रतिरक्षा सेवाएँ, प्रशासकीय सेवाएँ, आर्थिक सेवाएँ, सामाजिक सेवाएँ, तथा सामुदायिक सेवाएँ।
जो व्यय सेना के तीनों अंगों के कर्मचारियों तथा उनकी आवश्यकताओं पर होता है, उसे प्रतिरक्षा सेवाओं पर होने वाले व्यय में शामिल किया जाता है।
प्रशासनिक सेवाओं में राष्ट्र के सम्पूर्ण आन्तरिक प्रशासन में होने वाला व्यय शामिल है। इन सेवाओं में न्यायालय, पुलिस, सार्वजनिक व्यवस्थाओं, विदेशी राजनयिक मामलों आदि सेवाओं पर होने वाले व्यय शामिल होते हैं।
आर्थिक सेवाओं में होने वाले व्यय में उन सेवाओं पर होने वाले व्यय को शामिल किया जाता है, जो किसी भी प्रकार की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आर्थिक सुविधा उपलब्ध कराते हैं, जैसे- सिंचाई सुविधाएँ, विदेश व्यापार एवं प्रोत्साहन सेवाएँ, परिवहन तथा संचार सेवाएँ, खाद्यान्न उपलब्ध कराने की योजनाएँ आदि।
सामाजिक तथा सामुदायिक सेवाओं से आशय उन सेवाओं से है, जो किसी भी प्रकार से सामाजिक की प्रगति में सहायक सिद्ध हों अर्थात वे सेवाएँ जो लोगों के जीवन स्तर में सुधार करती हैं, जैसे- स्वास्थ्य व परिवार कल्याण, खेलकूद, युवा तथा महिला विकास, सूचना तथा प्रसारण, सांस्कृतिक विकास कार्यक्रम आदि पर होने वाला व्यय।
(ii) ब्याज अदायगी - चालू खाते में दूसरा महत्वपूर्ण मद ब्याज अदायगियों का है। इनके अंतर्गत सभी प्रकार के ऋणों के कारण उत्पन्न होने वाले ब्याज की अदायगियों को शामिल किया जाता है। ये अदायगियाँ घरेलू, विदेशी, निजी या संस्थागत हो सकती है।
वर्तमान में राजस्व व्यय खाते में ब्याज अदायगी ही सबसे बड़ी व्यय मद है।
(iii) अनुदान- केन्द्र सरकार राज्य सरकारों, सार्वजनिक उद्यम की इकाइयों तथा अन्य संस्थाओं को विभिन्न कारणों से समय-समय पर अनुदान देती है। अकाल, सूखा, भूकम्प, बाढ़ तथा अन्य असामान्य परिस्थितियों में भी अनुदान देती है। कभी-कभी सरकार आवश्यकता पड़ने पर अन्य देशों को भी अनुदान देती है।
(iv) सब्सिडी - केन्द्र सरकार निर्यात प्रोत्साहन, उत्पादन प्रोत्साहन तथा निम्न आय वर्ग के लोगों के लिए खाद्यान्न को उचित मूल्य पर या निःशुल्क उपलब्ध कराने के लिए सब्सिडी प्रदान करती है।
राजस्व व्यय के अन्तर्गत विकासात्मक मदें
सामाजिक एवं सामुदायिक सेवाएँ
सामान्य आर्थिक सेवाएँ
कृषि एवं सहायक सेवाएँ
उद्योग एवं खनिज रासायनिक उर्वरका सब्सिडी
परिवहन एवं संचार • लोक निर्माण विद्युत, सिंचाई एवं बाढ़ नियंत्रण
राज्यों एवं केन्द्र शासित प्रदेशों को अनुदान
राज्यों को संवैधानिक अनुदान
सामाजिक एवं सामुदायिक सेवाएँ- शिक्षा, कला एवं संस्कृति, वैज्ञानिक सेवाएँ एवं अनुसंधान, चिकित्सा (सार्वजनिक स्वास्थ्य) स्वच्छता, जल आपूर्ति, परिवार कल्याण, आवास, नगर विकास, श्रम एवं रोजगार, सूचना एवं प्रसारण आदि।
सामान्य आर्थिक सेवाएँ- विदेश व्यापार एवं निर्यात संवर्द्धन, सहकारिता आदि।
कृषि एवं सहायक सेवाएँ- फसल उत्पादन, पशुपालन खाद्य भण्डारण एवं भण्डारागार, ग्रामीण विकास आदि।
विद्युत, सिंचाई एवं बाढ़ नियंत्रण- विद्युत परियोजनाएँ, मध्यम एवं लघु सिंचाई तथा वृहत सिंचाई परियोजनाएँ।
परिवहन एवं संचार- सड़कें एवं पुल, नागरिक उड्डयन, बन्दरगाह, लाइट-हाउस एवं जहाजरानी आदि।
राज्यों एवं केन्द्रशासित क्षेत्रों को अनुदान- ग्रामीण जलापूर्ति योजनाएँ, ग्रामीण सड़कें, ग्रामीण रोजगार आयोजनागत अनुदान, पिछड़े वर्गों का कल्याण, अनुसूचित जनजातियों को विशेष केन्द्रीय सहायता, विविध अनुदान आदि।
राज्यों को संवैधानिक अनुदान- संविधान के अनुच्छेद-275 के अन्तर्गत तथा रेलयात्री भाड़े पर कर के बदले दिया जाने वाला अनुदान।
पूँजीगत व्यय (Capital Expenditure)
पूँजीगत व्यय के खाते में उन मदों को शामिल किया जाता है,
जिनमें व्यय तो चालू वर्ष में किया जाता है, किन्तु जिनसे सामाजिक कल्याण में वृद्धि चालू वर्ष के साथ-साथ आगामी वर्षों में भी होती रहती है। जैसेः यदि सरकार लोगों के स्वास्थ्य कल्याण हेतु किसी जिले में चिकित्सालय की स्थापना करे, तो सरकार को दो प्रकार का व्यय करना होगा-
(i) अस्पताल के भवन तथा अन्य स्थायी परिसम्पत्तियों (उपकरण व अन्य सुविधाएँ) का निर्माण
(ii) डॉक्टर तथा नर्सों की नियुक्ति, दवाइयों का क्रय आदि।
• दवाइयों तथा वेतन पर होने वाले खर्च से रोगियों को तत्काल लाभ मिलेगा, किन्तु स्थायी परिसम्पत्तिया से आगामी वर्षों में भी लाभ प्राप्त होगा। इस कारण इन पर होने वाला व्यय पूँजी खाते में शामिल किया जाएगा।
वित्त विधेयक (Finance Bill)
साधारणतः वित्तीय मामलों, जैसे- राजस्व (Revenue) या व्यय (Expenditure) से सम्बंधित विधेयक को वित्त विधेयक कहते हैं।
जब धन विधेयक में साधारण विधेयक के भी उपबन्ध जोड़ दिए जाते हैं, तो उसे वित्त विधेयक कहा जाता है। इसका उल्लेख अनुच्छेद-110 में किया गया है।
सभी धन विधेयक वित्त विधेयक होते हैं, परन्तु सभी वित्त विधेयक धन विधेयक नहीं होते हैं।
वित्त विधेयक केवल लोकसभा में ही प्रस्तुत किया जा सकता है। इसके लिए राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति आवश्यक है।
साधारण विधेयक के समान इसे दोनों सदनों में पारित होना आवश्यक होता है। राज्यसभा इसमें संशोधन कर सकती है या अस्वीकार कर सकती है। दोनों सदनों में असहमति होने पर संयुक्त बैठक का भी प्रावधान है। राष्ट्रपति इसे पुनर्विचार के लिए सदनों को लौटा सकते हैं।
वित्तीय घाटे के प्रकार (Types of Financial Deficit)
बजटीय घाटा (Budgetary Deficit)
• जब बजट के विवरण में कुल प्राप्तियों की मात्रा से, कुल व्यय की मात्रा अधिक होती है, तो उसे बजटीय घाटा कहते हैं।
बजटीय घाटा = कुल बजटीय व्यय - कुल बजटीय प्राप्तियाँ
राजस्व घाटा (Revenue Deficit)
जब कुल राजस्व प्राप्तियाँ, कुल राजस्व व्यय से कम हों, तो इसे राजस्व घाटा कहते हैं।
राजस्व घाटा = कुल राजस्व व्यय - कुल राजस्व प्राप्तियाँ
राजकोषीय घाटा (Fiscal Deficit)
जब सरकार का कुल व्यय (राजस्व व्यय + पूँजीगत व्यय) उसकी कुल आय (राजस्व आय पूँजीगत आय) से अधिक हो जाता है, तो यह स्थिति राजकोषीय घाटा कहलाती है।
राजकोषीय घाटा = कुल व्यय - गैर ऋण राजस्व प्राप्तियाँ
(राजस्व व्यय + पूँजीगत व्यय) - (राजस्व आय + पूँजीगत आय)
प्राथमिक घाटा (Primary Deficit)
जब राजकोषीय घाटे में से ब्याज अदायगी को घटा दिया जाता है, तो उसे प्राथमिक घाटा कहते हैं।
प्राथमिक घाटा = सकल राजकोषीय घाटा - ब्याज अदायगी
मौद्रीकृत घाटा (Monetised Deficit)
जब घाटे की वित्तीय व्यवस्था को नोट निर्गमन के द्वारा पूरा किया जाता है, तो उसे मौद्रीकरण कहते हैं और उस घाटे को मौद्रिक घाटा कहते हैं।
मौद्रिक घाटा = बजटीय घाटा + सार्वजनिक बजट में RBI का योगदान
क्रियात्मक घाटा (Operational Deficit)
स्फीति समायोजित राजकाषीय घाटे को, क्रियात्मक घाटा कहते हैं।
क्रियात्मक घाटा = सकल राजकोषीय घाटा - स्फीतिक समायोजन
बजट से संबंधित संवैधानिक प्रावधान
भारत की संचित निधि (अनुच्छेद-266)
इस कोष की समस्त प्राप्तियों को जमा के अंतर्गत तथा समस्त भुगतानों को व्यय के अंतर्गत रखा जाता है। सरकार की ओर से किए जाने वाले सभी भुगतान वैधानिक रूप से इसी कोष में से किए जाते हैं।
इस कोष से किसी भी राशि का विनियोग (जारी करना या निकालना), संसदीय कानून के अनुसार ही किया जा सकता है।
विनियोग विधेयक
अनुच्छेद-114 में स्पष्ट किया गया है कि, संचित निधि से कोई धन विनियोग विधेयक के द्वारा ही निकाला जा सकता है, अन्यथा नहीं। अतः लोकसभा द्वारा अनुदान की माँग पारित करने के पश्चात् एक विनियोग विधेयक (Appropriation Bill) लोकसभा में प्रस्तुत किया जाता है।
इस विनियोग विधेयक में, अनुदान माँगें तथा भारत की संचित निधि पर भारित व्यय विनिर्दिष्ट होते हैं। प्रत्येक विनियोग विधेयक धन विधेयक होता है और उसे धन विधेयक की प्रक्रिया के अनुसार ही पारित किया जाता है।
विनियोग विधेयक के सम्बंध में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि, इसके द्वारा कोई ऐसा संशोधन प्रस्थापित नहीं किया जायेगा, जो अनुदान की राशि में परिवर्तन करने या अनुदान के लक्ष्य को बदलने या भारत की संचित निधि पर भारित राशि में परिवर्तन करने से सम्बंधित हो।
कोई संशोधन उपर्युक्त प्रकार का है या नहीं इसका निर्णय सदन के पीठासीन अधिकारी द्वारा किया जाता है।
बजट के कर सम्बंधी प्रावधानों को एक विधेयक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है जिसे वार्षिक वित्त विधेयक कहा जाता है। इसे वित्तमंत्री के बजट भाषण के तुरन्त बाद लोकसभा में प्रस्तुत किया जाता है।
यह एक धन विधेयक होता है, जो बजट सत्र में विनियोग विधेयकों के साथ-साथ पारित किया जाता है।
भारत का सार्वजनिक लेखा अनुच्छेद-266(2)
भारत सरकार द्वारा या इसकी ओर से प्राप्त सभी अन्य सार्वजनिक राशियाँ (उन राशियों को छोड़कर जो भारत की संचित निधि में जमा की जाती हैं) भारतीय सार्वजनिक लेखा (Public Account) में जमा की जाती हैं।
इसमें भविष्य निधि जमा, न्यायिक जमा, बचत खाता जमा, विभागीय जमा एवं प्रेषित जमा इत्यादि शामिल की जाती हैं।
इस खाते का संचालन कार्यपालक कार्यवाही द्वारा किया जाता है। अर्थात् इस खाते से भुगतान संसदीय विनियोजन के बिना किए जा सकते हैं। भुगतानों की प्रकृति प्रायः बैंकिंग लेन-देन के समान होती है।
भारतीय आकस्मिक निधि (अनुच्छेद-267)
भारतीय संविधान द्वारा संसद को भारतीय आकस्मिक निधि (Contingency Fund of India) की स्थापना के लिए अधिकृत किया गया है, जिसमें समय-समय पर कानून द्वारा निर्धारित राशियाँ जमा की जाएँगी।
वर्ष 1950 में भारतीय संसद द्वारा भारतीय आकस्मिक निधि अधिनियम पारित किया गया।
इस निधि को राष्ट्रपति के नियंत्रण में रखा गया है। संसद द्वारा अनुमति देने से पूर्व, किसी आकस्मिक व्यय की पूर्ति के लिए राष्ट्रपति इसमें से अग्रिम भुगतान कर सकता है।
बजट के प्रकार (Types of Budget)
बजटीय प्रक्रिया के दौरान विभिन्न सरकारी हस्तक्षेप, सरकार के कल्याणकारी स्वरूप, देश हित आदि के आधार पर बजट के अनेक प्रकार विकसित हुए हैं, जिनका वर्णन निम्नलिखित है-
आम बजट (General Budget)
निष्पादन बजट (Performance Budget)
परिणामोन्मुख बजट (Outcome Budget) (
लैंगिक बजट (Gender Budget)
शून्य आधारित बजट Zero-Based Budger)
1. आम बजट या पारम्परिक बजट (General Budget or Traditional Budget)
वर्तमान समय के आम बजट का प्रारम्भिक रूप पारम्परिक बजट कहलाता है। इसका प्रमुख उद्देश्य विधायिका द्वारा कार्यपालिका पर वित्तीय नियंत्रण रखना है।
इस बजट में सरकार के आय-व्यय का विवरण रहता है।
इस प्रकार के बजट में सरकार आने वाले वित्तीय वर्ष में कितना खर्च करेगी, इसका तो उल्लेख करती है परन्तु इसके क्या लाभ होंगे, इसका विवरण नहीं दिया जाता है।
इस प्रकार के बजट का उद्देश्य है- सरकारी व्यय पर नियंत्रण करना एवं विकास करना। अतः पारम्परिक बजट अपने उद्देश्यों में असफल रहा, जिसके फलस्वरूप निष्पादन बजट का प्रयोग किया गया तथा पारम्परिक बजट को पूरक रूप में पेश किया जाने लगा।
2. निष्पादन बजट (Performance Budget)
सर्वप्रथम निष्पादन बजट का प्रारम्भ संयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ था। इसमें किसी कार्य के सम्भावित परिणामों को आधार बनाकर बजट का निर्माण किया जाता है।
भारत में निष्पादन बजट को कार्यपूर्ति बजट या उपलब्धि बजट भी कहा जाता है।
निष्पादन बजट की मुख्य विशेषताएँ
यह क्रियोन्मुख व परिणामोन्मुख बजट है।
इसमें सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों का विवरण होता है।
इसमें व्यय की मदों के स्थान पर किए जाने वाले कार्यों को अधिक महत्त्व दिया जाता है।
इसके अन्तर्गत सरकार की उपलब्धियों का मूल्यांकन लागत के सन्दर्भ में किया जा सकता है।
यह पारदर्शी बजट प्रणाली है, अत्यधिक सरल होने के कारण यह आसानी से समझ में आता है।
3. परिणामोन्मुख बजट (Outcome Budget)
भारत में परिणामोन्मुख बजट वर्ष 2005 में पहली बार प्रस्तुत किया गया, जिसके अन्तर्गत इसका विवरण प्रस्तुत करना आवश्यक था कि, आम बजट में आवंटित धनराशि का विभिन्न मंत्रालयों एवं विभागों ने किस प्रकार उपयोग किया।
यह बजट सभी मंत्रालयों एवं विभागों के कार्य प्रदर्शन हेतु एक मापक का कार्य करता है, जिससे सेवा, विनिर्माण प्रक्रिया, कार्यक्रम क्रियान्वय एवं उनका मूल्यांकन एवं कार्यक्रमों को और अधिक बेहतर बनाने में सहायता मिलती है।
भारत में प्रतिवर्ष अनेक योजनाएँ प्रारम्भ की जाती हैं, परन्तु उनके द्वारा प्राप्त किये गये लक्ष्यों के मूल्यांकन का पैमाना निर्धारित नहीं है। कभी-कभी तो इन योजनाओं के क्रियान्वयन में देरी के कारण लागत में वृद्धि हो जाती है। अतः इस समस्या को समाप्त करने हेतु इस बजट का प्रयोग किया जाता है।
लैंगिक बजट (Gender Budgeting)
इस बजट द्वारा सरकार महिलाओं के विकास, कल्याण और सशक्तीकरण से सम्बंधित योजनाओं और कार्यक्रमों हेतु प्रतिवर्ष एक निर्धारित राशि की व्यवस्था करती है।
इस प्रकार के बजट में उन सभी योजनाओं और कार्यक्रमों पर किया गया खर्च शामिल किया जाता है, जिनका सम्बंध महिला व शिशु कल्याण से होता है।
शून्य आधारित बजट (Zero Based Budget)
शून्य आधारित बजट में प्रत्येक कार्य का निर्धारण शून्य आधार पर किया जाता है। अतः पुराने व्यय के आधार पर नये व्यय का निर्धारण नहीं किया जाता है अपितु प्रत्येक कार्य हेतु नये बिन्दु से नीति निर्धारित की जाती है।
इस बजट को सूर्यास्त बजट (Sun Set Budget) भी कहा जाता है, जिसका तात्पर्य है, वित्तीय वर्ष की समाप्ति से पूर्व प्रत्येक विभाग को शून्य आधारित बजट प्रस्तुत करना पड़ता है। इसमें प्रत्येक विभाग की गतिविधियों का विवरण अंकित होता है।
भारत में इस बजट के अपनाने के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं- (i) निष्पादन बजट प्रणाली का सफल क्रियान्वयन न हो पाना। (ii) देश में सतत् रूप से विद्यमान बजटीय घाटा।
इसके अन्तर्गत पिछले वर्षों में किये गये व्यय पर विचार नहीं किया जाता है और न ही पिछले वित्त वर्षों के व्यय को आगामी वर्षों में प्रयुक्त किया जाता है। वस्तुतः शून्य आधारित बजट में इस बात पर बल दिया जाता है, कि किसी मद पर व्यय किया जाये या नहीं।