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भारत, अपनी विविध भूगोल के साथ, प्राकृतिक और मानव निर्मित झीलों का एक समृद्ध संग्रह रखता है। ये झीलें न केवल देश के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए महत्वपूर्ण हैं, बल्कि सांस्कृतिक, आर्थिक और पर्यटन के लिहाज से भी महत्वपूर्ण हैं। आइए भारत की झीलों के बारे में विस्तार से जानते हैं:
भारतीय झीलों के प्रकार:
हिमालयी झीलें: हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियरों के पिघलने से बनी झीलें, जैसे कि वूलर झील (कश्मीर), नैनीताल झील (उत्तराखंड), और डल झील (कश्मीर)।
टेक्टोनिक झीलें: भूगर्भीय हलचल और प्लेटों के विस्थापन से बनी झीलें, जैसे कि लोकटक झील (मणिपुर) और सांभर झील (राजस्थान)।
क्रेटर झीलें: ज्वालामुखी के विस्फोट के बाद बने गड्ढों में बनी झीलें, जैसे कि लोनार झील (महाराष्ट्र) और सागरा झील (हिमाचल प्रदेश)।
मानव निर्मित झीलें: बांधों के निर्माण से निर्मित झीलें, जैसे कि गोविंद सागर झील (हिमाचल प्रदेश), नागार्जुन सागर झील (आंध्र प्रदेश), और इंदिरा सागर झील (मध्य प्रदेश)।
भारतीय झीलों का महत्व:
पारिस्थितिकी तंत्र: ये झीलें जैव विविधता का केंद्र हैं, विभिन्न प्रकार की पौधों और जीवों को आश्रय प्रदान करते हैं। पानी के पक्षी, मछली, और अन्य जलीय जीवों के लिए ये महत्वपूर्ण आवास हैं।
जल संसाधन: भारत की कई झीलें पीने के पानी, सिंचाई, और बिजली उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण जल संसाधन हैं।
पर्यटन: कई झीलें अपने प्राकृतिक सौंदर्य और मनोरंजक गतिविधियों के लिए पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र हैं।
सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व: कई झीलें, जैसे कि पुष्कर झील (राजस्थान), धार्मिक महत्व रखती हैं और विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों के लिए महत्वपूर्ण स्थल हैं।
भारत में झीलों की प्रमुख चुनौतियां:
प्रदूषण: औद्योगिक और घरेलू अपशिष्ट, कृषि रसायनों, और प्लास्टिक के कचरे से झीलों का प्रदूषण बढ़ रहा है।
अतिक्रमण: झीलों के आसपास के क्षेत्र में अतिक्रमण से पानी का स्तर कम हो रहा है और झीलों की प्राकृतिक सुंदरता प्रभावित हो रही है।
जल स्तर में गिरावट: अत्यधिक जल उपयोग और जलवायु परिवर्तन के कारण कई झीलों का जल स्तर कम हो रहा है।
भारत की झीलों के संरक्षण के लिए आवश्यक कदम:
प्रदूषण नियंत्रण: औद्योगिक और घरेलू अपशिष्ट का उपचार करके, कृषि रसायनों के उपयोग को नियंत्रित करके, और प्लास्टिक के कचरे का प्रबंधन करके झीलों का प्रदूषण कम करना।
अतिक्रमण रोकथाम: झीलों के आसपास के क्षेत्र में अतिक्रमण रोकने के लिए सख्त कदम उठाना।
जल स्तर का प्रबंधन: झीलों के जल स्तर को बनाए रखने के लिए जल उपयोग को नियंत्रित करना और जल संसाधनों का प्रबंधन करना।
जागरूकता अभियान: झीलों के संरक्षण के महत्व के बारे में जागरूकता फैलाना।
निष्कर्ष:
भारत की झीलें देश की प्राकृतिक संपदा और आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इन झीलों को स्वस्थ और संरक्षित रखना, हमारे पारिस्थितिकी तंत्र और भविष्य की पीढ़ियों के लिए महत्वपूर्ण है।
1. वूलर झील (कश्मीर):
विशेषताएं: यह भारत की सबसे बड़ी मीठे पानी की झील है, और दुनिया की सबसे ऊँची झीलों में से एक है। यह पीर पंजाल पर्वत श्रृंखला के बीच स्थित है, और इसकी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है।
महत्व: यह कश्मीर के लोगों के लिए महत्वपूर्ण जल स्रोत है, और पर्यटन का एक प्रमुख केंद्र है। यह घाटों, बोट हाउस, और मनोरम दृश्यों के लिए प्रसिद्ध है।
चुनौतियां: प्रदूषण, अतिक्रमण, और जल स्तर में गिरावट प्रमुख चुनौतियां हैं जो वूलर झील को प्रभावित करती हैं।
2. डल झील (कश्मीर):
विशेषताएं: श्रीनगर शहर के बीच स्थित, यह एक प्रसिद्ध झील है, जिसे "झीलों की रानी" के रूप में जाना जाता है। इसकी सुंदरता, नावें, और शिकाराओं के लिए प्रसिद्ध है।
महत्व: यह पर्यटन, स्थानीय समुदायों के लिए जीविका (शिकारा चलाकर), और मछली पकड़ने के लिए महत्वपूर्ण है।
चुनौतियां: डल झील प्रदूषण, अतिक्रमण, और जल स्तर में गिरावट का सामना कर रही है, जिससे इसकी पारिस्थितिकी और सुंदरता को खतरा है।
3. लोकटक झील (मणिपुर):
विशेषताएं: यह भारत की सबसे बड़ी मीठे पानी की झील है और मणिपुर की जीवन रेखा है। यह "फ्लोटिंग आइलैंड्स" के लिए जाना जाता है, जो "फूमडी" नामक जलीय पौधों से बने है।
महत्व: यह मणिपुर के लोगों के लिए मछली पकड़ने, कृषि, और पर्यटन के लिए महत्वपूर्ण है। यह अद्वितीय पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता के लिए प्रसिद्ध है।
चुनौतियां: लोकटक झील प्रदूषण, अतिक्रमण, और जल स्तर में गिरावट का सामना कर रही है, जो इसके पारिस्थितिकी और जैव विविधता को खतरे में डालती है।
4. नैनीताल झील (उत्तराखंड):
विशेषताएं: हिमालय की एक प्रसिद्ध झील, जो अपने मनोरम दृश्यों, पहाड़ों, और पर्यटन स्थलों के लिए जानी जाती है।
महत्व: यह पर्यटन, स्थानीय समुदायों के लिए जीविका, और पानी के स्रोत के रूप में महत्वपूर्ण है।
चुनौतियां: नैनीताल झील प्रदूषण, अतिक्रमण, और जल स्तर में गिरावट से पीड़ित है।
5. पुष्कर झील (राजस्थान):
विशेषताएं: यह राजस्थान की एक प्रसिद्ध झील है, जो अपने धार्मिक महत्व और सुंदरता के लिए जानी जाती है।
महत्व: यह हिंदू धर्म में एक पवित्र स्थल है, और इसमें प्रत्येक वर्ष एक प्रसिद्ध मेला लगता है। यह पर्यटन और स्थानीय समुदायों के लिए जीविका का एक महत्वपूर्ण स्रोत है।
चुनौतियां: प्रदूषण, अतिक्रमण, और जल स्तर में गिरावट से पुष्कर झील भी प्रभावित है।
6. सांभर झील (राजस्थान):
विशेषताएं: यह भारत की सबसे बड़ी खारे पानी की झील है, और नमक उत्पादन के लिए जानी जाती है।
महत्व: यह राजस्थान के लिए एक महत्वपूर्ण जल स्रोत है, और नमक उत्पादन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह पक्षी विहार के लिए भी महत्वपूर्ण है।
चुनौतियां: सांभर झील प्रदूषण, अधिक खनन, और जल स्तर में गिरावट से पीड़ित है।
7. लोनार झील (महाराष्ट्र):
विशेषताएं: यह एक क्रेटर झील है, जो एक प्राचीन उल्कापिंड के प्रभाव से बनी है। यह अपने अद्वितीय पारिस्थितिकी और जैव विविधता के लिए जानी जाती है।
महत्व: यह पर्यटन और वैज्ञानिक अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण है।
चुनौतियां: लोनार झील प्रदूषण, अतिक्रमण, और जल स्तर में गिरावट से पीड़ित है, जो इसके पारिस्थितिकी को खतरे में डाल रहा है।
यह भारत की कुछ प्रमुख झीलों के बारे में एक संक्षिप्त विवरण है। इन झीलों के संरक्षण के लिए सख्त कदम उठाना आवश्यक है, ताकि इनके पारिस्थितिकी, जैव विविधता, और सौंदर्य को बचाया जा सके।
• भारत की प्राकृतिक विशेषताओं में व्यापक विविधता है।
• स्थलखंड की यह विविधता विभिन्न भूगर्भीय काल के दौरान निर्मित भारत के बड़े स्थलखंड और क्रस्ट में होने वाली विभिन्न भूगर्भीय और भू-आकृति विज्ञान प्रक्रियाओं का परिणाम है।
• प्लेट विवर्तनिकी (टेक्टोनिक) सिद्धांत के अनुसार, भारतीय परिदृश्य की भौतिक विशेषताओं के निर्माण में शामिल प्रमुख प्रक्रियाएं फोल्डिंग, फॉल्टिंग और ज्वालामुखीय गतिविधि हैं। उदाहरण के लिए: देश के उत्तर में हिमालय के निर्माण के लिए गोंडवाना भूमि के साथ यूरेशियन प्लेट के सम्मिलन को जिम्मेदार ठहराया गया।
• देश के उत्तरी भाग में ऊबड़-खाबड़ स्थलाकृतियों का विस्तार है जिसमें विभिन्न चोटी, विशाल घाटियों और गहरी घाटियों के साथ पर्वत श्रृंखलाओं की एक विस्तुत श्रृंखला शामिल है।
• देश के दक्षिणी भाग में अत्यधिक विच्छेदन वाले पठार, निरावरण चट्टानें और सीधी ढ़लानों की विकसित श्रृंखला के साथ स्थाई पहाड़ी मैदान भूमि होती है।
• उत्तर के विशाल मैदान इन दो परिदृश्यों के बीच स्थित है।
• भारत की प्राकृतिक विशेषताओं को निम्नलिखित भौगोलिक प्रभागों के तहत वर्गीकृत किया जा सकता है:
हिमालय
उत्तर के मैदान
प्रायद्वीपीय पठार
भारतीय मरुस्थल
तटीय मैदान
द्वीप
➤हिमालय
• हिमालय वलित पर्वत हैं जो देश की उत्तरी सीमा का निर्माण करता है।
• हिमालय दो रेखाओं के आधार पर विभाजित है: एक देशांतरीय विभाजन है और दूसरा पश्चिम से पूर्व तक है।
• हिमालय में समांतर पर्वत श्रृंखलाओं की श्रृंखला शामिल है।
• हिमालय एक चाप बनाता है, जिसमें लगभग 2400 किमी की दूरी शामिल है और चौड़ाई पश्चिम में 400 किमी से पूर्व में 150 किमी तक भिन्न है।
• पश्चिमी भाग की तुलना में पूर्वी भाग में ऊंचाई संबंधी भिन्नताएं अधिक हैं।
• अनुदैर्ध्य सीमा के आधार पर हिमालय में तीन समानांतर चोटी हैं: महान हिमालय या आंतरिक हिमालय या हिमाद्री; हिमाचल या लघु हिमालय और बाह्य या शिवालिक हिमालय।
• महान हिमालय सबसे अविरत पर्वतमाला हैं जिनमें 6000 मीटर की औसत ऊंचाई वाले सबसे उच्च शिखर होते हैं।
• महान हिमालय की परत की प्रकृति असममित हैं।
• इस हिमालय के मुख्य भाग में ग्रेनाइट पाए जाते हैं।
• इन श्रेणियों का सामान्य अभिविन्यास उत्तर-पश्चिमी भाग में उत्तर-पश्चिम से दक्षिण पूर्व दिशा तक; पूर्व-पश्चिम दिशा में दार्जिलिंग और सिक्किम तक और अरुणाचल क्षेत्र में दक्षिण पश्चिम से पूर्वोत्तर तक है।
• हिमाचल या लघु हिमालय मुख्य रूप से अत्यधिक संकुचित और परिवर्तित चट्टानों से बना है।
• इस प्रणाली की सबसे लंबी श्रृंखला पीरपंजल श्रेणी है।
• इस श्रेणी में कश्मीर की प्रसिद्ध घाटी, कंगड़ा और कुल्लू घाटी शामिल है।
• हिमालय की बाह्य श्रृंखलाओं को शिवालिक कहा जाता है। यह दूर उत्तर में स्थित मुख्य हिमालय पर्वत श्रेणी से नदियों द्वारा लाए गए असमेकित अवसादों से निर्मित है।
• लघु हिमालय और शिवालिक के बीच स्थित अनुदैर्ध्य घाटी दून के नाम से जानी जाती है। उदाहरण: देहरा दून, कोटली दून, पाटली दून।
• हिमालय का सर्वोच्च शिखर माउंट एवरेस्ट है, नेपाल (8848 मीटर); कंचनजंगा, भारत (8598 मीटर); मकालू, नेपाल (8481 मीटर)
• सुविधा के आधार पर, हिमालय की श्रेणियों और अन्य भू-आकृति विज्ञान विशेषताओं को निम्नलिखित में उप-विभाजित किया जा सकता है
• उत्तर-पश्चिम या कश्मीर हिमालय
• हिमाचल और उत्तराखंड हिमालय
• दार्जिलिंग और सिक्किम हिमालय
• अरुणाचल हिमालय
• पूर्वी पहाड़ियां और पर्वत
➤उत्तर-पश्चिमी या कश्मीर हिमालय
• महत्वपूर्ण पर्वत श्रेणियां: कराकोरम, लद्दाख, जस्कर और पीरपंजल
• महत्वपूर्ण ग्लेशियर: सियाचिन, बाल्टोरो, रेमो, आदि
• महत्वपूर्ण दर्रे: ज़ोजिला, बारालाचा ला, बनिहाल, रोहतंग, आदि
• महत्वपूर्ण चोटियों: नंगा पर्वत, के-2, आदि
• कश्मीर घाटी: महान हिमालय और पीरपंजल पर्वत श्रेणी के बीच स्थित है।
• शीत मरुस्थल: महान हिमालय और कराकोरम पर्वत श्रेणी के बीच।
• महत्वपूर्ण झील: दल और वुलर मीठे पानी के झील हैं, जबकि पैंगॉग त्सो और त्सो मोरिरी खारे पानी की झील हैं।
• इस क्षेत्र के दक्षिणी भाग में अनुदैर्ध्य घाटियां हैं जिन्हें दून के नाम से जाना जाता है। उदाहरण: जम्मू दून, पठानकोट दून, आदि,
➤हिमाचल और उत्तराखंड हिमालय
• महत्वपूर्ण पर्वत श्रेणियां: महान हिमालय, धौलाधर, शिवालिक, नागतिभा, आदि,
• महत्वपूर्ण नदी व्यवस्था: सिंधु और गंगा
• महत्वपूर्ण पर्वतीय स्थल: धर्मशाला, मसूरी, शिमला, काओसानी, आदि,
• महत्वपूर्ण दर्रे: शिपकी ला, लिपुलेख, माना दर्रा, आदि,
• महत्वपूर्ण ग्लेशियर: गंगोत्री, यमुनोत्री, पिंडारी, आदि,
• महत्वपूर्ण चोटियां: नंदा देवी, धौलागिरी, आदि,
• महत्वपूर्ण दून: देहरा दून (सबसे बड़ा), हरिके दून, कोटा दून, नालागढ़ दून, चंडीगढ़-कालका दून इत्यादि।
• यह क्षेत्र पांच प्रयाग (नदी संगम) के लिए जाना जाता है। फूलों की घाटी भी इसी क्षेत्र में स्थित है।
➤दार्जिलिंग और सिक्किम हिमालय
• यह पश्चिम में नेपाल हिमालय और पूर्व में भूटान हिमालय के बीच स्थित है।
• यह तेज बहने वाली नदियों और ऊंची पर्वत चोटियों का क्षेत्र है।
• महत्वपूर्ण चोटियां: कंचनजंगा
• इस क्षेत्र में दुआर संरचनाएं शिवालिक (अनुपस्थित) की जगह लेती हैं जो चाय बागानों के विकास को बढ़ाती है।
• महत्वपूर्ण ग्लेशियर: ज़ेमु ग्लेशियर
• महत्वपूर्ण चोटी: नाथू ला और जेलेप ला
➤अरुणाचल हिमालय
• यह पूर्व में भूटान हिमालय और दीफू दर्रे के बीच स्थित है
• महत्वपूर्ण चोटियां: नामचा बरवा और कांग्टू
• महत्वपूर्ण नदियां: सुबनसिरी, दिहांग, दिबांग और लोहित
• महत्वपूर्ण पर्वत श्रेणियां: मिश्मी, अबोर, दफला, मिहिर इत्यादि।
• महत्वपूर्ण र्दे: दिफू दर्रा,
➤पूर्वी पहाड़ियां और पर्वत
• ये हिमालय पर्वत का भाग है जो उत्तर से दक्षिण दिशा तक सामान्य संरेखण में हैं।
• देश की पूर्वी सीमा में हिमालय को पूर्वांचल कहा जाता है। ये मुख्य रूप से बलुआ पत्थर (अवसादी चट्टानों) से निर्मित है।
• महत्वपूर्ण पहाड़ियां: पटकाई बम, नागा पहाड़ियां, मणिपुर पहाड़ियां, मिजो पहाड़ियां, आदि
➤उत्तरी मैदान
• उत्तरी मैदान तीन प्रमुख नदी व्यवस्थाओं - सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र की अन्योन्य क्रिया द्वारा निर्मित है।
• यह मैदान जलोढ़ मृदा का निर्माण करता है - लाखों वर्षों से हिमालय की तलहटी पर स्थित एक विशाल नदी घाटी में जलोढ़क का निक्षेप।
• यह देश का घनी आबादी वाला और कृषि रूप से बहुत ही उत्पादक भौगोलिक भाग है।
• सुविधाओं में भिन्नता के अनुसार, उत्तरी मैदान को चार क्षेत्रों (उत्तर से दक्षिण तक) - भाबर, तराई, भांगर और खादर में विभाजित किया जा सकता है।
• भाबर ढलान के टूटने पर शिवालिक तलहटी के समानांतर 8-10 किमी के बीच एक संकीर्ण क्षेत्र है। नदी पर्वत से निकलने के बाद एक संकीर्ण क्षेत्र में कंकड़ जमा करती है। इस क्षेत्र में सभी धाराएं लुप्त हो जाती हैं।
• भाबर क्षेत्र के दक्षिण स्थित तराई क्षेत्र में, धाराएं और नदियां फिर से उभरती हैं और एक नम, दलदली और कीचड़ वाले क्षेत्र का निर्माण करती हैं, जो वन्यजीवन से परिपूर्ण सघन वन क्षेत्र के रूप में जाने जाते हैं।
• भांगर क्षेत्र तराई क्षेत्र के दक्षिण में स्थित है। यह क्षेत्र पुराने जलोढ़क द्वारा निर्मित होता है। इस क्षेत्र की मिट्टी में स्थानीय रूप से कंकड़ के रूप में जाना जाने वाला खटीमय (calcareous) जमा होता है।
• नए जलोढ़क वाले क्षेत्र को खादर के रूप में जाना जाता है। ये लगभग हर साल नवीनीकृत होते हैं और इतने उपजाऊ होते हैं कि सघन कृषि के लिए आदर्श होते हैं।
• नदीय (Riverine) द्वीप समूह - ये वह द्वीप हैं जो नदियों के भ्रंश के कारण विशेष रूप से निचले स्तर पर मंद ढलान और नदियों की गति में परिणामी कमी के कारण बनते हैं। माजुली - ब्रह्मपुत्र में दुनिया का सबसे बड़ा आवासीय नदीय द्वीप है।
• सहायक नदियां - निचले जलमार्ग में नदियां तलछट के जमाव के कारण कई चैनलों में विभाजित हो जाती हैं इन्हें सहायक नदियां कहा जाता है।
• दोआब - वह क्षेत्र जो दो नदियों के संगम के पीछे स्थित होता है।
➤भारत में महत्वपूर्ण दर्रे
वायुमंडल गैसों की एक पर्त है जो गृह अथवा पर्याप्त द्रव्यमान के किसी पदार्थ निकाय को अपने गुरुत्व भार से चारों तरफ घेरे रखती है। आइए हम इस विषय को गहराई से समझते हैं
वायुमंडल
पृथ्वी को चारों ओर से घेरने वाली वायु के जाल को वायुमंडल कहते हैं।
वायुमंडल का विस्तार पृथ्वी सतह से 1000 कि.मी. की ऊंचाई तक है। परंतु वायुमंडल का कुल 99% द्रव्यमान मात्र 32 कि.मी. के अंदर ही पाया जाता है।
इसी कारण से वायुमंडल पृथ्वी के आकर्षण बल से बंधा रहता है।
वायुमंडल का संघटन
नाइट्रोजन – 78%
ऑक्सीजन – 21%
आर्गन – 0.93%
कार्बन डाइऑक्साइड – 0.03%
नियॉन – 0.0018%
हीलियम – 0.0005%
ओजोन – 0.0006%
हाइड्रोजन – 0.00005%
वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड कम मात्रा में पाई जाती है
यह वायु का एक महत्वपूर्ण घटक है क्योंकि इसमें ऊष्मा को अवशोषित करने की क्षमता होती है। अतः यह वायुमंडल को गर्म रखता है, और पृथ्वी की ऊष्मा का संतुलन बनाए रखता है।
धूल के कण सूर्यताप को रोकते और परावर्तित करते हैं
वायु में उपस्थित प्रदूषित कण न केवल अधिक मात्रा में सूर्यताप अवशोषित करते हैं बल्कि स्थलीय विकिरण की अधिक मात्रा को भी अवशोषित करते हैं।
वायुमंडल में उपस्थित धूल के कणों के कारण ही हमें सूर्योदय और सूर्यास्त के समय सूर्य लाल और नारंगी रंग का दिखाई पड़ता है।
वायुमंडल की पांच मुख्य पर्तें निम्नलिखित हैं –
क्षोभ मंडल
समताप मंडल
मध्य मंडल
तापमंडल
बाह्य मंडल
वायुमंडल की पर्तों का विस्तृत वर्णन-
1. क्षोभमंडल
यह वायुमंडल की पहली पर्त है। विषुवत रेखा पर इसका विस्तार 18 कि.मी. और ध्रुवों पर इसका विस्तार 8 कि.मी. है।
इस पर्त में ऊंचाई बढ़ने के साथ तापमान में गिरावट आती है। इसका कारण यह है कि ऊंचाई बढ़ने के साथ वायु का घनत्व घटता जाता है और इसलिए ऊष्मा कम अवशोषित होती है। इसमें वायुमंडल की 90% से अधिक गैसें मौजूद होती हैं।
चूंकि इस पर्त में अधिकांश जल वाष्प के बादल बनने के कारण, सभी वायुमंडलीय परिवर्तन क्षोभमंडल [(Troposhpere); Tropo = परिवर्तन)] में होते हैं।
वह ऊंचाई जहां पर तापमान का घटना बंद हो जाता है, ट्रोपोपॉज़ कहते हैं। यहां तापमान -58 डिग्री सेल्सियस तक हो सकता है।
2. समताप मंडल
यह वायुमंडल की दूसरी पर्त है। इसका विस्तार क्षोभसीमा से 50 कि.मी. ऊंचाई तक है।
इस पर्त में मौजूद ओजोन द्वारा सूर्य की पराबैंगनी किरणों के अवशोषण से तापमान बढ़ता है। तापमान धीरे-धीरे बढ़कर 4 डिग्री सेल्सियस हो जाता है।
यह पर्त बादलों और उससे जुड़े मौसमी प्रभावों से मुक्त होती है। इसलिए यह बड़े जेट प्लेन के लिए आदर्श उड़ान स्थिति प्रदान करती है।
3. मध्य मंडल
समताप मंडल के ऊपर मध्य मंडल है।
मध्य मंडल का विस्तार 80 कि.मी. तक है।
यहां तापमान फिर से गिरता है और गिरकर -90 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है।
इस पर्त के छोर को मध्यसीमा कहते हैं।
4. तापमंडल
इस पर्त का विस्तार 640 कि.मी. तक है।
इस पर्त में तापमान वृद्धि का कारण यहाँ उपस्थित गैस के अणु हैं जो सूर्य की X-किरणों और पराबैंगनी किरणों को अवशोषित करते है।
तापमंडल के विद्युत आवेशित गैस के अणु पृथ्वी से रेडियो तरंगों को अंतरिक्ष में भेजते हैं। इस प्रकार, यह पर्त लंबी दूरी के संवाद में सहायता करते हैं।
तापमंडल हमारी उल्का पिंडों और निर्जन उपग्रहों के पृथ्वी से टकराने से भी रक्षा करता है क्योंकि इसका उच्च तापनाम पृथ्वी सतह पर आने वाले सभी प्रकार के मलवों को जला देता है।
5. बाह्य मंडल
बाह्य मंडल का विस्तार ताप मंडल से 960 कि.मी. तक होता है।
यह धीरे-धीरे अंतग्रहीय अंतरिक्ष में घुल जाता है।
इस पर्त में तापमान 300 डिग्री से लेकर 1650 डिग्री सेल्सियस के बीच होता है।
इस पर्त में केवल ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, आर्गन और हीलियम होती है क्योंकि गुरुत्वाकर्षण के अभाव में गैस के अणु आसानी से अंतरिक्ष में उड़ जाते हैं।
विभाजन-
• भौतिक आकृतियों की भिन्नता के आधार पर उत्तरी मैदानों को चार भागों में विभाजित किया जा सकता है-
1. भाबर
2. तराई
3. बांगर
4. खादर
1. भाबर (Bhabar)
यह क्षेत्र शिवालिक के गिरिपद प्रवेश में सिन्धु से लेकर तीस्ता तक अविच्छिन्न रूप से 8 से 16 किमी. की चौड़ी पट्टी में विस्तृत है। ढाल में अचानक कमी आने से यहाँ नदियाँ तथा धरातलीय अपवाह व्यापक पैमाने पर कंकड, बजरी एवं गोलाश्म इत्यादि का निक्षेपण करते हैं, जिसे भाबर के नाम से जाना जाता है। उत्तर भारत में शिवालिक या उप हिमालयी क्षेत्र के समानांतर फैले समतल मैदान को भाबर कहा जाता है।
कंकड़-पत्थरों (बजरी) की अधिकता के कारण इसमें इतनी अधिक सरन्ध्रता (पारगम्यता) पायी जाती है कि यहाँ छोटी नदियाँ विलीन हो जाती हैं तथा उनमें शुष्क मार्ग शेष रह जाते हैं। भाबर मैदान पश्चिम में चौड़े और पूर्व में सँकरे हैं। यह भाग कृषि कार्यो के लिए उपयुक्त नहीं है।
2. तराई (Low Land)
भाबर के दक्षिण में यह 15-30 किमी. चौड़ी दलदली पेटी है, जहाँ नदियाँ धरातल पर पुनः प्रकट होती हैं तथा दलदली क्षेत्रों का निर्माण करती हैं।
तराई क्षेत्र का विस्तार वर्षा की अधिकता के कारण पश्चिम की तुलना में पूर्व में अधिक पाया जाता है। इस प्रदेश में अत्यधिक नमी, जल उपलब्धता, सघन वन तथा जैव विविधता पायी जाती है। वनों के स्थान पर अन्य भूमि उपयोगों के विस्तार, विषेश कर कृषि से यहाँ पर पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं।
3. बांगर (Bangar)
उत्तरी मैदानों का सबसे विशालतम भाग पुरानी जलोढ़ मृदा से बना है, जो नदियों के बाढ़ वाले मैदान के ऊपर स्थित है तथा वेदिका (Shrine) जैसी आकृति प्रदर्शित करता हैं। इस भाग को बांगर के नाम से जाना जाता हैं, जिसे स्थानीय भाषा में कंकड़ कहा जाता है।
ये क्षेत्र नदी की बाढ़ सीमा से ऊपर स्थित पुराने जलोढ़क चबूतरे हैं। इनकी ऊचाई कहीं-कहीं पर 30 मीटर तक है। यहाँ पर पाई जाने वाली काँप मृदा का रंग गहरा है। जिसमें अशुद्ध कैल्शियम कार्बोनेट की ग्रन्थियाँ पायी जाती हैं।
4. खादर (Khadar)
यह मैदान वह निचला भाग है, जहाँ नदियाँ प्रति वर्ष बाढ़ का जल फैलाती हैं एवं नवीन जलोढ़ परत का निर्माण करती हैं।
नवीन जलोढ़क क्षेत्र जो निचले मैदान हैं और जहाँ बाढ़ का पानी प्रति वर्ष पहुँचकर नई मिट्टी की परत जमा कर देता है, खादर कहलाता है। उर्वरता एवं जल उपलब्धता के कारण ये प्रदेश कृषि के लिए आदर्श माने जाते हैं।
दक्षिण पठार के पूर्वी और पश्चिमी किनारे पर तटीय मैदानों का विकास हुआ है। पश्चिम में यह मैदान संकीर्ण एवं कटा-छँटा है, जबकि पूर्व में चौड़ा एवं समतल है। कच्छ के रण का मैदान समुद्री निक्षेप के उमज्जन (Upliftment) से बना है। राजस्थान के पश्चिमी भाग में एक बड़ा शुष्क प्रदेश है, जिसे विशाल भारतीय मरुस्थल या राजस्थान का मरुस्थल या थार मरुस्थल कहा जाता है। लगभग 1,75,000 वर्ग किमी. क्षेत्र पर फैले और औसतन 300 किमी. की चौड़ाई वाले इस क्षेत्र का विस्तार लगभग 640 किमी. तक फैला हुआ है।
थार मरुस्थल अरावली पहाड़ियों के उत्तरी-पश्चिमी किनारे पर स्थित है। यह बालू के टिब्बों से ढका एक तरंगित मैदान (Ripple Ground) है।
यहाँ पर वार्षिक वर्षा 15 सेमी. से भी कम होती है, जिसके परिणामस्वरूप यह एक शुष्क और वनस्पति रहित क्षेत्र है। वर्षा ऋतु में यहाँ कुछ सरिताओं का उद्भव होता है जो समुद्र तट तक नहीं पहुँच पाती हैं क्योंकि इनमें पर्याप्त जल की कमी होती है तथा वर्षा काल के पश्चात् ये नदियाँ सरिताएँ विलीन हो जाती हैं।
लूनी नदी (495 किमी.) इस क्षेत्र की सबसे बड़ी नदी है। यह भारत में अंतः स्थलीय प्रवाह की सबसे लम्बी नदी है। यह नदी अजमेर के दक्षिण पश्चिम में अरावली की पहाड़ियों से निकलती है। यह अर्द्ध शुष्क मरूस्थलीय प्रदेश से प्रवाहित होती हुई कच्छ के रण के दलदली क्षेत्र में विलुप्त हो जाती है। सरसुती, बुंदी, सुकरी तथा जवाई इसकी सहायक नदियाँ है।
मेसोजोइक काल में यह क्षेत्र समुद्र का हिस्सा था। यहाँ की प्रमुख स्थलाकृतियाँ स्थानांतरी रेतीले टीले, छत्रक चट्टानें और मरूउद्यान (दक्षिणी भाग में) के रूप में मिलती हैं। बरखान (अर्द्ध चन्द्राकार बालू का टीला) का विस्तार बहुत अधिक क्षेत्र पर हुआ है। लेकिन लम्बवत टीले भारत-पाकिस्तान सीमा के समीप प्रमुखता से पाये जाते हैं। जैसलमेर (राजस्थान) में बरखान के समूह देखे जाते हैं।
ढाल के आधार पर इस मरुस्थल को दो भागों में बाँटा जा सकता है- सिंध की ओर ढाल वाला उत्तरी भाग और कच्छ के रण की ओर ढाल वाला दक्षिणी भाग।
यह अंतः स्थलीय अपवाह का उदाहरण है, जहाँ नदियाँ झील या प्लाया में मिल जाती हैं। इन प्लाया (झीलों) का जल खारा होता है, जिससे नमक बनाया जाता है।
तटीय मैदान (Coastal Plains)
प्रायद्वीपीय पठार (दक्षिण के पठार) के दोनों किनारों (पूर्वी एवं पश्चिमी किनारों) पर संकीर्ण तटीय मैदानों का विस्तार है। पश्चिम में यह मैदान संकीर्ण एवं कटा-छँटा है जबकि पूर्व में चौड़ा एवं समतल है। इस मैदान का निर्माण समुद्री तरगों द्वारा अपरदन व निक्षेपण या पठारी नदियों के द्वारा बहाकर लाये गये अवसादों से हुआ है।
यह पश्चिम में अरब सागर से लेकर पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक विस्तृत है। भारत की तट रेखा लगभग 61,00 किमी. लम्बी है।
स्थिति और सक्रिय भू-आकृतिक प्रक्रियाओं के आधार पर तटीय मैदानों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-
1. पश्चिमी तटीय मैदान (Western Coastal Plain)
2. पूर्वी तटीय मैदान। (Eastern Coastal Plain)
पश्चिमी तटीय मैदान (Western Coastal Plains)
पश्चिमी तटीय मैदान पश्चिमी घाट तथा अरब सागर के मध्य स्थित एक संकीर्ण मैदान है जो उत्तर में कच्छ के तट (गुजरात) से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी (केप कमोरिन) तक अरब सागर के साथ-साथ विस्तृत है।
गुजरात के मैदान को छोड़कर यह मैदान पूर्वी तटीय मैदान से कम चौड़ा है। इस मैदान की औसत चौड़ाई 65 किमी. एवं पश्चिम से पूर्व 10-80 किमी. है। इसकी अधिकतम चौड़ाई गुजरात में नर्मदा एवं तापी के मुहाने के समीप (80 किमी.) है।
पश्चिमी तटीय मैदान जलमग्न तटीय मैदानों के उदाहरण हैं। ऐसा विश्वास है कि, पौराणिक शहर द्वारका, किसी समय में पश्चिमी तट की मुख्य भूमि पर स्थित था, जो अब पानी में डूबा हुआ है।
जलमग्न होने के कारण पश्चिमी तटीय मैदान एक संकीर्ण पट्टी मात्र है और पत्तनों एवं बंदरगाहों के विकास के लिए प्राकृतिक परिस्थितियाँ प्रदान करता है। उत्तर में गुजरात तट से लेकर दक्षिण में केरल तट तक पश्चिमी तटीय मैदान को चार भागों में बाँटा जा सकता है-
1. गुजरात का मैदान - गुजरात के कच्छ के रण से काठियावाड़ (गुजरात का तटवर्ती भाग), कच्छ के रण का मैदान समुद्री निक्षेपों में उमज्जन (Upliftment) से बना है।
2. कोंकण तट - उत्तर में दमन से लेकर दक्षिण में गोवा तक 530 किमी. लम्बा एवं 35-50 किमी. चौड़ा है।
3. कर्नाटक या कन्नड़ तट - कर्नाटक तटीय मैदान 525 किमी. लम्बा एवं 8-24 किमी. चौड़ा है जो उत्तर में गोवा से दक्षिण में मंगलूरु (कर्नाटक) तक का तटीय भाग है।
4. मालाबार तट - उत्तर में मंगलुरु (कर्नाटक) से दक्षिण में - कन्याकुमारी (तमिलनाडु) तक के तटीय भाग। मालाबार तट 550 किमी. लम्बा एवं 20 से 100 किमी चौड़ा है। इस तटीय भाग में अनेक लंबे और सँकरे पश्चजल (Back Water) पाये जाते हैं जिन्हें केरल में कयाल (एक प्रकार की लैगून) कहा जाता है।
180 किमी. से भी अधिक लम्बी बेम्बनाड झील ऐसा ही एक अनूप है जिस पर कोच्चि बंदरगाह स्थित है।
कयाल (Back Waters) मालाबार तट की विशेष स्थलाकृति है, जिसे मछली पकड़ने और अंतःस्थलीय नौकायन के लिए प्रयोग किया जाता है।
पश्चिमी तटीय मैदान में बहने वाली अधिकतर नदियाँ पश्चिमी घाट पर्वत के पश्चिमी ढाल से निकलती हैं। ये नदियाँ छोटी व तीव्रगामी हैं। इसलिए इन नदियों के द्वारा मिट्टी का जमाव अधिक नहीं हो पाता। इनमें से अधिकतर नदियाँ अपने मुहाने पर डेल्टा न बनाकर ज्वारनदमुख (एश्चुअरी) का निर्माण करती हैं।
इसके दक्षिण भाग में कई लैगून पाए जाते हैं, न्यूमंगलुरु और कोच्चि के बंदरगाह ऐसी ही लैगून पर स्थित हैं। यहाँ पर कुछ अवशिष्ट मैदानों का भी निर्माण हुआ है जिनमें सौराष्ट्र और कच्छ का मैदान मुख्य हैं।
यहाँ पर स्थित प्राकृतिक बंदरगाहों में कांडला, मझगाँव, जवाहर लाल नेहरू (न्हावा शेवा), मुम्बई, मर्मागाओ, मंगलुरु और कोच्चि शामिल हैं।
पश्चिमी तटीय मैदान मध्य में संकीर्ण है, परंतु उत्तर और दक्षिण में चौड़ा हो जाता है। दक्षिणी गुजरात से लेकर मुंबई तक पश्चिमी तटीय मैदान अपेक्षाकृत चौड़ा है जो दक्षिण की ओर सँकरा होता जाता है।
पूर्वी तटीय मैदान (Eastern Costal Plains)
पूर्वी घाट एवं पूर्वी तट के बीच पूर्वी तटीय मैदान स्थित है जो ओडिशा एवं पश्चिम बंगाल की सीमा पर स्थित स्वर्णरेखा नदी से कन्याकुमारी तक फैला है। पूर्वी तटीय मैदान के उत्तरी भाग को उत्तरी सरकार, मध्य भाग को गोलकुण्डा तट तथा दक्षिणी भाग को कोरोमण्डल तट के नाम से जाना जाता है।
पश्चिमी तटीय मैदान की तुलना में पूर्वी तटीय मैदान अधिक चौड़ा और उभरा हुआ है। इसकी औसत चौड़ाई 120 कि.मी. है। इस मैदान में पूर्व की ओर बहने वाली और बंगाल की खाड़ी में गिरने वाली नदियों के द्वारा विस्तृत डेल्टा का निर्माण किया जाता है। उभरा तट होने के कारण यहाँ पत्तन और पोताश्रय कम हैं।
पूर्वी तटीय मैदान का निर्माण नदियों द्वारा तटवर्ती क्षेत्रों में जलोढ़ निक्षेपण का परिणाम है जहाँ विश्व के वृहद डेल्टा क्षेत्र स्थित हैं। इन डेल्टाओं का निर्माण महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों के द्वारा लाये गये अवसादों के निक्षेपण से हुआ है। इस मैदान में लैगून (झील) की अवस्थिति है जिसका निर्माण तट तथा रोधिका के बीच सागरीय जल के बन्द होने के कारण होता है।
इसी मैदान में चिल्का (ओडिशा) और पुलिकट (आंध्र प्रदेश एवं तमिलनाडु सीमा पर) दो बड़ी लैगून झीलें हैं।
चिल्का, महानदी डेल्टा के दक्षिण में स्थित है, जो 75 किमी. लम्बी है जबकि पुलीकट चेन्नई नगर के उत्तर में स्थित है। गोदावरी और कृष्णा नदियों के डेल्टाओं के मध्य में कोल्लेरू झील (आआंध्र प्रदेश) स्थित है। इस प्रकार कोल्लेरू झील एक डेल्टाई झील है। चिल्का भारत की सबसे बड़ी लैगून एवं खारे पानी की इरील है।
पूर्वी तट को वर्तमान में तीन लघु इकाईयों में विभक्त किया जाता है:-
(i) उत्कल मैदान - यह ओडिशा तट के सहारे 400 किमी. की लम्बाई में विस्तृत है। महानदी डेल्टा क्षेत्र में इसकी चौड़ाई 100 किमी. है।
(ii) आन्ध्र मैदान- इसका विस्तार बेरहमपुर से पुलीकट झील के बीच है। इसके निर्माण में कृष्णा एवं गोदावरी के डेल्टाओं का प्रमुख योगदान है।
(iii) तमिलनाडु मैदान - यह पुलीकट झील से कुमारी अंतरीप तक लगभग 675 किमी. लंबा एवं औसतन 100 किमी. चौड़ा है।
आंध्र प्रदेश और ओडिशा के तटीय भाग में महेन्द्रगिरि की पहाड़ियाँ स्थित हैं। भारत का औसत समुद्र तल चेन्नई तट से मापा जाता है।
द्वीप समूह (Group of Islands)
द्वीप स्थलखण्ड के ऐसे भाग होते हैं, जिनके चारों ओर जल का विस्तार पाया जाता है। यह महासागर, सागर, झील व नदी आदि में कहीं भी पाया जा सकता है। ये द्वीप, समुद्र में जलमग्न पवर्तों के भाग हैं।
भारत की समुद्री सीमा के अन्तर्गत 1,256 द्वीप हैं। ये मुख्यतः दो समूहों में हैं, बंगाल की खाड़ी एवं अरब सागर। इसके अतिरिक्त गंगा-सागर और महानदी के डेल्टा में अनेक द्वीप स्थित हैं। भारत और श्रीलंका के बीच भी कई छोटे-छोटे द्वीप हैं। इसी प्रकार, गुजरात, केरल, महाराष्ट्र और कर्नाटक के तट पर भी अनेक द्वीप स्थित हैं।
भारत में दो प्रमुख द्वीप समूह हैं-
(i) बंगाल की खाड़ी के द्वीप समूह
(ii) अरब सागर के द्वीप समूह
बंगाल की खाड़ी में स्थित द्वीप समूह
.बंगाल की खाड़ी के द्वीप समूह में लगभग 572 द्वीप हैं, इनमें से 36 द्वीपों पर आबादी पायी जाती है। ये द्वीप समूह 6°45 से 14" उत्तरी अक्षांश और 92° से 94 पूर्वी देशान्तर के मध्य स्थित हैं।
रीची द्वीप समूह और लबरीन्थ द्वीप, यहाँ के दो प्रमुख द्वीप समूह हैं।
बंगाल की खाड़ी में उत्तर से दक्षिण की तरफ फैले द्वीपों की श्रृंखला अण्डमान एवं निकोबार द्वीप समूह के नाम से जानी जाती है। इस द्वीप समूह को 10° चैनल दो भागों- उत्तर में अण्डमान द्वीप समूह एवं दक्षिण में निकोबार द्वीप समूह में बाँटता है।
यह माना जाता है कि, यह द्वीप समूह निमज्जित (डूबे हुए) पर्वत श्रेणियों के शिखर हैं। इन द्वीप समूहों में पाए जाने वाले पादप एवं जन्तुओं में बहुत अधिक विविधता पायी जाती है। ये द्वीप विषुवत वृत्त के समीप स्थित हैं एवं यहाँ की जलवायु विषुवतीय है। यह घने जंगलों से आच्छादित है।
बंगाल की खाड़ी के द्वीप म्यांमार की निमज्जित टर्शियरी पर्वतमाला अराकानयोमा की धरातलीय विशेषता के परिचायक हैं तथा समुद्र तल से 750 मीटर की ऊँचाई पर स्थित हैं। इस प्रकार ये द्वीप निमज्जित उच्च भूमि के अवशेष हैं।
अण्डमान एवं निकोबार द्वीप समूह
अण्डमान और निकोबार द्वीप समूह बंगाल की खाड़ी में म्यांमार के तट से कुछ दूरी पर स्थित हैं। इस द्वीप समूह की मुख्य पर्वत चोटियों में सैडल चोटी (उत्तरी अण्डमान-732 मीटर), माउंट डियोवोली (मध्य अण्डमान-515 मीटर), माउंट कोयबे (दक्षिणी अण्डमान-460 मीटर) एवं माउंट थुलियर (ग्रेट निकोबार- 642 मीटर) शामिल हैं।
अण्डमान द्वीप समूह के अन्तर्गत उत्तरी, मध्य, दक्षिणी तथा लघु अण्डमान द्वीप सम्मिलित हैं। पोर्ट ब्लेयर इस संपूर्ण संघ राज्य क्षेत्र की राजधानी है, जो दक्षिण अण्डमान, मध्य अण्डमान निकोबार द्वीप समूह का सबसे बड़ा द्वीप है। डंकन पास दक्षिणी अण्डमान और लघु अण्डमान के बीच स्थित है।
लघु अण्डमान का बैरेन द्वीप भारत ही नही बल्कि दक्षिण एशिया का एकमात्र सक्रिय ज्वालामुखी है, जो अण्डमान सागर में पोर्टब्लेयर से 135 किमी. की दूरी पर उत्तर-पूर्व में स्थित है। इस ज्वालामुखी में पहला उद्गार वर्ष 1787 में हुआ था। नारकोंडम सुषुप्त ज्वालामुखी भी लघु अण्डमान द्वीप पर ही स्थित है।
लैंडफॉल द्वीप अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह का सबसे उत्तरी द्वीप है, जिसे कोको जलमार्ग म्यांमार के कोको द्वीप से अलग करता है।
निकोबार द्वीप समूह (Nicobar Island)
10° चैनल जलमार्ग अण्डमान द्वीप समूह (लघु अण्डमान द्वीप) को निकोबार द्वीप समूह (कार निकोबार) से अलग करता है। निकोबार द्वीप समूह की स्थिति अण्डमान द्वीप समूह के दक्षिण में है।
निकोबार द्वीप समूह के अंतर्गत कार निकोबार, लघु निकोबार तथा वृहत् निकोबार द्वीप सम्मिलित हैं।
भारत का दक्षिणतम छोर वृहत निकोबार में स्थित इन्दिरा प्वांइट या पिग्मेलियन प्वाइंट या पारसन प्वांइट है। दिसम्बर 2004 में आयी सुनामी में यह पूर्णतः डूब गया था किन्तु, फिर यह अपनी पूर्व स्थिति में आ गया है। निकोबार द्वीप समूह की सर्वोच्च चोटी माउण्ट थुलियर (642 मी.) है।
सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के कारण इन द्वीपों में वायु सेना और नौ सेना के अड्डे हैं। सात देशों बांग्लादेश, म्यांमार, थाइलैण्ड, मलेशिया, सिंगापुर, इण्डोनेशिया और श्रीलंका के सन्दर्भ में इस द्वीप समूह की महत्वपूर्ण स्थिति है।
बंगाल की खाड़ी में स्थित कुछ अन्य प्रमुख द्वीप
गंगा सागर द्वीप हुगली नदी के मुहाने पर स्थित है। यहाँ न्यू मूर द्वीप का निर्माण गंगा नदी के मुहाने पर मलबों के निक्षेप से हुआ है। यह अति नवीन द्वीप है। यह बांग्लादेश के अधिकार क्षेत्र में है
पम्बन द्वीप मन्नार की खाड़ी में भारत और श्रीलंका के मध्य स्थित है, जो एडम्स ब्रिज (रामसेतु) का भाग है। इसे रामेश्वरम द्वीप के नाम से भी जाना जाता है।
श्री हरिकोटा द्वीप आंध्र प्रदेश के तट पर पुलीकट झील के अग्रभाग में अवस्थित है। यहाँ भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) का उपग्रह प्रक्षेपण केन्द्र है।
व्हीलर द्वीप ओडिशा के तट पर ब्राह्मणी नदी के मुहाने पर स्थित है। यह द्वीप मिसाइल परीक्षण के कारण सदैव चर्चा में बना रहता है। वर्तमान में इस द्वीप का नाम अब्दुल कलाम द्वीप कर दिया गया है।
अरब सागर में स्थित द्वीप
अरब सागर के द्वीपों में लक्षद्वीप और मिनिकॉय द्वीप समूह शामिल हैं। पूरा द्वीप समूह प्रवाल निक्षेप से बना है और 9° चैनल द्वारा दो भागों में बँटा है।
लक्षद्वीप
केरल के मालाबार तट के पास अरब सागर में स्थित लक्षद्वीप समूह प्रवाल निक्षेपों से बना द्वीप है। पहले इस द्वीप को लकादीव, मिनिकॉय तथा अमीनदीव के नाम से जाना जाता था। 1973 ई. में इनका नाम लक्षद्वीप रखा गया।
यह द्वीप 8° से 12° उत्तरी अक्षांश और 71° से 74° पूर्वी देशान्तर के मध्य 32 वर्ग किमी. के छोटे से क्षेत्र में फैला है। ये केरल तट के पश्चिम में 280 किमी. से 480 किमी. दूर स्थित हैं।
कवारत्नी द्वीप लक्षद्वीप का प्रशासनिक मुख्यालय है। यह मिनिकॉय द्वीप से 9° चैनल द्वारा अलग होता है तथा मिनिकॉय 8° चैनल द्वारा मालदीव से अलग होता है। लक्षद्वीप के उत्तरी द्वीप समूह को अमीनी दीव और दक्षिणी द्वीप समूह को मिनिकाय कहते हैं।
लक्षद्वीप एवं मिनिकॉय द्वीपों के अन्तर्गत 36 द्वीप हैं और इनमें से 11 पर मानव अधिवास है। अरब सागर में स्थित सभी द्वीपों में मिनिकॉय सबसे बड़ा द्वीप है, जिसका क्षेत्रफल 4.5 वर्ग किमी. है।
लक्षद्वीप समूह 11° चैनल द्वारा दो भागों में विभाजित होता है- उत्तर में अमीनी द्वीप और दक्षिण में कन्नानोर द्वीप। इस द्वीप समूह पर तूफान निर्मित पुलिन पाये जाते हैं, जिसके पूर्वी समुद्र तट पर आबद्ध गुटिकाएँ, शिंगिल, गोलाश्मिकाएँ तथा गोलाश्म पाए जाते हैं।
अगाती लक्षद्वीप समूह का एक मात्र द्वीप है, जहाँ हवाई अड्डा है। पिटली द्वीप जहाँ मनुष्य का निवास नहीं है, यहाँ एक पक्षी अभयारण्य है।
लक्षद्वीप समूह के सभी द्वीपों पर मलयालम भाषा बोली जाती है। मिनिकाय द्वीप एकमात्र अपवाद है, जहाँ महल भाषा बोली जाती है। महल देवेही लिपी में लिखी जाती है, जो मूलतः मालदीव की भाषा है।
अरब सागर में स्थित कुछ अन्य प्रमुख द्वीप
साल्सेट द्वीप पर स्थित मुम्बई भारत का सबसे बड़ा बंदरगाह नगर है, जो महाराष्ट्र की राजधानी है। यह अरब सागर में स्थित है। एलीफैन्टा द्वीप मुम्बई स्थित गेट वे ऑफ इंडिया से 10 किमी. की दूरी पर स्थित है जो गुफा मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है।
वेलिंग्टन द्वीप केरल राज्य के कोच्चि शहर का भाग है। जो 12 किमी. लम्बा द्वीप है। नर्मदा तथा ताप्ती नदियों के मुहाने पर खादियावेट तथा अलियावेट मुख्य द्वीप हैं।
सर क्रीक 96 किमी. लम्बा एक जलीय दलदली क्षेत्र है, जो कच्छ के रण में स्थित है। यह भारत एवं पाकिस्तान के मध्य विवादित क्षेत्र है, जो भारत के गुजरात और पाकिस्तान के सिंध प्रांत को अलग करता है। मुख्य विवाद कच्छ और सिन्ध के बीच समुद्री सीमा के निर्धारण को लेकर है। इस क्षेत्र पर भारत का अधिकार है।
कोरी क्रीक (निवेशिका) एक ज्वारीय क्रीक है, जो कच्छ के रण में स्थित है। यह एक दलदली भूमि है, जो भारत और पाकिस्तान के बीच सीमा का निर्धारण करती है।
अपवाह तंत्र
भारत नदियों का देश है। भारत के आर्थिक विकास में नदियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। नदियाँ यहाँ आदिकाल से ही मानव के जीविकोपार्जन का साधन रही हैं।
भारत में 4,000 से भी अधिक छोटी-बड़ी नदियाँ हैं, जिन्हें 23 वृहद् एवं 200 लघु स्तरीय नदी द्रोणियों (River Basins) में विभाजित किया जा सकता है।
किसी नदी के रेखीय स्वरूप को प्रवाह रेखा (Drainage Line) कहते हैं। कई प्रवाह रेखाओं के योग को प्रवाह संजाल (Drainage Network) कहते हैं।
निश्चित वाहिकाओं (Channels) के माध्यम से हो रहे जलप्रवाह को अपवाह (Drainage) तथा इन वाहिकाओं के जाल को अपवाह तंत्र (Drainage System) कहा जाता है।
अपवाह तंत्र से तात्पर्य किसी क्षेत्र की जल प्रवाह प्रणाली से है अर्थात् किसी क्षेत्र के जल को कौन-सी नदियाँ बहाकर ले जाती हैं।
किसी क्षेत्र का अपवाह तंत्र वहाँ की भू-वैज्ञानिक समयावधिक चट्टानों की प्रकृति एवं संरचना, स्थलाकृति, ढाल, बहते जल की मात्रा एवं बहाव की अवधि पर निर्भर करता है।
एक नदी तंत्र (सहायक नदियों सहित) द्वारा अपवाहित क्षेत्र को अपवाह द्रोणी (Drainage Basin) कहते हैं और एक अपवाह द्रोणी को दूसरे से अलग करने वाली सीमा को जल विभाजक (Water-Divider) कहा जाता हैं।
बड़ी नदियों के जलग्रहण क्षेत्र को नदी द्रोणी (River Basin) जबकि छोटी नदियों व नालों द्वारा अपवाहित क्षेत्र को जल-संभर (Watershed) कहा जाता है। नदी द्रोणी का आकार बड़ा तथा जल-संभर का आकार छोटा होता है।
नदी अपना जल किसी विशेष दिशा में बहाकर समुद्र में मिलाती है, यह कई कारकों पर निर्भर करता है, जैसे भूतल का ढाल, भौतिक संरचना, जल प्रवाह की मात्रा एवं जल का वेग।
भारतीय अपवाह तंत्र का वर्गीकरण
(समुद्र में जल विसर्जन के आधार पर)
अरब सागरीय अपवाह तंत्र
बंगाल की खाड़ी का अपवाह तंत्र
कुल अपवाह क्षेत्र का लगभग 77 प्रतिशत भाग, जिसमें गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी, कृष्णा आदि नदियाँ शामिल हैं, बंगाल की खाड़ी में जल विसर्जित करती हैं, जबकि 23 प्रतिशत भाग जिसमें सिंधु, नर्मदा, तापी, माही व पेरियार नदियाँ शामिल हैं, अपना जल अरब सागर में गिराती हैं।
जल-संभर क्षेत्र के आकार के आधार पर भारतीय अपवाह द्रोणियों को तीन भागों में बाँटा गया है-
1. प्रमुख नदी द्रोणी: जिनका अपवाह क्षेत्र 20,000 वर्ग किमी. से अधिक है। इसमें 14 नदी द्रोणियाँ शामिल हैं, जैसे गंगा, ब्रह्मपुत्र, कृष्णा, तापी, नर्मदा, माही, पेन्नार, साबरमती, बराक आदि।
2. मध्यम नदी द्रोणी : जिनका अपवाह क्षेत्र 2,000 से 20,000 वर्ग किमी. के बीच है। इसमें 44 नदी द्रोणियाँ हैं, जैसे- कालिंदी, पेरियार, मेघना आदि।
3. लघु नदी द्रोणी जिनका अपवाह क्षेत्र 2,000 वर्ग किमी. से कम है। इसमें न्यून वर्षा के क्षेत्रों में बहने वाली बहुत-सी नदियाँ शामिल हैं।
सिंधु, सतलज, गंगा व ब्रह्मपुत्र जैसी अनेक नदियों का उद्गम स्रोत हिमालय पर्वत है।
प्रायद्वीपीय पठार की अधिकांश बड़ी नदियों का उद्गम स्थल पश्चिमी घाट है तथा ये नदियाँ बंगाल की खाड़ी में अपना जल विसर्जित करती हैं। नर्मदा और तापी जैसी दो बड़ी नदियाँ एवं अनेक छोटी नदियाँ इसके अपवाद के रूप में अपना जल, अरब सागर में विसर्जित करती हैं।
हिमालय - विश्व की सबसे ऊँची पर्वत श्रृंखला: हिमालय दक्षिण एशिया की विशाल पर्वत श्रृंखला है, जो भारत, पाकिस्तान, चीन, नेपाल, भूटान, अफ़गानिस्तान, और म्यांमार जैसे देशों को कवर करती है। यह 2,400 किलोमीटर से अधिक लंबी है और 200-300 किलोमीटर चौड़ी है।
जल निकास तंत्र: हिमालय न केवल पर्वतमाला के रूप में महत्वपूर्ण है, बल्कि इसकी नदियाँ दक्षिण एशिया के लिए जीवन रेखा का काम करती हैं।
महत्व: हिमालय से निकलने वाली नदियाँ महत्वपूर्ण जल संसाधन प्रदान करती हैं, जो खेती, सिंचाई, पेयजल, विद्युत उत्पादन, परिवहन, और कई अन्य उपयोगों के लिए महत्वपूर्ण है।
2. हिमालयी नदियों की उत्पत्ति और प्रकृति:
हिमालयी हिमनद: हिमालयी नदियों का मुख्य स्रोत हिमालयी हिमनद हैं। इन हिमनदों का निर्माण बारिश, बर्फ और ग्लेशियरों के पिघलने से होता है।
हिमनदों का पिघलना: गर्मियों में हिमनद पिघलते हैं, जिससे नदियों में पानी का स्तर बढ़ता है।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव: जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालयी हिमनद तेजी से पिघल रहे हैं, जो भविष्य में पानी की कमी का कारण बन सकता है।
मानसून का प्रभाव: मानसून के मौसम में हिमालय में भारी बारिश होती है, जो नदियों के पानी का स्तर बढ़ाती है। यह मानसून बारिश नदियों में बाढ़ का कारण भी बन सकती है।
तेज ढलान: हिमालय की ढलान बहुत तेज है, जिससे नदियाँ तेजी से बहती हैं, गहरे घाट और झरने बनाती हैं। यह तेज ढलान हिमालयी नदियों को जलविद्युत उत्पादन के लिए उपयुक्त बनाती है।
3. हिमालय की प्रमुख नदी प्रणालियाँ:
A. सिंधु नदी प्रणाली:
स्रोत: काराकोरम पर्वतमाला के के2 चोटी के पास, बाल्तोरो ग्लेशियर से निकलती है।
प्रवाह: पश्चिम की ओर बहती है, जो लद्दाख (भारत), जम्मू और कश्मीर (भारत/पाकिस्तान) से होकर बहती है और अंत में पाकिस्तान में प्रवेश करती है।
सहायक नदियाँ:
झेलम: कश्मीर के विशाल झीलों से निकलती है और सिंधु नदी में मिलती है।
स्रोत: वेरीनाग (जम्मू और कश्मीर)
प्रमुख शहर: श्रीनगर
महत्व: कश्मीर घाटी को पानी प्रदान करती है और श्रीनगर में एक महत्वपूर्ण परिवहन मार्ग है।
चिनाब: पिर पंजाल पर्वत श्रृंखला से निकलती है और सिंधु नदी में मिलती है।
स्रोत: भारत के हिमाचल प्रदेश में बारलाचा ला पास
प्रमुख शहर: जम्मू
महत्व: जम्मू और कश्मीर में सिंचाई और जलविद्युत उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण है।
रावी: धौलाधर पर्वत श्रृंखला से निकलती है और सिंधु नदी में मिलती है।
स्रोत: हिमाचल प्रदेश में रोहतांग पास
प्रमुख शहर: पठानकोट, जम्मू
महत्व: पंजाब में सिंचाई और जलविद्युत उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण है।
व्यास: पिर पंजाल पर्वत श्रृंखला से निकलती है और सतलज नदी में मिलती है।
स्रोत: हिमाचल प्रदेश में रोहतांग पास
प्रमुख शहर: मनाली, कुलू
महत्व: हिमाचल प्रदेश में सिंचाई और जलविद्युत उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण है।
सतलज: हिमालय की सबसे बड़ी सहायक नदी है, जो मानसरोवर झील से निकलती है और सिंधु नदी में मिलती है।
स्रोत: तिब्बत में मानसरोवर झील
प्रमुख शहर: शिमला, लुधियाना
महत्व: हिमाचल प्रदेश और पंजाब में सिंचाई और जलविद्युत उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण है।
महत्व: सिंधु नदी पाकिस्तान के लिए जीवन रेखा है, जिसका उपयोग सिंचाई, पेयजल, विद्युत उत्पादन और परिवहन के लिए किया जाता है।
B. गंगा नदी प्रणाली:
स्रोत: गंगोत्री ग्लेशियर (उत्तराखंड, भारत)।
प्रवाह: पूर्व की ओर बहती है, जो उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल से होकर बहती है और बंगाल की खाड़ी में गिरती है।
सहायक नदियाँ:
यमुना: यमुनोत्री ग्लेशियर से निकलती है और गंगा नदी में मिलती है।
स्रोत: यमुनोत्री ग्लेशियर (उत्तराखंड)
प्रमुख शहर: दिल्ली, आगरा
महत्व: उत्तर भारत में सिंचाई, पेयजल और परिवहन के लिए महत्वपूर्ण है।
घाघरा: हिमालय के नेपाल में निकलती है और गंगा नदी में मिलती है।
स्रोत: नेपाल के हिमालय
प्रमुख शहर: गोरखपुर, अयोध्या
महत्व: उत्तर प्रदेश में सिंचाई और परिवहन के लिए महत्वपूर्ण है।
गोमती: कुमाऊँ हिमालय से निकलती है और गंगा नदी में मिलती है।
स्रोत: कुमाऊँ हिमालय
प्रमुख शहर: लखनऊ
महत्व: उत्तर प्रदेश में सिंचाई और पेयजल के लिए महत्वपूर्ण है।
सोन: बिहार के पहाड़ों से निकलती है और गंगा नदी में मिलती है।
स्रोत: बिहार के पहाड़
प्रमुख शहर: पटना, वाराणसी
महत्व: बिहार में सिंचाई और परिवहन के लिए महत्वपूर्ण है।
कोसी: नेपाल के हिमालय से निकलती है और गंगा नदी में मिलती है।
स्रोत: नेपाल के हिमालय
प्रमुख शहर: बिहार में पटना
महत्व: बिहार में सिंचाई और परिवहन के लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन यह बाढ़ के लिए भी जानी जाती है।
महत्व: गंगा नदी भारत की सबसे पवित्र नदियों में से एक है और इसके किनारे अनेक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल स्थित हैं। यह नदी सिंचाई, पेयजल और परिवहन के लिए भी महत्वपूर्ण है।
C. ब्रह्मपुत्र नदी प्रणाली:
स्रोत: तिब्बत के चेमायुंगडुंग ग्लेशियर से निकलती है।
प्रवाह: पूर्व की ओर बहती है, जो तिब्बत (चीन), अरुणाचल प्रदेश (भारत), असम (भारत) से होकर बहती है और बांग्लादेश में प्रवेश करती है।
सहायक नदियाँ:
सुबनसिरी: अरुणाचल प्रदेश के हिमालय से निकलती है और ब्रह्मपुत्र नदी में मिलती है।
स्रोत: अरुणाचल प्रदेश के हिमालय
प्रमुख शहर: ईटानगर
महत्व: अरुणाचल प्रदेश में सिंचाई और जलविद्युत उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण है।
सियांग: अरुणाचल प्रदेश के हिमालय से निकलती है और ब्रह्मपुत्र नदी में मिलती है।
स्रोत: अरुणाचल प्रदेश के हिमालय
प्रमुख शहर: अरुणाचल प्रदेश में सियांग जिला
महत्व: अरुणाचल प्रदेश में सिंचाई और जलविद्युत उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण है।
दिबांग: अरुणाचल प्रदेश के हिमालय से निकलती है और ब्रह्मपुत्र नदी में मिलती है।
स्रोत: अरुणाचल प्रदेश के हिमालय
प्रमुख शहर: अरुणाचल प्रदेश में दिबांग जिला
महत्व: अरुणाचल प्रदेश में सिंचाई और जलविद्युत उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण है।
लोहित: अरुणाचल प्रदेश के हिमालय से निकलती है और ब्रह्मपुत्र नदी में मिलती है।
स्रोत: अरुणाचल प्रदेश के हिमालय
प्रमुख शहर: अरुणाचल प्रदेश में लोहित जिला
महत्व: अरुणाचल प्रदेश में सिंचाई और जलविद्युत उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण है।
महत्व: ब्रह्मपुत्र नदी असम और बांग्लादेश के लिए महत्वपूर्ण है, जिसका उपयोग सिंचाई, मत्स्य पालन, और परिवहन के लिए किया जाता है।
4. हिमालयी जल निकास तंत्र का महत्व:
जल संसाधन: हिमालयी नदियाँ दक्षिण एशिया की आबादी के लिए जीवन का आधार हैं। इनका उपयोग खेती, सिंचाई, पेयजल, उद्योग और परिवहन के लिए किया जाता है।
विद्युत उत्पादन: हिमालय की नदियों पर कई बांध बनाए गए हैं, जो विद्युत उत्पादन के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं।
जैव विविधता: हिमालय की नदियाँ अनेक जीवों का निवास स्थल हैं, जिसमें मछलियाँ, पक्षी, और अन्य जलीय जीव शामिल हैं।
सांस्कृतिक महत्व: हिमालय की नदियाँ दक्षिण एशिया की सभ्यताओं और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण भाग रही हैं। कई धार्मिक स्थल इन नदियों के किनारे स्थित हैं।
5. हिमालयी जल निकास तंत्र के सामने आने वाली चुनौतियाँ:
जलवायु परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालयी हिमनद पिघल रहे हैं, जिससे नदियों में पानी का स्तर कम हो रहा है। इससे भविष्य में पानी की कमी का खतरा बढ़ गया है।
प्रदूषण: हिमालय की नदियों में औद्योगिक और घरेलू कचरे का प्रदूषण भी एक बड़ी समस्या है, जिससे पानी की गुणवत्ता खराब हो रही है और जलीय जीवों को नुकसान हो रहा है।
बाढ़: मानसून के मौसम में हिमालयी नदियों में बाढ़ आ जाती है, जिससे मनुष्य और संपत्ति को नुकसान होता है।
बांधों का निर्माण: हिमालय की नदियों पर बांधों का निर्माण भी एक चुनौती है। बांधों से नदियों का प्रवाह बदल जाता है और पारिस्थितिक तंत्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
6. हिमालयी जल निकास तंत्र का संरक्षण और प्रबंधन:
संधारण: हिमालयी हिमनदों को संरक्षित करना महत्वपूर्ण है, ताकि नदियों में पानी का प्रवाह बना रहा जा सके। वनोन्मूलन को रोकना और पुनर्वनीकरण के कार्यक्रमों को बढ़ावा देना जरूरी है।
प्रदूषण नियंत्रण: हिमालय की नदियों में प्रदूषण को कम करने के लिए उपाय करने की जरूरत है। औद्योगिक और घरेलू कचरे का व्यवस्थापन करना और नदियों में कचरा डालने से रोकना जरूरी है।
बाढ़ प्रबंधन: बाढ़ से बचने के लिए प्रभावी बाढ़ प्रबंधन प्रणाली का विकास करना जरूरी है। नदियों के किनारे बांधों का निर्माण और बाढ़ रोधी ढाँचे बनाना जरूरी है।
जल संसाधनों का टिकाऊ प्रबंधन: हिमालयी जल संसाधनों का टिकाऊ प्रबंधन करना जरूरी है, ताकि भविष्य की पीढ़ियों के लिए पानी की उपलब्धता बनी रहे। सिंचाई प्रणालियों को आधुनिकीकरण करना और पानी का बर्बाद होने से रोकना जरूरी है।
7. निष्कर्ष:
हिमालयी जल निकास तंत्र दक्षिण एशिया के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसके संरक्षण और संधारण के लिए सावधानीपूर्वक कदम उठाने की जरूरत है। जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, और बाढ़ से बचने के लिए उपाय करने की जरूरत है। हिमालयी जल संसाधनों का टिकाऊ प्रबंधन करना जरूरी है, ताकि भविष्य की पीढ़ियों के लिए पानी की उपलब्धता बनी रहे।
1. परिचय:
प्रायद्वीपीय भारत: प्रायद्वीपीय भारत भारत के दक्षिण भाग को दर्शाता है जो त्रिकोण के आकार का है और दक्कन पठार के ऊपर स्थित है। यह भारत के कुल भूभाग का लगभग ४३% भाग है।
जल निकास प्रणाली: प्रायद्वीपीय भारत में बहने वाली नदियाँ प्रायद्वीपीय जल निकास प्रणाली का निर्माण करती हैं। ये नदियाँ दक्कन पठार से उत्पन्न होती हैं और तीन मुख्य दिशाओं में बहती हैं:
पूर्वी ढलान: बंगाल की खाड़ी की ओर बहने वाली नदियाँ जैसे गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी, तुलुबावदी, पेन्नार, और वाइनगंगा।
पश्चिमी ढलान: अरब सागर की ओर बहने वाली नदियाँ जैसे तापी, नर्मदा, और सावित्री।
अंदरूनी ढलान: दक्कन पठार के अंदरूनी भाग में बहने वाली नदियाँ जैसे लूनी और छोटी नदियाँ जो आंतरिक झीलों में गिरती हैं।
2. प्रायद्वीपीय नदियों की विशेषताएँ:
उत्पत्ति: प्रायद्वीपीय नदियाँ दक्कन पठार के ऊँचे भागों से उत्पन्न होती हैं और इसके ढलान पर बहती हैं।
ढलान: प्रायद्वीपीय नदियों का ढलान मंद है, जिससे इनका प्रवाह धीमा है।
घाटियाँ: प्रायद्वीपीय नदियाँ अपनी घाटियों को विभिन्न प्रकार की चट्टानों से काट कर बनाती हैं, जैसे ग्रेनाइट, बेसाल्ट, और नीस।
वर्षा: प्रायद्वीपीय नदियों को पोषित करने वाला मुख्य स्रोत मानसून बारिश है। इनका पानी का स्तर मानसून के मौसम में बढ़ता है और सूखे मौसम में कम होता है।
बाढ़: मानसून के दौरान प्रचुर बारिश के कारण प्रायद्वीपीय नदियों में बाढ़ आ जाती है।
महासागरों में प्रवेश: प्रायद्वीपीय नदियाँ अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में गिरती हैं।
3. प्रायद्वीपीय नदी प्रणालियाँ (विस्तृत विवरण):
A. गोदावरी नदी प्रणाली:
स्रोत: महाराष्ट्र में त्र्यंबकेश्वर पर्वत से निकलती है।
प्रवाह: पूर्व की ओर बहती है और बंगाल की खाड़ी में गिरती है।
प्रमुख शहर: नासिक, औरंगाबाद, नांदेड, राजमंड्री, काकीनाडा
सहायक नदियाँ:
पैनगंगा: महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र से निकलती है और गोदावरी में मिलती है।
वैनगंगा: महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र से निकलती है और गोदावरी में मिलती है।
वर्डा: महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र से निकलती है और गोदावरी में मिलती है।
इंद्रावती: छत्तीसगढ़ से निकलती है और गोदावरी में मिलती है।
प्राणाहीता: महाराष्ट्र और तेलंगाना से निकलती है और गोदावरी में मिलती है।
महत्व: गोदावरी नदी दक्षिण भारत की सबसे लंबी नदी है और इसका बहाव 1,465 किलोमीटर है। यह आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में सिंचाई और जलविद्युत उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण है। इसके किनारे कई पवित्र स्थल स्थित हैं जैसे त्र्यंबकेश्वर और रामेश्वरम।
B. कृष्णा नदी प्रणाली:
स्रोत: महाराष्ट्र में महाराष्ट्र पठार से निकलती है।
प्रवाह: पूर्व की ओर बहती है और बंगाल की खाड़ी में गिरती है।
प्रमुख शहर: पुणे, सोलापुर, हैदराबाद, विजयवाड़ा, मछलीपट्नम
सहायक नदियाँ:
तुंगभद्रा: कर्नाटक से निकलती है और कृष्णा में मिलती है।
भीमा: महाराष्ट्र से निकलती है और कृष्णा में मिलती है।
मालाप्रभा: कर्नाटक से निकलती है और कृष्णा में मिलती है।
घटप्रभा: कर्नाटक से निकलती है और कृष्णा में मिलती है।
वेनगंगा: महाराष्ट्र से निकलती है और कृष्णा में मिलती है।
महत्व: कृष्णा नदी आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, और कर्नाटक में सिंचाई और जलविद्युत उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण है। यह नदी पवित्र स्थल तिरुमला को पानी प्रदान करती है।
C. कावेरी नदी प्रणाली:
स्रोत: कर्नाटक में ब्रह्मगिरी पर्वत से निकलती है।
प्रवाह: पूर्व की ओर बहती है और बंगाल की खाड़ी में गिरती है।
प्रमुख शहर: बैंगलोर, मैसूर, त्रिचूर, तिरुचिरापल्ली
सहायक नदियाँ:
लोकपाबनी: कर्नाटक से निकलती है और कावेरी में मिलती है।
हेमावती: कर्नाटक से निकलती है और कावेरी में मिलती है।
महत्व: कावेरी नदी कर्नाटक, तमिलनाडु, और पुडुचेरी में सिंचाई और जलविद्युत उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण है। यह नदी पवित्र स्थल श्रीरंगम को पानी प्रदान करती है।
D. महानदी नदी प्रणाली:
स्रोत: छत्तीसगढ़ में सिहावा पर्वत से निकलती है।
प्रवाह: पूर्व की ओर बहती है और बंगाल की खाड़ी में गिरती है।
प्रमुख शहर: रायपुर, भिलाई, समबलापुर, कटक
सहायक नदियाँ:
जोंक: छत्तीसगढ़ से निकलती है और महानदी में मिलती है।
इंद्रावती: छत्तीसगढ़ से निकलती है और महानदी में मिलती है।
हाब: छत्तीसगढ़ से निकलती है और महानदी में मिलती है।
तलधी: ओडिशा से निकलती है और महानदी में मिलती है।
महत्व: महानदी नदी छत्तीसगढ़, ओडिशा, और झारखंड में सिंचाई और जलविद्युत उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण है।
E. नर्मदा नदी प्रणाली:
स्रोत: मध्य प्रदेश में अमरकंटक पर्वत से निकलती है।
प्रवाह: पश्चिम की ओर बहती है और अरब सागर में गिरती है।
प्रमुख शहर: जबलपुर, इंदौर, भोपाल, बरुच
सहायक नदियाँ:
हिरण: मध्य प्रदेश से निकलती है और नर्मदा में मिलती है।
बरना: मध्य प्रदेश से निकलती है और नर्मदा में मिलती है।
श्रावती: मध्य प्रदेश से निकलती है और नर्मदा में मिलती है।
महत्व: नर्मदा नदी मध्य प्रदेश, गुजरात, और महाराष्ट्र में सिंचाई और जलविद्युत उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण है।
F. तापी नदी प्रणाली:
स्रोत: महाराष्ट्र में सतपुड़ा पर्वत से निकलती है।
प्रवाह: पश्चिम की ओर बहती है और अरब सागर में गिरती है।
प्रमुख शहर: सूरत, बड़ौदा, नर्मदा जिला
सहायक नदियाँ:
पुरना: महाराष्ट्र से निकलती है और तापी में मिलती है।
गिरना: महाराष्ट्र से निकलती है और तापी में मिलती है।
वाइनगंगा: महाराष्ट्र से निकलती है और तापी में मिलती है।
महत्व: तापी नदी महाराष्ट्र और गुजरात में सिंचाई और जलविद्युत उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण है। यह नदी गुजरात में एक महत्वपूर्ण परिवहन मार्ग भी है।
G. पेन्नार नदी:
स्रोत: कर्नाटक में नंदी दुर्ग पहाड़ों से निकलती है।
प्रवाह: पूर्व की ओर बहती है और बंगाल की खाड़ी में गिरती है।
प्रमुख शहर: बैंगलोर, अनंतपुर, नेल्लोर
महत्व: आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में सिंचाई के लिए महत्वपूर्ण है।
H. तुलुबावदी नदी:
स्रोत: कर्नाटक में पश्चिमी घाट से निकलती है।
प्रवाह: पूर्व की ओर बहती है और बंगाल की खाड़ी में गिरती है।
प्रमुख शहर: कर्नाटक में मंगलौर
महत्व: कर्नाटक में सिंचाई और जलविद्युत उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण है।
I. लूनी नदी:
स्रोत: राजस्थान में अरावली पर्वत श्रृंखला से निकलती है।
प्रवाह: पश्चिम की ओर बहती है और राजस्थान में रन ऑफ कच्छ में गिरती है।
प्रमुख शहर: जोधपुर, पाल
महत्व: राजस्थान में सिंचाई के लिए महत्वपूर्ण है।
5. प्रायद्वीपीय जल निकास तंत्र का महत्व:
जल संसाधन: प्रायद्वीपीय नदियाँ भारत के दक्षिण भाग में जल संसाधनों का एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं।
सिंचाई: ये नदियाँ अपनी घाटियों में सिंचाई के लिए पानी प्रदान करती हैं, जो खेती के लिए महत्वपूर्ण है।
जलविद्युत उत्पादन: प्रायद्वीपीय नदियों पर कई बांध बनाए गए हैं, जो विद्युत उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण हैं।
जैव विविधता: प्रायद्वीपीय नदियाँ अनेक जीवों का निवास स्थल हैं, जिसमें मछलियाँ, पक्षी, और अन्य जलीय जीव शामिल हैं।
6. प्रायद्वीपीय जल निकास तंत्र के सामने आने वाली चुनौतियाँ:
सूखा: सूखे के मौसम में प्रायद्वीपीय नदियों में पानी का स्तर कम हो जाता है। इससे सिंचाई और पेयजल की समस्या होती है।
बाढ़: मानसून के मौसम में प्रायद्वीपीय नदियों में बाढ़ आ जाती है, जिससे मनुष्य और संपत्ति को नुकसान होता है।
प्रदूषण: प्रायद्वीपीय नदियों में औद्योगिक और घरेलू कचरे का प्रदूषण भी एक बड़ी समस्या है, जिससे पानी की गुणवत्ता खराब हो रही है और जलीय जीवों को नुकसान हो रहा है।
बांधों का निर्माण: प्रायद्वीपीय नदियों पर बांधों का निर्माण भी एक चुनौती है। बांधों से नदियों का प्रवाह बदल जाता है और पारिस्थितिक तंत्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
7. प्रायद्वीपीय जल निकास तंत्र का संरक्षण और प्रबंधन:
सूखा प्रबंधन: सूखे के मौसम में पानी की कमी से बचने के लिए उपाय करने की जरूरत है। जल संरक्षण का प्रचार करना और जल संसाधनों का टिकाऊ प्रबंधन करना जरूरी है।
बाढ़ प्रबंधन: बाढ़ से बचने के लिए प्रभावी बाढ़ प्रबंधन प्रणाली का विकास करना जरूरी है। नदियों के किनारे बांधों का निर्माण और बाढ़ रोधी ढाँचे बनाना जरूरी है।
प्रदूषण नियंत्रण: प्रायद्वीपीय नदियों में प्रदूषण को कम करने के लिए उपाय करने की जरूरत है। औद्योगिक और घरेलू कचरे का व्यवस्थापन करना और नदियों में कचरा डालने से रोकना जरूरी है।
बांधों का टिकाऊ प्रबंधन: प्रायद्वीपीय नदियों पर बांधों का टिकाऊ प्रबंधन करना जरूरी है, ताकि पारिस्थितिक तंत्र पर नकारात्मक प्रभाव कम हो।
8. निष्कर्ष:
प्रायद्वीपीय भारत की जल निकास प्रणाली भारत की अर्थव्यवस्था और जनजीवन के लिए महत्वपूर्ण है। इसके संरक्षण और संधारण के लिए सावधानीपूर्वक कदम उठाने की जरूरत है। सूखा, बाढ़, और प्रदूषण से बचने के लिए उपाय करने की जरूरत है। प्रायद्वीपीय जल संसाधनों का टिकाऊ प्रबंधन करना जरूरी है, ताकि भविष्य की पीढ़ियों के लिए पानी की उपलब्धता बनी रहे।
"नदी प्रवाह प्रवृति" नदियों के जल प्रवाह के व्यवहार और समय के साथ उसके परिवर्तन का वर्णन करती है। यह जल संसाधन प्रबंधन, जलविद्युत उत्पादन, बाढ़ नियंत्रण और पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
भारत की प्रमुख नदियों की प्रवाह प्रवृत्ति के बारे में:
1. गंगा नदी:
प्रवाह का पैटर्न: गंगा नदी का प्रवाह वर्षा पर बहुत अधिक निर्भर करता है। मानसून के मौसम (जून-सितंबर) में, हिमालयी क्षेत्रों में भारी वर्षा से गंगा नदी में जल स्तर तेजी से बढ़ जाता है। बाकी समय में, प्रवाह कम रहता है, लेकिन फिर भी महत्वपूर्ण रहता है।
प्रवाह की मात्रा: गंगा नदी का प्रवाह वर्षा के आधार पर काफी भिन्न होता है, लेकिन औसतन लगभग 12,000 घन मीटर प्रति सेकंड है।
प्रवाह की प्रवृति: पिछले कुछ दशकों में, गंगा नदी के प्रवाह में कुछ कमी देखी गई है। इसके पीछे कारण जलवायु परिवर्तन, बांध निर्माण, जल संसाधन निष्कर्षण और बढ़ती जनसंख्या हैं।
महत्व: गंगा नदी भारत के सबसे महत्वपूर्ण नदी तंत्रों में से एक है, जो उत्तर भारत की अर्थव्यवस्था, कृषि, और मानव जीवन को प्रभावित करती है।
2. ब्रह्मपुत्र नदी:
प्रवाह का पैटर्न: ब्रह्मपुत्र नदी का प्रवाह गंगा नदी से अलग है। हिमालय के पहाड़ी क्षेत्रों में बर्फ पिघलने से नदी में प्रवाह बढ़ता है। मानसून के दौरान, भारी वर्षा से नदी में जल स्तर तेजी से बढ़ जाता है।
प्रवाह की मात्रा: ब्रह्मपुत्र नदी का औसत प्रवाह लगभग 20,000 घन मीटर प्रति सेकंड है, जो गंगा नदी से अधिक है।
प्रवाह की प्रवृति: ब्रह्मपुत्र नदी के प्रवाह में भी कुछ कमी देखी गई है, जिसके पीछे जलवायु परिवर्तन और जल संसाधन निष्कर्षण प्रमुख कारक हैं।
महत्व: ब्रह्मपुत्र नदी भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिए एक महत्वपूर्ण जल स्रोत है।
3. नर्मदा नदी:
प्रवाह का पैटर्न: नर्मदा नदी मध्य भारत के एक पठार से निकलती है और अपनी यात्रा में मुख्य रूप से मानसून की वर्षा पर निर्भर करती है। मानसून के दौरान, नदी में जल स्तर बढ़ जाता है और बाकी समय कम रहता है।
प्रवाह की मात्रा: नर्मदा नदी का औसत प्रवाह लगभग 2,500 घन मीटर प्रति सेकंड है।
प्रवाह की प्रवृति: नर्मदा नदी के प्रवाह में अभी तक महत्वपूर्ण बदलाव नहीं देखा गया है, लेकिन बढ़ते जलवायु परिवर्तन और जल संसाधन निष्कर्षण भविष्य में इसके प्रवाह को प्रभावित कर सकते हैं।
महत्व: नर्मदा नदी मध्य भारत के लिए एक महत्वपूर्ण जल स्रोत है, जो सिंचाई, पेयजल और जलविद्युत उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
4. गोदावरी नदी:
प्रवाह का पैटर्न: गोदावरी नदी का प्रवाह मानसून की वर्षा पर निर्भर करता है। मानसून के दौरान, नदी में जल स्तर तेजी से बढ़ जाता है और बाकी समय कम रहता है।
प्रवाह की मात्रा: गोदावरी नदी का औसत प्रवाह लगभग 5,000 घन मीटर प्रति सेकंड है।
प्रवाह की प्रवृति: गोदावरी नदी के प्रवाह में अभी तक महत्वपूर्ण बदलाव नहीं देखा गया है, लेकिन भविष्य में जलवायु परिवर्तन और मानव गतिविधियाँ इसके प्रवाह को प्रभावित कर सकती हैं।
महत्व: गोदावरी नदी दक्षिण भारत के लिए एक महत्वपूर्ण जल स्रोत है।
निष्कर्ष:
भारत की नदियों का प्रवाह उनके भौगोलिक स्थिति, वर्षा पैटर्न, मानवीय गतिविधियों और जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होता है। इन नदियों के प्रवाह की प्रवृति को समझना जल संसाधन प्रबंधन, बाढ़ नियंत्रण, जलविद्युत उत्पादन और पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है।
परिचय:
नदी प्रदूषण एक गंभीर समस्या है जो मानव स्वास्थ्य, पारिस्थितिकी तंत्र और अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती है। यह तब होता है जब हानिकारक पदार्थ जैसे औद्योगिक अपशिष्ट, घरेलू अपशिष्ट, कृषि रसायन और प्लास्टिक नदियों में मिल जाते हैं।
नदी प्रदूषण के मुख्य स्रोत:
औद्योगिक अपशिष्ट: कारखानों से निकलने वाले रसायन, धातु, तेल और अन्य हानिकारक पदार्थ नदियों में बहते हैं।
घरेलू अपशिष्ट: घरों से निकलने वाले अपशिष्ट जल, जिसमें मल, साबुन, डिटर्जेंट और अन्य घरेलू रसायन शामिल हैं, नदियों में प्रवेश करते हैं।
कृषि रसायन: खेती में इस्तेमाल होने वाले कीटनाशक, उर्वरक और अन्य रसायन नदियों में मिल जाते हैं।
प्लास्टिक: प्लास्टिक के कचरे, विशेष रूप से माइक्रोप्लास्टिक, नदियों में जमा हो जाते हैं और पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचाते हैं।
जल निकासी: अत्यधिक वर्षा के कारण शहरों और गांवों से नदियों में अपशिष्ट जल का प्रवाह होता है।
मल-जल: अनुपचारित मल-जल का सीधा नदियों में प्रवाह एक गंभीर समस्या है।
नदी प्रदूषण के प्रभाव:
मानव स्वास्थ्य: प्रदूषित पानी पीने से गंभीर बीमारियां जैसे हैजा, टाइफाइड, डायरिया, और लीवर की समस्याएँ हो सकती हैं।
पारिस्थितिकी तंत्र: प्रदूषण से जलीय जीवों की मृत्यु, पारिस्थितिकी तंत्र का असंतुलन, और जैव विविधता में कमी आती है।
अर्थव्यवस्था: नदी प्रदूषण से मछली पकड़ने का व्यवसाय, पर्यटन और जल संसाधन का उपयोग कम हो सकता है, जिससे अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुँचता है।
सौंदर्य और सांस्कृतिक मूल्य: प्रदूषित नदियाँ अपना सौंदर्य और सांस्कृतिक मूल्य खो देती हैं।
नदी प्रदूषण नियंत्रण के लिए उपाय:
औद्योगिक अपशिष्ट उपचार: कारखानों को अपशिष्ट जल उपचार संयंत्रों को स्थापित करना चाहिए और अपशिष्ट को नदियों में डालने से पहले उसका उपचार करना चाहिए।
घरेलू अपशिष्ट उपचार: घरेलू अपशिष्ट जल को उपचारित करने के लिए सीवरेज सिस्टम और उपचार संयंत्रों का विकास करना चाहिए।
कृषि रसायन का उपयोग कम करना: कृषि रसायनों के उपयोग को कम करने और जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए नीतियाँ बनानी चाहिए।
प्लास्टिक का उपयोग कम करना और प्रबंधन: प्लास्टिक के उपयोग को कम करने और इसके प्रबंधन के लिए प्रभावी कदम उठाने चाहिए।
नदी संरक्षण: नदियों को संरक्षित करने और प्रदूषण से बचाने के लिए सार्वजनिक जागरूकता बढ़ानी चाहिए।
निष्कर्ष:
नदी प्रदूषण एक गंभीर समस्या है जिसके लिए प्रभावी उपायों की आवश्यकता है। सरकार, उद्योग और नागरिक समाज को मिलकर काम करना चाहिए ताकि नदियों को प्रदूषण से बचाया जा सके और उनके पारिस्थितिकी तंत्र को संरक्षित किया जा सके।
जलप्रपात, जिसे झरना भी कहा जाता है, प्रकृति की एक अद्भुत रचना है जो नदियों के पानी के ऊंचाई से नीचे गिरने के कारण बनता है। यह एक खूबसूरत और शक्तिशाली दृश्य है जो प्रकृति की शक्ति और सुंदरता का प्रतीक है।
भारत में जलप्रपात:
भारत में कई खूबसूरत जलप्रपात हैं जो प्राकृतिक सुंदरता और पर्यटन के लिए प्रसिद्ध हैं। ये जलप्रपात विभिन्न राज्यों में स्थित हैं, जिनमें हिमालय, पश्चिमी घाट, पूर्वी घाट और डेक्कन पठार शामिल हैं।
कुछ प्रसिद्ध भारतीय जलप्रपात:
नाइग्रा जलप्रपात (छत्तीसगढ़): भारत का सबसे ऊँचा जलप्रपात, नाइग्रा जलप्रपात 340 मीटर (1,115 फीट) ऊँचा है और नदी का पानी एक खड़ी चट्टान से नीचे गिरता है, जिससे एक शानदार दृश्य बनता है।
जोश जलप्रपात (जम्मू और कश्मीर): पिर पंजाल पर्वत श्रृंखला में स्थित, जोश जलप्रपात अपनी खूबसूरती के लिए प्रसिद्ध है। पहाड़ों से बहने वाले पानी का तेजी से नीचे गिरना एक अद्भुत दृश्य प्रस्तुत करता है।
दुध्सागर जलप्रपात (गोवा): मंडोवी नदी पर स्थित, दुध्सागर जलप्रपात 310 मीटर (1,017 फीट) ऊँचा है। यह भारत के सबसे खूबसूरत जलप्रपातों में से एक है।
नोहकली जलप्रपात (मेघालय): मेघालय के नोहकाली जलप्रपात को "दुध्सागर जलप्रपात का छोटा भाई" कहा जाता है। यह जलप्रपात अपनी खूबसूरती के लिए प्रसिद्ध है।
कुन्टाला जलप्रपात (तेलंगाना): तेलंगाना राज्य में स्थित, कुन्टाला जलप्रपात एक शानदार प्राकृतिक स्थल है।
कैलाश जलप्रपात (छत्तीसगढ़): नाइग्रा जलप्रपात के पास स्थित, कैलाश जलप्रपात अपनी खूबसूरती के लिए प्रसिद्ध है।
बारू जलप्रपात (कर्नाटक): कर्नाटक राज्य में स्थित, बारू जलप्रपात अपने शानदार दृश्य के लिए प्रसिद्ध है।
जलप्रपात का महत्व:
पारिस्थितिकी तंत्र: भारतीय जलप्रपात नदियों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, पानी में ऑक्सीजन को घोलने में मदद करते हैं और विभिन्न जीवों के लिए एक आवास प्रदान करते हैं।
पर्यटन: भारतीय जलप्रपात प्रमुख पर्यटन स्थल हैं, जो दुनिया भर के लोगों को आकर्षित करते हैं। ये जलप्रपात प्राकृतिक सौंदर्य और मनोरंजन के लिए प्रसिद्ध हैं।
जलविद्युत उत्पादन: कुछ भारतीय जलप्रपातों का जलविद्युत ऊर्जा उत्पादन के लिए उपयोग किया जाता है।
निष्कर्ष:
भारत में जलप्रपात प्राकृतिक सौंदर्य, पारिस्थितिकी महत्व और पर्यटन के लिए महत्वपूर्ण हैं। इन खूबसूरत प्राकृतिक स्थलों को संरक्षित करना और उनके सौंदर्य और पारिस्थितिकी महत्व को बढ़ावा देना आवश्यक है।