भूमिका
ब्रिटिश हुकूमत और भारतीय शोषकों, जैसे जमींदार, राजा-रजवाड़े, कुलीन वर्ग आदि के खिलाफ 18वीं सदी से ही सामान्य नागरिक, कृषक तथा जनजातीय लोग अपना असंतोष प्रकट करने लगे थे। कृषक आंदोलनों का कारण ब्रिटिशों की भू-नीतियाँ एवं राजस्व की दमनात्मक वसूली आदि थी। यद्यपि अधिकांश विद्रोहों का पुलिस तथा सेना की मदद से दमन किया गया, परंतु भारतीय किसानों ने विभिन्न स्थानों पर अपना प्रतिरोध दर्ज कराया। जनजातीय विद्रोह का कारण उनके परंपरागत अधिकारों का हनन था। आदिवासियों का वन पर परंपरागत अधिकार था परंतु सरकार ने वन नीति के तहत उसे सरकारी संपत्ति घोषित कर दिया। आबकारी कर, नमक कर जैसे करों की दमनकारी वसूली भी इन विद्रोहों का कारण बनी। ईसाई धर्म प्रचारकों ने भारतीय संस्कृति पर प्रहार किया। फलतः समय-समय पर विभिन्न जन विद्रोह हुए।
प्रमुख जन विद्रोह
संन्यासी विद्रोह (बंगाल, 1770-1820)
(कुछ स्रोतों में 1763-1800)
• इस आंदोलन का प्रमुख कारण अत्यधिक शोषण, अकालों की निरंतरता, अंग्रेजों की लूटखसोट, आर्थिक मंदी व राजनैतिक अशांति एवं तात्कालिक कारण अंग्रेजों द्वारा हिंदू व मुस्लिम तीर्थ स्थानों की यात्रा पर लगाया गया प्रतिबंध था।
• संन्यासी प्रभाव क्षेत्र ढाका, रंगपुर तथा मैमनपुर थे।
• इस आंदोलन के नेतृत्वकर्ता मंजु शाह एवं देवी चौधरानी थे।
• 1770 के अकाल के बाद तो इतना तीव्रगामी विद्रोह किया गया कि 1773 में विद्रोहियों ने समानांतर सरकार बना ली।
• बंकिम चंद्र चटर्जी द्वारा लिखित उपन्यास 'आनंदमठ' का कथानक संन्यासी विद्रोह पर आधारित है।
• संन्यासी विद्रोह को दबाने का श्रेय 'वारेन हेस्टिंग्स' को दिया जाता है।
फकीर विद्रोह (बंगाल, 1776-77)
• यह एक धार्मिक विद्रोह था, जो घुमक्कड़ मुसलमान फकीरों के गुट द्वारा किया गया था।
• इस विद्रोह के नेता मजनूमशाह ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध विद्रोह करते हुए जमींदारों और किसानों से धन की वसूली की।
• मजनूमशाह की मृत्यु के पश्चात् आंदोलन की बागडोर चिरागअली शाह ने सँभाली। राजपूत, पठान एवं सेना के भूतपूर्व सैनिकों ने
आंदोलन को सहयोग प्रदान किया।
• भवानी पाठक व देवी चौधरानी जैसे हिंदू नेताओं ने इस आंदोलन की सहायता की।
• कालांतर में इस आंदोलन के समर्थकों ने हिंसक गतिविधियाँ प्रारंभ कर दीं, जो अंग्रेजी फैक्ट्रियों एवं सैनिक साजो-सामान पर केंद्रित थीं।
• 19वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों तक अंग्रेजी सेनाओं ने आंदोलन को कठोरतापूर्वक दवा दिया।
पाइक विद्रोह (1817-1825)
• यह विद्रोह उड़ीसा की 'पाइक' जाति द्वारा ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध एक सशस्त्र विद्रोह था। यह ओडिशा के खुर्दा जिले से शुरू हुआ।
• बक्शी जगबंधु विद्याधर के नेतृत्व में इस विद्रोह को अंजाम दिया गया जो कि खुर्दा के राजा के सैन्य कमांडर थे।
• पाइक जाति को परंपरागत रूप से खुर्दा के राजा द्वारा सैन्य गतिविधियों के लिये कर मुक्त भूमि का आवंटन किया जाता था। अंग्रेजों ने इस पर रोक लगा दी। अन्य कारणों में भारतीयों से अंग्रेजों द्वारा जबरन वसूली और उत्पीड़न भी शामिल रहा, जिससे यह आंदोलन आक्रोशित हो उठा।
• 1825 तक इस आंदोलन का पूर्णतः दमन कर दिया गया।
नोटः केंद्रीय बजट 2017-18 में इस विद्रोह के 200 साल पूरे होने पर एक भव्य समारोह मनाने की घोषणा की गई।
अहोम विद्रोह (1828-1833; असम)
• 1824 में वर्मा-युद्ध के बाद अंग्रेजों ने उत्तरी असम पर अधिकार कर लिया था, जिसे असम के अहोम वंश के उत्तराधिकारियों ने नापसंद किया और ईस्ट इंडिया कंपनी से असम छोड़कर चले जाने
को कहा, परिणामस्वरूप विद्रोह फूट पड़ा।
• 1828 से 1830 तक अहोमों ने गोमधर कुँवर के नेतृत्व में कंपनी के विरुद्ध विद्रोह किया, परंतु विद्रोह सफल न हो सका। अंग्रेज अधिकारियों ने गोमधर कुँवर को गिरफ्तार कर अंततः विद्रोह को दबा दिया।
• 1830 में अहोमों ने कुमार रूपचंद के नेतृत्व में दूसरे विद्रोह की योजना बनाई, परंतु इससे पहले विद्रोह होता, कंपनी ने शांति की नीति अपनाते हुए 1833 में उत्तरी असम के प्रदेश महाराज पुरंदर सिंह को दे दिये। इस तरह अहोम विद्रोह शांत हो गया।
फराजी फरेंसी विद्रोह (1838-1857: बंगाल)
फरती विद्रोह का सूत्रपात शरीयतुल्ला द्वारा बंगाल में किया गया। इसका प्रचार-प्रसार शरीयतुल्ला के पुत्र मोहम्मद मोहसिन (दाई मियाँ) ने किया।
फरैजी विद्रोही सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक परिवर्तन के समर्थक थे। साथ ही यह आंदोलन अंग्रेजों को बंगाल से बाहर निकालने एवं जमींदारों के बढ़ते अत्याचारों के विरुद्ध था।
फरेंजी उपद्रव 1838-57 तक चलते रहे तथा अंत में इस संप्रदाय के अनुयायी वहाबी आंदोलन में शामिल हो गए।
कूका आंदोलन (1840-72)
यह आंदोलन धार्मिक आंदोलन के रूप में प्रारंभ हुआ था। इसका
उद्देश्य सिख धर्म में प्रचलित बुराइयों व अंधविश्वासों को दूर करना था, परंतु अंग्रेजों का पंजाब पर अधिकार करने के पश्चात् यह आंदोलन राजनीतिक आंदोलन में परिवर्तित हो गया।
पश्चिमी पंजाय में कूका आंदोलन की शुरुआत भगत जवाहर मल (सियान साहिब) एवं उनके शिष्य बालक सिंह के नेतृत्व में हुई।
1863 में बालक सिंह की मृत्यु के बाद उनके शिष्य राम सिंह कूका के नेतृत्व में विद्रोह ने जोर पकड़ा।
1869 में राम सिंह कूका के नेतृत्व में फिरोजपुर में पहला विद्रोह हुआ। यह एक राजनीतिक विद्रोह था और अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकना इस विद्रोह का मूल उद्देश्य था।
1872 में राम सिंह कूका को गिरफ्तार कर रंगून भेज दिया गया जहाँ 1885 में इनकी मृत्यु हो गई। इस तरह इस आंदोलन पर नियंत्रण पा लिया गया।
कूका आंदोलनकारी खुद के हाथ से बने वस्त्र पहनते थे। इन आंदोलकारियों ने ब्रिटिश सामानों और स्कूलों का बहिष्कार किया। कह सकते हैं कि कृका आंदोलन में 'असहयोग' और 'सविनय अपज्ञा' आंदोलन जैसे तत्व मौजूद थे।
24 दिसंबर, 2014 को संचार व सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा कृका आंदोलनकारियों के बीरतापूर्ण कार्यों को सम्मान व पहचान देने हेतु एक संस्मरणीय स्टाम्प जारी किया गया।
नोटः बाबा राम सिंह कूका ने ही नामधारी आंदोलन (12 अप्रैल, 1857) चलाया था, जिसमें महद्यपान निषेध, गोमांस निषेध, वृक्ष पूजा और महिलाओं की समानता पर बल दिया गया था।
गडकरी विद्रोह (1844)
महाराष्ट्र के कोल्हापुर में यह आंदोलन हुआ। गडकरी लोग मराठों के किलों में कार्यरत वंशानुगत सैनिक थे।
इस विद्रोह का नेतृत्व दाजी कृष्ण पंडित ने किया।
गडकरियों ने 'समनगढ़' तथा भूदरगढ़' के किलों को जीत लिया था। सरकार को गडकरियों के विद्रोह को दबाने के लिये काफी संघर्ष करना पड़ा।
कित्तूर चेनम्मा विद्रोह (1824-29)
यह विद्रोह 1824-29 के दौरान कित्तूर (कर्नाटक) नामक स्थान पर हुआ। यहाँ के स्थानीय शासक राजा मल्लासर्जा की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने उसके उत्तराधिकारी को मान्यता नहीं दी। फलस्वरूप दिवंगत राजा की विधवा चैनम्मा ने विद्रोह कर दिया। 1824 के अंत तक अंग्रेजों ने इसे दबा दिया
1829 में रानी चेनम्मा ने गवर्नर रयन्ना के नेतृत्व में एक बार पुनः विद्रोह कर अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया गया। अंग्रेजों ने इस विद्रोह को भी दवा दिया और रानी चेनम्मा को कैद कर लिया।
नोटः
•वेलूथंपी का विद्रोह त्रावणकोर (केरल) के महाराज को अंग्रेजी शासकों द्वारा सहायक संधि करने के लिये विवश करने के प्रत्युत्तर में था।
जनजातीय विद्रोह
खोंड एवं सवार विद्रोह
खोड जनजाति के लोग उड़ीसा से लेकर बंगाल और मध्य भारत तक फैले थे। इन्होंने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विद्रोह किया।
खोड लोगों के विद्रोह का मुख्य कारण था सरकार द्वारा नए करों को लगाने का भय, उनके क्षेत्रों में जमींदारों और साहूकारों का प्रवेश, खोंडों में प्रचलित नर बलि प्रथा (मोरिया) पर सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाना आदि।
खोंड विद्रोह का नेतृत्व चक्र विसोई ने किया। 1855 में चक्र बिसोई लापता हो गया, जिसके बाद 1856 में राधाकृष्ण दंडसेना के नेतृत्व में सवार आंदोलन शुरू हुआ।
1857 में दंडसेना को फाँसी पर लटका दिये जाने से आंदोलन समाप्त हो गया।
कोल विद्रोह (1831-32)
कौल विद्रोह का यह क्षेत्र छोटा नागपुर पठार था। इस आंदोलन के प्रमुख नेता बुद्धो भगत थे।
इस विद्रोह का स्वरूप आर्थिक व राजनैतिक था। विद्रोह के पनपने का सर्वप्रमुख कारण उस इलाके के समींदार व ठेकेदारों द्वारा भूमि कर को अत्यधिक बढ़ाना था। साथ ही अंग्रेजों द्वारा लागू भू-राजस्व व्यवस्था और छोटा नागपुर के राजा द्वारा स्थानीय आदिवासियों को भूमि न देकर दिकुओं (बाहरी लोग) को उच्च लगान पर भूमि देने के कारण कबीले के सरदार व अन्य आदिवासी अपनी सत्ता और भूमि से वंचित हो गए और उन्होंने विद्रोह का रुख अपनाया।
छोटा नागपुर क्षेत्र में मुंडा, ओराव, हो, महाली आदि जनजातियाँ निवास करती हैं। इन्हें मैदानी लोग 'कोल' कहते हैं।
लूट-मार और तबाही इसके विरोध के प्रमुख ढंग थे। यह विद्रोह सिंहभूम, पलामू, हजारीबाग, मानभूम आदि क्षेत्रों में व्यापक रूप से फैला।
1831 में बुद्धो भगत के नेतृत्व में इन्होंने भीषण संघर्ष किया। इस संघर्ष में बुद्धो भगत सहित हजारों विद्रोही मारे गए। इसके बाद गंगा नारायण ने 1832 में इसका नेतृत्व किया। यह विद्रोह रुक-रुककर 1848 तक चलता रहा, बाद में इसे कुचल दिया गया।
हूल/संथाल विद्रोह (1855-56)
• इस विद्रोह के मुख्य नेता सिद्धो व कान्हू थे तथा इस विद्रोह का प्रमुख क्षेत्र दामन-ए-कोह/संथाल परगना (भागलपुर से राजमहल की पहाड़ियों का क्षेत्र) था। संथाल पूर्वी भारत के विभिन्न जिलों, जैसे- बीरभूम, बाँकुड़ा पलामू, छोटा नागपुर इत्यादि में फैले थे।
• संथाल विद्रोह का कारण अंग्रेजी उपनिवेशवाद, महाजनों द्वारा अत्यधिक ब्याज वसूली, पुलिस के भ्रष्टाचार, संथालों की गरीबी, अंग्रेजी अदालतों से न्याय न मिलना या देरी से मिलना और अपनी जमीनों से बेदखल किया जाना आदि रहे।
• इस विद्रोह का प्रसार इतनी तेज़ी से हुआ कि भागलपुर और राजमहल के क्षेत्र में कंपनी का शासन लगभग समाप्त हो गया।
• इस विद्रोह में बाहरी निचली जातियो के किसान भी संथालों का समर्थन और सहायता कर रहे थे।
• विद्रोह का स्वरूप इतना भयानक था कि विद्रोहियों ने डाक घर,
रेलवे स्टेशन और पुलिस स्टेशन को लूटकर आग लगा दी।
• अगस्त 1855 में सिद्धो और फरवरी 1856 में कान्हू पकड़ा गया।
• ब्रिटिश सरकार ने एक बड़ी सैन्य कार्रवाई के बाद 1856 में भागलपुर के कमिश्नर ब्राउन और मेजर जनरल लॉयड के नेतृत्व में संथाल
विद्रोह को क्रूरतापूर्वक दवा दिया।
• संथाल विद्रोह शांत हो जाने के बाद नवंबर 1856 में विधिवत् संथाल परगना जिला की स्थापना की गई और एशली एडेन को प्रथम जिलाधीश बनाया गया।
• अंग्रेज सरकार ने भूमि का स्वामित्व जनजातियों के लिये निर्धारित करते हुए उनके संरक्षण हेतु भूमि कानून 'संथान परगना काश्तकारी अधिनियम' बनाया, जिसके तहत किसी संथाल का गैर-संथाल को भूमि अंतरण करना गैर-कानूनी हो गया।
मुंडा विद्रोह (1899-1900)
• बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुआ यह विद्रोह छोटा नागपुर (वर्तमान झारखंड में स्थित) के क्षेत्र में इस अवधि का सर्वाधिक चर्चित आदिवासी विद्रोह था।
• मुंडाओं की पारंपरिक भूमि व्यवस्था खूँटकट्टी (एक तरह की सामूहिक खेती) का जमींदारी या व्यक्तिगत भू-स्वामित्व वाली भूमि व्यवस्था में परिवर्तन के विरुद्ध बिरसा मुंडा द्वारा विद्रोह की शुरुआत हुई.
लेकिन कालांतर में बिरसा मुंडा ने इसे धार्मिक राजनीतिक आंदोलन
का रूप प्रदान किया।
• बिरसा मुंडा विद्रोह को 'उल्गुलान विद्रोह' (महान हलचल) के रूप में भी जाना जाता है।
• सन् 1899 में क्रिसमस की पूर्व संध्या पर बिरसा ने मुंडा जनजाति का शासन फिर से स्थापित करने के लिये ठेकेदारों, जागीरदारों, राजाओं, हाकिमों के विरुद्ध विद्रोह का आह्वान कर दिया। ब्रिटिश
समर्थकों व मुंडा जनजाति के बीच भयंकर युद्ध हुआ।
• इस विद्रोह में महिलाओं की भूमिका भी उल्लेखनीय रही।
• फरवरी 1900 में बिरसा मुंडा को सिंहभूम में गिरफ्तार कर राँची जेल
में डाल दिया गया। जून 1900 में जेल में ही उनकी मृत्यु हो गई।
आंदोलन का परिणाम यह रहा कि आदिवासियों को कुछ रियायत मिली। खूँटकट्टी अधिकारों को मान्यता मिली और 'बेठ बेगारी' (जबरन बेगारी) पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
चुआर विद्रोह (1768)
• बढ़े भू-राजस्व, अकाल एवं अन्य आर्थिक संकटों के कारण मेदिनीपुर जिले (बंगाल) की आदिम जाति के चुआर लोगों ने अंग्रेजों प्रशासन के विरुद्ध 1768 में हथियार उठा लिया। इनका नेतृत्व दलभूम कैलापाल, ढोल्का तथा बाराभूम के राजाओं ने मिलकर किया था।
• ध्यातव्य है कि 1760 में संपूर्ण मेदिनीपुर जिले पर ब्रिटिश कंपनी का कब्ज़ा हो गया और 1765 में आस-पास के क्षेत्रों और महाल पर भी कब्जा हो गया था। 1768 में दलभूम के शासक जगन्नाथ दल ने अपने क्षेत्र को उजाड़ कर वीरान कर दिया ताकि कंपनी को इस क्षेत्र पर अधिकार करने पर कुछ लाभ प्राप्त न हो। चुआरों को संगठित कर उसने कंपनी के विरुद्ध बगावत कर दिया, बगावत का बिगुल बजते ही ढोल्का, कैलापाल तथा बाराभूम के राजाओं ने जगन्नाथ दल का साथ दिया। नवाबगंज और झरिया के राजाओं ने कंपनी को राजस्व न देने की घोषणा कर दी। लगभग तीन दशक तक कंपनी चुआर विद्रोह से अशांत रही, किंतु धीरे-धीरे यह विद्रोह शांत हो गया।
खासी विद्रोह (1827-33)
• बंगाल के पूरब में जयंतिया और पश्चिम में गारो पहाड़ियों (मेघालय) के बीच खासी लोग निवास करते थे।
• 1824 में ब्रह्मपुत्र नदी घाटी क्षेत्र पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। असम व सिलहट के बीच सैन्य मार्ग स्थापित करने हेतु एक सड़क बनाने की योजना बनाई गई। खासी मुखिया तीरत सिंह ने इसका विरोध किया तथा अन्य लोगों की सहायता से विद्रोह कर दिया।
• सन् 1833 में सैन्य कार्रवाई द्वारा इस विद्रोह को दबा दिया गया।
रमोसी विद्रोह (1822, 1825-26, 1839-41)
• अंग्रेजों के साम्राज्यवादी आर्थिक शोषण (अकाल और भूख की समस्या) से क्षुब्ध होकर पश्चिमी घाट (महाराष्ट्र) में रहने वाली आदिम जनजाति रमोसी ने उनके विरुद्ध विद्रोह शुरू किया। इस संघर्ष को नेतृत्व चित्तर सिंह एवं नरसिंह दत्तात्रेय पेतकर ने प्रदान किया।
• 1822 में चित्तर सिंह के नेतृत्व में रमोसियों ने सतारा के आसपास का क्षेत्र लूट लिया तथा फिर से 1825-26 में पड़े भयानक अकाल से प्रभावित रमोसियों ने उमाजी के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह प्रारंभ कर दिया।
• कालांतर में सितंबर 1839 में सतारा के राजा प्रताप सिंह को पदच्युत कर देने एवं उनके देश निष्कासन से पर विद्रोह पुनः भड़क उठा। 1840-41 में बड़े दंगे हुए। नरसिंह दत्तात्रेय पेतकर ने विद्रोह कर बादामी का दुर्ग जीतकर उस पर सतारा के राजा का ध्वज फहरा दिया। अंग्रेजी सेना ने बाद में विद्रोह को दबा दिया।
रंपा विद्रोह
• यह विद्रोह आंध्र प्रदेश के गोदावरी नदी के उत्तरी क्षेत्र रंपा में हुआ। आदिवासियों का यह विद्रोह साहूकारों द्वारा शोषण, वन कानूनों का उल्लंघन, सूदखोरी, बेगारी के विरुद्ध था।
• रंपा क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण विद्रोह 1922-24 के बीच अल्लूरी सीताराम राजू के नेतृत्व में लड़ा गया, जो गैर-आदिवासी नेता थे।
• सीताराम राजू को गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रेरणा प्राप्त हुई, लेकिन वे आदिवासी कल्याण हेतु हिंसा को आवश्यक समझते थे।
• विद्रोह में गुरिल्ला युद्ध की नीति का अनुसरण किया गया।
जॉन मार्शल, ‘सिंधु घाटी सभ्यता’ शब्द का प्रयोग करने वाले पहले विद्वान थे। सभ्यता का विकास 2500 ईसा पूर्व – 1750 ईसा पूर्व में हुआ।
भौगोलिक विस्तार
1.सीमा: उत्तर में जम्मू से दक्षिण में नर्मदा के मुहाने तक। पश्चिम में मकरान तट से पूर्व में मेरठ तक।
2. प्रमुख शहर
शहर नदी पुरातात्विक महत्व
हड़प्पा रावी 6 अनाजों की एक पंक्ति, देवी माता की मूर्ति
मोहनजोदड़ो सिंधु अनाज, बृहत स्नानागार, पशुपति महादेव की मूर्ति, दाढ़ी वाले आदमी की मूर्ति और एक नर्तकी की कांस्य की मूर्ति
लोथल भोगवा बंदरगाह शहर, दोहरी कब्रगाह, टेराकोटा की अश्व की मूर्तियां
चन्हूदड़ो सिंधु बिना दुर्ग का शहर
धौलावीरा लूनी तीन भागों में विभाजित शहर
शहर योजना एवं संरचना
शहर योजना की ग्रिड प्रणाली (शतरंज-बोर्ड)
ईंट की पंक्तियों वाले स्नानागार और सीढियों वाले कुओं के साथ आयताकार घर पाए गए हैं।
पकी ईंटों का इस्तेमाल
भूमिगत जल निकास व्यवस्था
किलाबंद दुर्ग
सिंधु घाटी सभ्यता की कृषि
सिन्डन- कपास- प्रमुख व्यापार- कपास का उत्पादन करने वाले प्रारंभिक लोग
चावल भूसी के साक्ष्य पाए गए
गेहूं और जौ की खेती प्रमुख रूप से पाई गई।
लकड़ी के खंभों का प्रयोग। उन्हें लोहे के औजारों की कोई जानकारी नहीं थी।
पशुपालन
बैल, भैंस, बकरी, भेंड़ और सुअर का पालन किया जाता था।
गधे और ऊंट का प्रयोग बोझा ढ़ोने में किया जाता था।
हाथी और गेंडे की जानकारी थी।
सुतकांगेडोर में घोड़ों के अवशेष और मोहनजोदड़ो और लोथल में घोड़े के साक्ष्य भी प्राप्त हुए हैं। लेकिन सभ्यता घोड़े पर केंद्रित नहीं थी।
प्रौद्योगिकी और शिल्पकला
कांस्य (तांबे और टिन) का व्यापक प्रयोग
पत्थर के औजारों का प्रचलन
कुम्हार द्वारा निर्मित पहियों का पूर्णत: उपयोग
कांस्य आभूषण, सोने के आभूषण, नाव-बनाने, ईंट बिछाने आदि अनेक व्यवसाय पाए गए थे।
व्यापार: सिंधु घाटी सभ्यता
अनाज, वज़न और माप, सील्स और यूनीफार्म स्क्रिप्ट की उपस्थिति व्यापार के महत्व का प्रतीक है।
वस्तु-विनिमय प्रणाली का व्यापक उपयोग।
लोथल, सुतकांगेडोर व्यापार के लिए प्रयोग किए जाने वाले बंदरगाह शहर थे।
व्यापार स्थल- अफगानिस्तान, ईरान और मध्य एशिया। मैसोपोटामिया सभ्यता से संपर्क के भी दर्शन होते हैं।
राजनीतिक संगठन
एक मजबूत केंद्रीय प्राधिकरण के माध्यम से प्राप्त सांस्कृतिक एकरूपता
किसी मंदिर या धार्मिक संरचना की उपस्थिति के साक्ष्य नहीं पाए गए। हड़प्पा संभवत: व्यापारिक वर्ग द्वारा शासित था।
हथियारों का प्रयोग के ज्यादा साक्ष्य नहीं मिले
धार्मिक प्रथाएं
देवी माता की टेराकोटा की मूर्ति
फल्लू और योनि पूजा
पशुपति महादेव की मूर्ति उनके पैरों के पास दो हिरण सहित हाथी, बाघ, गेंडे और एक सांड से घिरी हुई पाई
गई।
पेड़ और पशु पूजा
पीपल के पेड़ की पूजा के साक्ष्य मिले
गेंडे के रूप में एक सींग वाले यूनीकॉर्न और कूबड़ वाले सांड़ की पूजा सामान्य रूप से दिखती थी।
भूत और आत्माओं को भगाने के लिए ताबीज का प्रयोग
हड़प्पा की लिपि: सिंधु घाटी सभ्यता
हड़प्पा की लिपि पिक्टोग्राफिक (Pictographic) ज्ञात थी लेकिन अब तक इसकी व्याख्या नहीं की गई है।
ये पत्थरों पर मिलती है और केवल कुछ शब्द ही प्राप्त हुए हैं
हड़प्पा की लिपि भारतीय उप-महाद्वीप में सबसे पुरानी लिपि है
वजन एवं मापन
व्यापार और वाणिज्य आदि में निजी संपत्ति के खातों की जानकारी को रखने के लिए मानकीकृत भार और मापन की इकाई का उपयोग
तौल की इकाई 16 के गुणज में थी
हड़प्पा में मिट्टी के बर्तन
पेंड़ों और गोलों की आकृति सहित अच्छी तरह निर्मित मिट्टी के बर्तनों की तकनीक
लाल रंग के बर्तनों पर काले रंग के डिजाइन का चित्रण
सील्स
सील्स का प्रयोग व्यापार या पूजा के लिए किया जाता था।
सील्स पर भैंस, सांड़, बाघ आदि के चित्र पाए गए हैं
चित्र
एक नग्न महिला की कांस्य की प्रतिमा और दाढ़ी वाले आदमी की शैलखटी (steatite) प्रतिमा मिली है
टेराकोटा मूर्तियां
टेराकोटा- आग में पकी मिट्टी
खिलौनों या पूजा की वस्तुओं के रूप में उपयोग
हड़प्पा में पत्थर का भारी काम देखने को नहीं मिला, जो पत्थर के खराब कलात्मक कार्यों को दर्शाता है
उत्पत्ति, परिपक्वता और पतन
पुरानी-हड़प्पा बस्तियां- नीचे का सिंध प्रांत, बलूचिस्तान और कालीबंगन
परिपक्व हड़प्पा- 1900 ईसा पूर्व- 2500 ईसा पूर्व
सभ्यता के पतन के कारण
निकट के रेगिस्तान के विस्तार के कारण खारेपन में बढ़ोत्तरी के फलस्वरूप प्रजनन क्षमता में कमी
भूमि के उत्थान में अचानक गिरावट से बाढ़ का आना
भूकंपों ने सिंधु सभ्यता के दौरान परिवर्तन किए
हड़प्पा सभ्यता आर्यों के हमलों से नष्ट हो गई
बाद का शहरी चरण (Post-urban Phase) (1900 ईसा पूर्व- 1200 ईसा पूर्व)
उप- सिंधु सभ्यता (Sub-Indus Culture)
प्राथमिक ताम्र
बाद की हड़प्पा सभ्यता के विभिन्न चरणों में अहार सभ्यता, मालवा सभ्यता और जार्व (Jorwe) सभ्यता का विकास
इस काल में ज्ञान का एक मात्र स्रोत, ऋगवेद है। ऋगवेद विश्व का सबसे प्राचीन ग्रंथ है। इस वेद में 1028 भजनों को 10 मंडलों में विभाजित किया गया है। वैदिक साहित्य की रचना संस्कृत भाषा में की गई है। वेदों के साथ प्रारंभ करते हुए इसकी व्याख्या की गई थी, लिखा नहीं गया था। इन्हें मौखिक विधियों से पढ़ाया जाता था इसीलिए इन्हें श्रुति (सुना) और स्मृति (याद किया) कहा जाता था। लेकिन बाद में लिपियों के अविष्कार के बाद लेखन में इनका कम प्रयोग किया जाने लगा।
1. मूल स्थान, पहचान और भौगोलिक क्षेत्र
आर्यो को उनके समान भारतीय-यूरोपीय भाषा परिवारों के रूप में जाना जाता था, जो कि यूरेशियन क्षेत्रों में व्यापक रूप से प्रसारित थे।
मैक्स मुलर का तथ्य है कि वे मध्य एशिया/ मैदानी भाग में रह चुके थे, जिन्होंने फिर बाद में भारतीय उप-महाद्वीप पर आक्रमण किया था। भारतीय-यूरोपीय भाषा में कुछ निश्चित जानवरों और समान पौधों के नामों को सबूतों के रूप में रखा गया है।
गांव से संबंधित होने के कारण चरवाहा मुख्य व्यवसाय था जब कि कृषि कार्य द्वितीयक व्यवसाय के रूप में था। चरवाहे के जीवन में घोड़ा मुख्य भूमिका निभाता था, जिसे काले समुद्र के पास पाला जाता था।
पद –आर्य, ऋगवेद में 36 बार आया है जो आर्यों को सांस्कृतिक समुदाय के रूप में दर्शाता है।
आर्य 1500 ईसा पूर्व के दौरान भारत में आये और पूर्वी अफगानिस्तान, एन.डब्ल्यू.एफ.पी, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किनारों के पास बस गए। इस पूरे क्षेत्र को सात नदियों की धरती के नाम से जाना जाता था।
आर्यों का उनके स्वदेशी निवासी दस्युस से संघर्ष हुआ और आर्यों के प्रमुख जिन्होंने उनसे जबरदस्ती की उन्हें त्रसादस्यु कहा जाता था।
सप्त सिंधु को ऋगवेद में प्रदर्शित किया गया है। सिंधु, सर्वोत्कृष्ट नदी है, जब कि सरस्वती अथवा नदीतरण ऋगवेद की नदियों में से सर्वश्रेष्ठ है।
2. जनजातीय संघर्ष
आर्यो ने भारत और पश्चिमी एशिया में पहली बार घोड़ों से चलने वाले रथों की शुरूआत की। वे शस्त्रों और वर्मनों से पूर्णत: सुसज्जित रहते थे। जिसने सभी जगहों पर उनकी जीत की सफलता का मार्ग प्रशस्त किया।
आर्यों को पांच जनजातियों में बांटा गया, जिन्हें पंचजन कहा जाता था, वे आपस में लड़ते रहे।
दस राजाओं की युद्धभूमि अथवा दसराजन युद्ध थी, यह युद्ध भारत के राजा सुदास के खिलाफ पांच आर्यों और पांच गैर-आर्यों के बीच लड़ा गया था जिसमें भारत जीता था। वे बाद में पुरूस के साथ जुड़ गए और एक नईं जनजाति स्थापित की जिसका नाम कुरूस था जो गंगा के ऊपरी मैदानी भागों पर शासन करती थी।
3. भौतिक जीवन और अर्थव्यवस्था
उनकी सफलता का श्रेय रथों, घोड़ों और कांसे के बने बेहतर हथियारों के प्रयोग को जाता है। उन्होंने तीली वाले पहिये का अविष्कार भी किया।
उन्हें कृषि का अच्छा ज्ञान था जिसका प्रयोग मुख्य रूप से चारे का उत्पादन करने में किया जाता था। ऋगवेद में यह बताया गया है कि धार-फार, लकड़ी का बना होता था।
वे गायों के लिए युद्ध करते थे। गायों को ढूंढने को गविष्ठी कहा जाता था। उनके जीवन में जमीन महत्वपूर्ण नहीं थी।
आर्य शहरों में कभी नहीं रहे।
4. जनजातीय राजनीति
अवधि की सभाएं- सभा, समिति, विदाथा और गण
दो सबसे महत्वपूर्ण विधान सभाएं, सभा और समिति थी। सभा और विदाथा में महिलाएं भाग लेती थीं।
बली- लोगों के द्वारा दिया गया स्वैच्छिक योगदान
राजा ने एक सामान्य स्थायी सेना नहीं रखी थी। यहां पर सरकार की जनजातीय व्यवस्था थी जिसमें सैन्य तत्व एक तंतु समान थे। सैन्य कार्य विभिन्न जनजातियों के द्वारा किया जाता था जिन्हें व्रत, गण, ग्राम, सर्धा कहा जाता था।
महत्वपूर्ण पद:-
जनजातीय प्रमुख- राजन – राजा का पद वंशानुगत था। राजा का चुनाव समिति के द्वारा किया जाता था।
पुरोहित – महायाजक – विश्वामित्र और वशिष्ठ। विश्वामित्र ने गयत्री मंत्र की रचना की थी।
सेनानी – सेना प्रमुख – जो भाले, कुल्हाड़ी और तलवार का प्रयोग करता था
कर अधिकारी और न्याय प्रशासनिक अधिकारी के बारे में कोई जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी है।
व्रजपति – वह अधिकारी जिसका बड़े भू-भाग पर अधिकार होता था। वे कुलपास कहे जाने वाले परिवार के मुखिया का प्रतिनिधित्व करता था और युद्धक समूहों के प्रमुखों जिन्हें ग्रामीणों से युद्ध भूमि कहा जाता था, का प्रतिनिधित्व करता था।
5. जनजाति और परिवार
भाईचारा, सामाजिक ढांचे का आधार था।
प्राथमिक राजभक्ति, जन अथवा जनजाति को दी गई थी। ऋगवेद में लगभग 275 बार जन शब्द का प्रयोग किया गया है। जनजातियों के एक अन्य शब्द विस है जिसका ऋगवेद में 170 बार वर्णन किया गया है। ग्राम, छोटी जनजातीय इकाईयां होती थीं। ग्रामों के बीच के संघर्ष को समग्राम कहा जाता था।
कुल, वह पद जो परिवार के लिए प्रयोग किया जाता था उसका बहुत कम प्रयोग किया गया है। परिवार को गृह के द्वारा प्रदर्शित किया गया है।
पितृात्मक समाज और पुत्र का जन्म, युद्ध लड़ने की इच्छा के सूचक थे।
महिलाएं विधानसभाओं में शामिल हो सकती थीं, त्याग कर सकती थीं और भजन गाती थीं।
कईं पति रखने वाली महिलाएं, महिला पुर्नविवाह और लीवरेट पाये गए थे लेकिन बाल विवाह का प्रचलन नहीं था।
6. सामाजिक बंटवारा
वर्ण, रंग के लिए प्रयोग किया जाने वाला पद है।
दास और दसयुस से गुलामों और शूद्रों के रूप में व्यवहार किया जाता था। ऋगवेद में आर्य वर्ण और दस वर्ण का वर्णन किया गया है।
व्यवसाय के आधार पर चार वर्गों- योद्धा, संत, व्यक्ति और शूद्र में वर्गीकृत किया गया है लेकिन यह वर्गीकरण ज्यादा गहन नहीं था।
समाजिक असमानताएं दिखना प्रारंभ हो गई थीं लेकिन समाज अभी तक आदिवासी और बड़े पैमाने पर समतावादी थे।
7. ऋगवैदिक देवता
प्रकृति की पूजा की जाती थी।
विभिन्न देवताओं की विशेषताएं-
इंदिरा – पुरंदरा – 250 स्रोत
अग्नि – अग्नि देवता – 200 स्रोत
वरूण – प्राकृतिक क्रम को बनाए रखना
सोम – पौधों के देवता
मारूत – तूफानों की प्रतीकत्व करना
अदिति और ऊषा – देवियां – सुबह की पहली किरण की मौजूदगी को प्रदर्शित करना
3.पूजा करने का प्रमुख तरीका- प्रार्थना और त्याग था लेकिन पूजा परंपराओं और बलि के प्रावधान में शामिल नहीं की गई थी। उनकी पूजा उनके भौतिक जीवन की इच्छाओं को पूरा करने और भलाई हेतु थीं।
वैदिक काल के बाद का इतिहास मुख्य रूप से वैदिक ग्रंथों पर आधारित है जो कि ऋग्वेद आधार पर संकलित है।
1. उत्तर वैदिक ग्रंथ
a. वेद संहिता
सामवेद – ऋग्वेद से लिए गए भजनों के साथ मंत्रों की पुस्तक। यह वेद भारतीय संगीत के लिए महत्वपूर्ण है।
यजुर्वेद – इस पुस्तक में यज्ञ सम्बन्धी कर्मकांड और नियम सम्मिलित हैं।
अथर्ववेद – इस पुस्तक में बुराइयों और रोगों के निवारण के लिए उपयोगी मंत्र शामिल हैं|
b. ब्राह्मण – सभी वेदों के व्याख्यात्मक भाग होते हैं। बलिदान और अनुष्ठानों की भी बहुत विस्तार से चर्चा की गई है।
ऋग्वेद – ऐत्रेय और कौशितिकी ब्राह्मण
10 मंडल (किताबें) में विभाजित 1028 स्तोत्र शामिल हैं
तृतीय मंडल में, गायत्री मंत्र, देवी सावित्री से संबोधित है।
X मंडल पुरुषा सुक्ता से सम्बंधित हैं
एत्रेय और कौशितिकी ब्राह्मण
यजुर्वेद – शतापत और तैत्तरिया
सामवेद – पंचविशा, चांदोग्य, शद्विन्श और जैमिन्या
अथर्ववेद - गोपाथा
c. अरण्यकस – ब्राह्मणों से सम्बन्धों को समाप्त करते हुए, तपस्वियों तथा वनों में रहने वाले छात्रों के लिए मुख्यतः लिखी गई पुस्तक को अरण्यकस भी बोला जाता है।
d. उप-निषद – वैदिक काल के अंत में प्रदर्शित होने पर, उन्होंने अनुष्ठानों की विलोचना की और सही विश्वास और ज्ञान पर प्रकाश डाला।
नोट- सत्यमेव जयते, मुंडका उपनिषद से लिया गया हैं।
2. वैदिक साहित्य – बाद में वैदिक युग के बाद, बहुत सारे वैदिक साहित्य विकसित किए गए, जो संहिताओं से प्रेरित थे जो स्मृती-साहित्य का पालन करते हैं, जो श्रुति-शब्द की ओर मुथ परंपरा के ग्रंथों में लिखा गया था। स्मृति परंपरा में महत्वपूर्ण ग्रंथों को निम्न भागों में विभाजित किया गया है।
a. वेदांग
शिक्षा - स्वर-विज्ञान
कल्पसूत्र – रसम रिवाज
सुल्वा सूत्र
गृह्य सूत्र
धर्मं सूत्र
व्याकरण – ग्रामर
निरुक्ता - शब्द-साधन
छंद - मैट्रिक्स
ज्योतिष - एस्ट्रोनोमी
b. स्मृतियां
मनुस्मृति
यज्नावाल्क्य स्मृति
नारद स्मृति
पराशर स्मृति
बृहस्पति स्मृति
कात्यायना स्मृति
c. महाकाव्य
रामायण
महाभारत
d. पुराण
18 महापुराण – ब्रह्मा, सूर्य, अग्नि, शैव और वैष्णव जैसे विशिष्ट देवताओं के कार्यों को समर्पित। इसमें भागवत पुराण, मत्स्य पुराण, गरुड़ पुराण आदि शामिल हैं।
18 उप-पुराण – इसके बारे में कम जानकारी उपलब्ध है।
e. उपवेद
आयुर्वेद - दवा
गन्धर्ववेद- संगीत
अर्थवेद - विश्वकर्मा
धनुर्वेद - तीरंदाजी
f. शाद-दर्शन या भारतीय दार्शनिक विद्यालय
संख्या
योग
न्याय
वैशेशिका
मीमांसा
वेदांता
3. पीजीडब्ल्यू-लोहा चरण संस्कृति और बाद में वैदिक अर्थव्यवस्था
गंगा ने संस्कृति का केंद्र होने के साथ ही पूरे उत्तर भारत में अपना प्रसार किया। 1000 ईसा पूर्व से धारवाड़, गांधार और बलूचिस्तान क्षेत्र में लौह अवयवों का प्रकटन। लोहे को श्यामा या कृष्ण आयस के रूप में जाना गया था और शिकार में, जंगलों को साफ़ करने आदि में इस्तेमाल किया गया था।
a. प्रादेशिक विभाग
आर्यावर्त – उत्तर भारत
मध्यदेश – मध्य भारत
दक्षिणापाह – दक्षिण भारत
b. चरवाहों से आजीविका के प्रमुख स्रोतों का संक्रमण, व्यवस्थित और आसीन कृषि आधारित अर्थव्यवस्था का संक्रमण। चावल (वीहरी), जौ, गेहूं और दाल मुख्य उपज थे।
c. कला और शिल्प लौह और कॉपर के उपयोग के साथ सुधार हुआ। बुनाई, चमड़े के काम, मिट्टी के बर्तनों और बढ़ई के काम ने भी बड़ी प्रगति की।
d. कस्बों या नगरों की वृद्धि होने लगी। लेकिन बाद में वैदिक चरण एक शहरी चरण में विकसित नहीं हुआ। कौशंबी और हस्तिनापुर को प्रोटो-शहरी साइट्स कहा जाता था।
e. वैदिक ग्रंथों में समुद्र और सागर यात्राओं का उल्लेख भी किया गया है।
4. राजनीतिक संगठन
a. सभा – लोकप्रिय असेंबलियों ने अपना महत्व खो दिया। सभा और समिति का चरित्र बदल गया, और यह विधा गायब हो गई। अमीर रईसों और प्रमुखों ने इन विधानसभाओं पर हावी होना शुरू कर दिया।
इन विधानसभाओं में अब महिलाओं की उपस्थिति की अनुमति नहीं थी। उन्होंने धीरे-धीरे उनके महत्व को खो दिया।
b. बड़े राज्यों का गठन राजाओं को शक्तिशाली और आदिवासी प्राधिकरण बनने के लिए प्रादेशिक बन गया। राष्ट्र इस बात का संकेत करता है कि इस चरण में राज्य पहले दर्शित था |
c. हालांकि मुख्य चुनाव की आवश्यकता खत्म हो गई, यह पद आनुवंशिक हो गए। लेकिन भरत युद्ध दिखाता है कि किंग्सपैथ का कोई रिश्तेदारी नहीं है।
d. राजा अपनी शक्तियों को मजबूत करने के लिए विभिन्न अनुष्ठान किये।| उनमें से कुछ इस प्रकार हैं :
अश्वमेध – एक ऐसे क्षेत्र पर निर्विवाद नियंत्रण जिसमें शाही घोड़ा बिना किसी बाधा के दौड़ आये।
वाजपेय- रथ दौड़
सर्वोच्च शक्तियां प्रदान करने के लिए राजसूया बलिदान
e. संग्रिहित्री – कर और दान इकट्ठा करने के लिए नियुक्त किया गया एक अधिकारी
f. यहां तक कि इस चरण में, राजा के पास एक स्थायी सेना नहीं थी और युद्ध के समय में जनजातीय इकाइयां जुटाई जाती थीं।
5. सामाजिक संगठन
a. चतुरवर्ण प्रणाली धीरे-धीरे ब्राह्मणों की बढ़ती शक्ति के कारण विकसित हुई क्योंकि बलिदान कर्मकांड अधिक सामान्य हो रहे थे। लेकिन अब भी वर्ण प्रणाली बहुत प्रगति नहीं कर पाई।
b. वैश्य ही सामान्य लोग थे जिन्होंने दान अर्पित किया, जबकि ब्राह्मण और क्षत्रिय वैश्यों से एकत्र हुए धन पर रहते थे। तीन वर्ण उपानाना के लिए हकदार थे और गायत्री मंत्र का पाठ था जो शूद्र से वंचित था।
c. गोत्र तब शुरू हुआ, जब गोत्र एक्ज़ैग्मी का अभ्यास शुरू हुआ।
d. आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वाणप्रस्थ और संयासी) अच्छी तरह से स्थापित नहीं थे।
6. भगवान, अनुष्ठान और दर्शन
a. ब्राह्मणवादी प्रभाव का पंथ बढ़ती रस्में और बलिदानों के साथ विकसित हुआ।
b. इंद्र और अग्नि ने उनके महत्व को खो दिया, जबकि प्रजापति ने रुद्र और विष्णु के साथ महत्वपूर्ण पद हासिल कर लिया।
c. मूर्तिपूजा होने लगी।
d. लोगों ने भौतिक कारणों के लिए भगवान की पूजा की।
e. बलिदानों के साथ बलिदान के अनुष्ठानों और सूत्रों के साथ बलिदान अधिक महत्वपूर्ण हो गए।
f. अतिथि को गोघना या जिसे मवेशियों को खिलाया गया था, के रूप में जाना-जाने लगा।
g. ब्राह्मणों ने अपने दान के उपहारों के रूप में प्रदेशों / भूमि के साथ सोने, कपड़े और घोड़ों की मांग की।
भूमिका
ब्रिटिश शासन के दौरान शुरू की गई नई सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक प्रणाली ने भारतीय समाज के आधारभूत ढाँचे में आमूलचूल परिवर्तन किया। नई एवं परंपरागत व्यवस्था के संघर्ष ने भारतीय समाज में आंतरिक उथल-पुथल को जन्म दिया। भारत में पाश्चात्य शिक्षा का प्रारंभ भी सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण का एक महत्त्वपूर्ण कारण था। यद्यपि कंपनी ने भारत के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप के प्रति संयम की नीति का पालन किया, लेकिन ऐसा उसने अपने औपनिवेशिक हितों के लिये किया। पाश्चात्य शिक्षा से प्रभावित लोगों ने हिंदू सामाजिक संरचना, धर्म, रीति-रिवाज व परंपराओं को तर्क की कसौटी पर कसना आरंभ कर दिया। परिणामतः सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आंदोलनों का जन्म हुआ। भारतीय समाज को पुनर्जीवन प्रदान करने का प्रयत्न प्रबुद्ध भारतीय सामाजिक एवं धार्मिक सुधारकों, सुधारवादी ब्रिटिश गवर्नर जनरलों एवं पाश्चात्य शिक्षा के प्रसार ने किया।
भारत का सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति मानी जाती है। जब हमारा समाज और धर्म दोनों गतिहीन हो चला तो इस आंदोलन ने इस स्थिरता को तोड़ने का काम किया। 19वीं सदी में सुधार मुख्यतः नारी केंद्रित और 20वीं सदी में निम्न जाति केंद्रित रहे।
सुधार आंदोलन के कारण
1813 के चार्टर एक्ट के तहत ईसाई मिशनरियों का भारत में आगमन हुआ। इन प्रचारकों ने सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार कर हिंदू व इस्लाम धर्म की मान्यताओं एवं व्यवहार पर चोट की। इसके पीछे निहित कारणों में भारतीय समाज का आधुनिकीकरण करना नहीं वरन् ब्रिटिश निर्मित वस्तुओं के लिये खरीददार तैयार करना तथा उपयोगितावादी विचारधारा का प्रयोग कर भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के प्रति निकृष्टता का भाव पैदा करना था। प्रतिक्रियास्वरूप अपने धर्म की रक्षा एवं सामाजिक बुराइयों को दूर करने हेतु अनेक सामाजिक-धार्मिक आंदोलन हुए।
बौद्धिक विकास की अनुकूल परिस्थितियों से आधुनिक चेतना के साथ समाज का शिक्षित वर्ग सामने आया, जिन्होंने धार्मिक, सामाजिक आडंबरों के प्रति सुधारवादी रवैया अपनाया और उन्हें समसामयिक संदर्भ में उपयोगी व युक्ति-संगत बनाने का प्रयास प्रारंभ किया। इन आंदोलनों को नेतृत्व देने में कुछ संगठनों और व्यक्तियों का महत्त्वपूर्ण योगदान था।
हिंदू धर्म से संबंधित सुधारक संस्थाएँ
ब्रह्म समाज
बंगाल में प्रारंभ हुए समाज सुधार आंदोलनों का नेतृत्व राजा राममोहन राय ने किया। इन्हें भारत में नवजागरण का अग्रदूत, सुधार आंदोलनों का प्रवर्तक, आधुनिक भारत का पिता, नवप्रभात का तारा एवं भारतीय पत्रकारिता का जनक कहा जाता है। राजा राममोहन राय प्राच्य और पाश्चात्य चिंतन के मिले-जुले रूप के प्रतिनिधि थे।
1828 में राजा राममोहन राय ने ब्रह्म सभा की स्थापना कलकत्ता में की, जिसे बाद में 'ब्रह्म समाज' कहा गया। ब्रह्म समाज के मुख्य उद्देश्य 'हिंदू धर्म' में सुधार लाना, सभी धर्मों की अच्छाइयों को अपनाना, मूर्ति पूजा का विरोध, एक ब्रह्म की पूजा का उपदेश देना आदि थे। उन्होंने एकेश्वरवाद का समर्थन कर धर्मों की आपसी एकता पर जोर दिया। ब्रह्म समाज के सिद्धांतों और दृष्टिकोण के मुख्य आधार थे- मानव-विवेक (तर्क शक्ति), वेद व उपनिषद्।
राजा राममोहन राय धार्मिक, दार्शनिक व सामाजिक दृष्टिकोण में इस्लाम के एकेश्वरवाद, सूफीमत के रहस्यवाद, ईसाई धर्म की आचार शास्त्रीय नीतिपरक शिक्षा और पश्चिम के आधुनिक देशों के उदारवादी-बुद्धिवादी सिद्धांतों के समर्थक थे।
सामाजिक क्षेत्र में राजा राममोहन राय हिंदू समाज की कुरीतियों- सती प्रथा, बहुपत्नी प्रथा, वेश्यागमन, जातिवाद, बाल विवाह आदि के घोर विरोधी थे। विधवा पुनर्विवाह का इन्होंने समर्थन किया।
धार्मिक क्षेत्र में उन्होंने मूर्ति पूजा की आलोचना करते हुए, अपने पक्ष को वेदोक्तियों के माध्यम से सिद्ध करने का प्रयास किया। इन्होंने कर्मकांड का विरोध किया तथा धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या के लिये पुरोहित वर्ग को अस्वीकार किया। उन्होंने यह भी कहा कि अगर धर्म सामाजिक सुधार की अनुमति नहीं देते तो उसे बदल दिया जाना चाहिये।
एकेश्वरवादी मत के प्रचार हेतु उन्होंने 1815 में 'आत्मीय सभा' का भी गठन किया। 1822 में फारसी भाषा में उन्होंने मिरात-उल-अखबार (मिरातुल अखबार) का प्रकाशन किया। कलकत्ता यूनिटेरियन कमेटी का गठन 1823 में राजा राममोहन राय, द्वारकानाथ टैगोर और विलियम एडम द्वारा किया गया।
1821 में बांग्ला भाषा में 'संवाद कौमुदी' का भी प्रकाशन किया। सती प्रथा के विरोध के लिये इन्होंने अपनी इस पत्रिका का उपयोग किया।
राजा राममोहन राय ने डच घड़ीसाज डेविड हेयर के सहयोग से 1817 में कलकत्ता में 'हिंदू कॉलेज' की स्थापना की। 1825 में उन्होंने कलकत्ता में 'वेदांत कॉलेज' की स्थापना की।
नोटः उल्लेखनीय है कि राजा राममोहन राय ने 1826 के जूरी अधिनियम का घोर विरोध किया था।
राजा राममोहन राय ने फारसी भाषा में 'तोहफत-उल-मुवाहहीदीन' (एकेश्वरवादियों को उपहार) का प्रकाशन किया, जिसमें उन्होंने एकेश्वरवाद के पक्ष में विवेकपूर्ण तर्क दिये।
मुगल बादशाह अकबर द्वितीय ने राममोहन राय को 'राजा' की उपाधि प्रदान की थी।
राजा राममोहन राय की मृत्यु 1833 में ब्रिटेन के ब्रिस्टल में हुई।
राजा राममोहन राय के पश्चात् देवेंद्रनाथ टैगोर ने ब्रह्म समाज को कुशल नेतृत्व प्रदान किया। 1839 में उन्होंने 'तत्त्वबोधिनी सभा' की स्थापना की। तत्त्वबोधिनी सभा ने 'तत्त्ववोधिनी पत्रिका' के माध्यम से भारत के अतीत के सुव्यवस्थित अध्ययन को प्रोत्साहित किया।
ब्रह्म समाज की शाखाएँ संयुक्त प्रांत, पंजाब तथा मद्रास में खोली गई। ब्रह्म समाज के विचारों को लेकर 1865 में केशवचंद्र सेन व देवेंद्रनाथ टैगोर के बीच विवाद हुआ, जिसके कारण केशवचंद्र सेन मूल ब्रह्म समाज से अलग हो गए और 1866 में आदि ब्रह्म समाज की स्थापना की। यही बाद में 'भारतीय ब्रह्म समाज' कहलाया।
1868 में केशव चंद्र सेन ने 'टेबरेनेकल ऑफ न्यू डिस्पेंसेशन' नामक संघ की स्थापना की। 1870 में उन्होंने हिंदू पुनरुद्धार के प्रवक्ता के रूप में इंग्लैंड की यात्रा की। वहाँ से लौटने के उपरांत उन्होंने, 'इंडियन रिफॉर्म एसोसिएशन' नामक संस्था का गठन किया।
आचार्य सेन ने स्त्रियों के उद्धार, स्त्री शिक्षा आदि सामाजिक कार्यों के लिये योगदान दिया।
1872 में आचार्य केशव चंद्र सेन ने सरकार को ब्रह्म विवाह अधिनियम को कानूनी दर्जा दिलवाने हेतु तैयार कर लिया। 1872 में ब्रह्म विवाह अधिनियम पास किया गया, जिसमें 14 वर्ष से कम आयु की बालिकाओं तथा 18 वर्ष से कम आयु के बालकों का विवाह वर्जित कर दिया गया।
ब्रह्म समाज का द्वितीय विभाजन 1878 में केशव चंद्र सेन के कारण हुआ। आचार्य केशव चंद्र सेन ने ब्रह्म विवाह अधिनियम-1872 का उल्लंघन करते हुए अपनी अल्पायु पुत्री का विवाह कूचबिहार के राजा से कर दिया, जो ब्रह्म समाज के द्वितीय विघटन का कारण बना।
1878 में ब्रह्म समाज से अलग हुए गुट (शिवनाथ शास्त्री, आनंद मोहन बोस और द्वारकानाथ गांगुली) ने 'साधारण ब्रह्म समाज' की स्थापना की, जिनका उद्देश्य था- जाति प्रथा, मूर्ति पूजा का विरोध, नारी मुक्ति आदि का समर्थन करना।
प्रार्थना समाज
महाराष्ट्र में 1867 में 'प्रार्थना समाज' की स्थापना हुई। इस संगठन का उद्देश्य हिंदू धर्म तथा समाज में सुधार लाना था। इसने एक ब्रह्म की उपासना का संदेश दिया और धर्म को जातिगत रूढ़िवादिता से मुक्त करने का प्रयास किया। प्रार्थना समाज की स्थापना डॉ. आत्माराम पांडुरंग ने की। बाद में आर.जी. भंडारकर तथा महादेव गोविंद रानाडे इस संगठन में शामिल हुए। इस समाज को प्रसिद्धि दिलाने का श्रेय रानाडे को ही जाता है। प्रार्थना समाज की स्थापना के प्रेरणा स्रोत केशव चंद्र सेन थे।
1867 (कुछ स्रोतों मे 1870) में रानाडे ने सार्वजनिक सभा की स्थापना की। इनकी तीक्ष्ण मेधाशक्ति के कारण इन्हें 'महाराष्ट्र का सुकरात' भी कहा जाता था। उन्होंने अछूतों, दलितों व पीड़ितों की दशा सुधारने के उद्देश्य से कल्याणकारी संस्थाओं का गठन किया, जैसे- विधवा आश्रम, रात्रि पाठशालाएँ आदि।
रानाडे के प्रयत्नों से दक्कन एजुकेशनल सोसायटी की स्थापना हुई। दक्कन एजुकेशन सोसायटी के सदस्यों में तिलक, महादेव बल्लाल नामजोशी और विष्णुशास्त्री चिपलुंकर भी शामिल थे। रानाडे द्वारा महाराष्ट्र विधवा पुनर्विवाह एसोसिएशन की स्थापना की गई। महिलाओं के कल्याण के लिये 'आर्य महिला समाज' की स्थापना पंडिता रमाबाई ने की थी। रानाडे के शिष्य गोपाल कृष्ण गोखले ने 'सर्वेट्स ऑफ इंडिया सोसायटी' (1905) की स्थापना की।
प्रार्थना समाज के सिद्धांत और विचार भी ब्रह्म समाज के अनुरूप ही थे। इसने जाति प्रथा की समाप्ति, विधवाओं के पुनर्विवाह, नारी-शिक्षा को बढ़ावा, बाल-विवाह के अंत आदि के पक्ष में प्रभावपूर्ण आवाज़ उठाई।
प्रार्थना समाज धार्मिक गतिविधियों की अपेक्षा सामाजिक क्षेत्र में अधिक कार्यशील रहा और पश्चिमी भारत में समाज सुधार संबंधी विभिन्न क्रियाओं का केंद्र बना।
प्रार्थना सभा ने भारत के सामाजिक और धार्मिक सुधार की एक क्रमिक प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। साथ ही इसने अपने बाद के संगठनों, जैसे- 'आर्य समाज' और 'रामकृष्ण मिशन' के लिये एक आधार का कार्य किया। इसके अतिरिक्त इसने भारतीय समाज की बुराइयों के प्रति सुधारवादी रवैया अपनाकर और इसकी अच्छाइयों को उभारकर पश्चिमी सभ्यता के अहम को तोड़ने और भारतीय सभ्यता को पुनः उसके पुराने स्थान पर स्थापित करने में सहायता की।
आर्य समाज
1875 में दयानंद सरस्वती ने बंबई में आर्य समाज की स्थापना की। 1877 में आर्य समाज का मुख्यालय लाहौर में स्थापित किया गया।
आर्य समाज की स्थापना का मुख्य उद्देश्य हिंदू धर्म में व्याप्त दोषों को उजागर कर उसे दूर करना, वैदिक धर्म को पुनः शुद्ध रूप में स्थापित करना, भारत को सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक रूप से एक सूत्र में बांधना था।
दयानंद सरस्वती ने 'वेदों की ओर लौटो' का नारा देते हुये, वेदों को भारत का आधार स्तंभ बताया। उनका विश्वास था कि हिंदू धर्म व वेद, जिन पर भारत का पुरातन समाज टिका है, वे शाश्वत, अपरिवर्तनशील, धर्मातीत तथा दैवीय हैं।
दयानंद ने पुराणों जैसे हिंदू धर्म ग्रंथों की प्रामाणिकता को अस्वीकार किया। वर्ण व्यवस्था के स्थान पर उन्होंने कर्म के आधार को समर्थन दिया। सामाजिक व शैक्षिक मामलों में स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों की वकालत की।
आर्य सामाजियों ने छुआछूत, जातिभेद, बाल-विवाह का विरोध किया तथा कुछ शर्तों के साथ विधवा पुनर्विवाह की अनुमति व अंतर्जातीय विवाह का समर्थन किया।
आर्य समाज द्वारा चलाया गया 'शुद्धि आंदोलन' काफी विवादास्पद रहा। इसके अंतर्गत किसी कारणवश अन्य धर्म अपनाने वाले हिंदुओं को पुनः हिंदू धर्म में वापसी के लिये प्रोत्साहित किया गया।
'स्वेदशी व हिंदी' का समर्थन करने वाला यह प्रथम संगठन था। इसका मानना था कि "भारत भारतीयों के लिये है।"
दयानंद सरस्वती ने 'गो रक्षा आंदोलन' चलाया। गायों की रक्षा हेतु 'गो रक्षा समिति' की स्थापना की।
दयानंद सरस्वती ऐसे प्रथम समाज सुधारक थे, जिन्होंने शूद्रों व स्त्री को वेद पढ़ने, उच्च शिक्षा प्राप्त करने, यज्ञोपवीत धारण करने के पक्ष में आंदोलन चलाया।
1863 में उन्होंने बाह्य आंडबरों और झूठे धमों का खंडन करते हुए 'पाखंड-खंडिनी पताका' लहराया। दयानंद सरस्वती के विचार उनकी प्रसिद्ध पुस्तक 'सत्यार्थ प्रकाश' में वर्णित हैं।
दयानंद सरस्वती ने सर्वप्रथम 'स्वराज' शब्द का प्रयोग किया तथा हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया। बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और गोपाल कृष्ण गोखले जिन्होंने हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व किया, आर्य समाज से प्रभावित थे। राजनीति के क्षेत्र में उनका मत था कि "बुरे से बुरा देशी राज्य अच्छे से अच्छे विदेशी राज्य से अच्छा है"।
वेलेंटाइन शिरोल (चिरोल) ने इस संगठन (आर्य समाज) को 'भारतीय अशांति का जन्मदाता' कहा था।
दयानंद सरस्वती के सहयोगी लाला हंसराज ने 1886 में दयानंद एंग्लो-वैदिक स्कूल (लाहौर) तथा स्वामी श्रद्धानंद ने 1902 में हरिद्वार के निकट कांगड़ी नामक स्थान पर गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय की स्थापना की।
यंग बंगाल आंदोलन
19वीं सदी के तृतीय दशक के अंतिम वर्षों में बंगाल के बुद्धिजीवियों के मध्य एक रेडिकल ग्रुप संगठित हुआ, जिसके विचार अधिक क्रांतिकारी थे। इस आंदोलन को 'यंग बंगाल आंदोलन' के नाम से जाना जाता है। यंग बंगाल आंदोलन के प्रवर्तक हेनरी लुइस विवियन डेरोजियो थे।
डेरोजियो फ्राँस की क्रांति से बहुत प्रभावित थे।
समाज सुधार के लिये डेरोज़ियो ने 'एकेडमिक एसोसिएशन' और 'सोसायटी फॉर द एक्वीजीशन ऑफ जनरल नॉलेज' जैसे संगठनों की स्थापना की।
डेरोजियो ने अपने समर्थकों को सत्य के लिये जीने और मरने, सभी सद्गुणों को अपनाने और उनके अनुसार आचरण करने हेतु प्रोत्साहित किया।
यंग बंगाल आंदोलन के मुख्य मुद्दे-प्रेस की स्वतंत्रता, जमींदारों के अत्याचारों से रैय्यतों की सुरक्षा, सरकारी उच्च सेवाओं में भारतीयों को रोजगार दिलाना आदि थे।
डेरोजियो के मुख्य शिष्यों में रामगोपाल घोष, कृष्ण मोहन बनर्जी एवं महेशचंद्र घोष थे।
सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने डेरोजियो के अनुयायियों को 'बंगाल में आधुनिक सभ्यता के अग्रदूत', 'हमारी जाति का पिता' कहा।
डेरोजियो को आधुनिक भारत का 'प्रथम राष्ट्रवादी कवि' भी कहा जाता है।
यंग बंगाल आंदोलन का मूल संदर्भ देशी था, लेकिन इस पर विदेशी प्रभाव को इनकार नहीं किया जा सकता। यंग बंगाल के संस्थापक डेरोजियो स्वयं फ्राँस की क्रांति के सिद्धांतों से प्रभावित थे, साथ ही बंगाल के नौजवानों पर इटली के स्वतंत्रता आंदोलन का प्रभाव था।
डेरोजियो ने समाचार पत्रों, पुस्तिकाओं और सार्वजनिक संगठनों के माध्यम से लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर जागरूक करने के राजा राममोहन राय की परंपरा का अनुसरण किया। उन्होंने सार्वजनिक आंदोलन, जैसे प्रेस की स्वतंत्रता, विदेश में ब्रिटिश उपनिवेशों में भारतीय श्रमिकों के लिये बेहतर स्थिति, बहुमत वाली ज्यूरी द्वारा मुकदमों की सुनवाई और भारतीयों को सरकारी सेवाओं में उच्च पद जैसे मुद्दों पर खुलकर बहस की।
रामकृष्ण मिशन
रामकृष्ण परमहंस के शिष्य विवेकानंद द्वारा रामकृष्ण मिशन की स्थापना 1897 में कलकत्ता के समीप बारानगर में की गई।
स्वामी विवेकानंद के बचपन का नाम नरेंद्रनाथ दत्त था।
रामकृष्ण मिशन की शिक्षाओं, उपनिषदों एवं गीता के दर्शन, बुद्ध एवं यीशु के उपदेशों को आधार बनाकर विवेकानंद ने विश्व को मानव मूल्यों की शिक्षा दी।
1893 में अमेरिका के शिकागो शहर में आयोजित प्रथम विश्व धर्म सम्मेलन में स्वामी विवेकानंद ने भारत का नेतृत्व किया। इस सम्मेलन में जाने से पूर्व ही नरेंद्रनाथ दत्त का नाम बदलकर महाराज खेतड़ी के सुझाव पर स्वामी विवेकानंद रख दिया गया।
विवेकानंद ने शिकागो में संपन्न 'विश्व धर्म सम्मेलन (1893)' में सभी धर्मों की एकता के विषय में कहा। उन्होंने अध्यात्मवाद एवं भौतिकतावाद के मध्य संतुलन स्थापित कर कहा कि "यदि पश्चिम के भौतिकतावाद एवं पूर्व के अध्यात्मवाद का सम्मिश्रण कर दिया जाए तो यह मानव जाति की भलाई का सर्वोत्तम मार्ग होगा।"
विवेकानंद का कहना था कि "धर्म न पुस्तकों में है, न बौद्धिक विकास में और न तर्क में; तर्क, सिद्धांत, पुस्तकें और धार्मिक क्रियाएँ आदि केवल धर्म के सहायक हैं, धर्म आत्म-ज्ञान में है।"
वे जातिवाद, छुआछूत एवं विषमता को राष्ट्र की दुर्बलता का कारक मानते थे। उन्होंने युवा पीढ़ी से अपील की कि वे प्राचीन सभ्यता पर गर्व करें, अपनी संस्कृति को मानव जाति के कल्याणार्थ हेतु समर्पित करें।
विवेकानंद ने कहा कि "जब तक करोड़ों व्यक्ति भूखे और अज्ञानी हैं तब तक मैं उस प्रत्येक व्यक्ति को देशद्रोही मानता हूँ जो उन्हीं के खर्चे पर शिक्षा ग्रहण करता है परंतु उनकी परवाह बिल्कुल नहीं करता।"
स्वामीजी को 19वीं शताब्दी के नव हिंदू जागरण का संस्थापक भी कहा जाता है। सुभाष चंद्र बोस ने स्वामी विवेकानंद को "आधुनिक राष्ट्रीय आंदोलन का आध्यात्मिक पिता" कहा।
स्वामी विवेकानंद ने प्रबुद्ध भारत (अंग्रेजी), उद्योधन (बंगाली) नामक पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। राजयोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग व वेदांत फिलॉसफी उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें हैं।
विवेकानंद से प्रभावित होकर एक विदेशी महिला इनके साथ भारत आई जो सिस्टर निवेदिता (मार्गरेट नोबल) के नाम से जानी जाती थीं।
नोटः रामकृष्ण परमहंस ने चिंतन, संन्यास, भक्ति के परंपरागत तरीकों से धार्मिक मुक्ति प्राप्त करने का प्रयत्न किया। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि इन मार्गों से सर्वश्रेष्ठ मार्ग मानव सेवा है। मानव सेवा ही ईश्वर की सच्ची सेवा है।
थियोसोफिकल सोसायटी
थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना 1875 में न्यूयॉर्क में मैडम हेलना पेट्रोवना ब्लावात्स्की तथा कर्नल हेनरी स्टली ऑल्कॉट ने की थी।
भारत में 1882 में थियोसोफिकल सोसायटी का अड्यार (मद्रास) में अंतर्राष्ट्रीय कार्यालय खोला गया। 1889 में एनी बेसेंट इस सोसायटी की इंग्लैंड में सदस्या बनी। वह 1893 में भारत आई और सोसायटी का कार्यभार अपने हाथ में ले ली। भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना जागृत करने में इनका अद्भुत योगदान रहा।
थियोसॉफी (ब्रह्मविद्या) हिंदू धर्म के आध्यात्मिक दर्शन, उसके धर्म सिद्धांत तथा आत्मा के पुनर्जन्म सिद्धांत का समर्थन करती है।
थियोसोफिकल सोसायटी पुनर्जन्म व कर्म के सिद्धांत को मान्यता देती थी। इस संस्थान ने बाल विवाह, जातिवाद का विरोध तथा विधवाओं की दशा सुधारने का प्रयास किया।
भारत में शिक्षा के क्षेत्र में विकास के लिये एनी बेसेंट 1898 में सेंट्रल हिंदू कॉलेज की स्थापना की जो 1916 में मदनमोहन मालवीय जी के प्रयासों से 'बनारस हिंदू विश्वविद्यालय' बना।
एनी बेसेंट ने आयरलैंड की होमरूल के नमूने पर भारत में होमरूल लीग आंदोलन का नेतृत्व किया और 1917 में कॉन्ग्रेस की प्रथम महिला अध्यक्ष बनीं
मुस्लिम धर्म सुधार आंदोलन
हिंदुओं के धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलनों के समान ही भारतीय मुसलमानों में भी अनेक प्रकार के सुधार आंदोलन हुए। हालाँकि मुस्लिमों में नवजागरण हिंदुओं की अपेक्षा धीरे-धीरे आया। इसका कारण यह था कि प्रारंभ में मुस्लिम आधुनिक शिक्षा से दूर रहे और अपनी पुरातनपंथी इस्लाम से जुड़े रहे। 19वीं शताब्दी के अंत में मुसलमान आधुनिक शिक्षा की तरफ मुड़े। धीरे-धीरे उनके बीच शिक्षित आधुनिक बुद्धिजीवियों का उदय हुआ।
अलीगढ़ आंदोलन
• अलीगढ़ आंदोलन का प्रवर्तन सर सैय्यद अहमद खाँ ने किया तथा इस्लाम में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों पीरीमुरीदी प्रथा, दास प्रथा इत्यादि के विरुद्ध आवाज उठाई। यह अंग्रेजी शिक्षा व ब्रिटिश सरकार के साथ सहयोग के पक्ष में सबसे असरदार आंदोलन रहा।
• 1864 में कलकत्ता में सर सैय्यद अहमद खाँ द्वारा 'साइंटिफिक सोसायटी' की स्थापना की गई। इस सोसायटी ने कुछ प्रतिष्टित्त अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी व उर्दू में अनुवाद करना प्रारंभ किया, जिससे मुस्लिम समाज पाश्चात्य संस्कृति व विचारों से परिचित हुआ।
• ब्रिटिश सरकार से संबंध सुधारना एवं मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा का प्रचार करना, सर सैय्यद अहमद खाँ का मुख्य उद्देश्य था। इस दिशा में इन्होंने 1875 में 'मोहम्मडन एग्लो ओरियंटल स्कूल' की स्थापना अलीगढ़ में की, जो 1920 में 'अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय' में परिवर्तित हो गया।
• सर सैय्यद अहमद खाँ व बनारस के राजा शिव प्रसाद सिंह (सितारे-हिंद) ने कॉन्ग्रेस की स्थापना के विरोध में 'यूनाइटेड इंडियन पैट्रियॉटिक एसोसिएशन' की स्थापना की।
• अलीगढ़ आंदोलन में उनके सहयोगी चिराग अली, अल्ताफ हुसैन हाली, नजीर अहमद, मौलाना शिवली नोमानी आदि थे।
• सर सैय्यद अहमद की मुख्य पत्रिका तहजीब-उल-अखलाक (सभ्यता और नैतिकता) थी। इनका एक महत्त्वपूर्ण कार्य 'कुरान पर टीका' लिखना भी था। इनका मानना था कि हिंदू व मुसलमान दो आँखें हैं।
• इस आंदोलन के समर्थकों की विचारधारा कुरान की उदार व्याख्या पर आधारित थी। इन्होंने मुस्लिम समाज में आधुनिक एवं उदार संस्कृति को प्रोत्साहित करने का प्रयास किया।
• अलीगढ़ आंदोलन का उद्देश्य इस्लामी समाज का आधुनिकीकरण करना था। इस प्रकार अलीगढ़ आंदोलन तत्कालीन समय में मुस्लिम सांस्कृतिक एवं धार्मिक गतिविधियों का केंद्र बन गया।
अहमदिया आंदोलन
• अहमदिया आंदोलन 19वीं शताब्दी में मिर्जा गुलाम अहमद द्वारा प्रारंभ किया गया। इसकी शुरुआत पंजाब के गुरुदासपुर जिले में 'कादियान' नामक स्थान से की गई, इसीलिये इसे 'कादियानी आंदोलन' भी कहा जाता है।
• इस आंदोलन ने जिहाद का विरोध किया। गुलाम अहमद पश्चिमी उदारवाद, ब्रह्म विद्या तथा हिंदुओं के धार्मिक सुधार आंदोलन से प्रभावित थे।
• गुलाम अहमद ने अपनी पुस्तक 'बहरीन-ए-अहमदिया' में अहमदिया आंदोलन के सिद्धांतों की व्याख्या की।
• गुलाम अहमद ने स्वयं को मुहम्मद साहब के बाद 'एक और पैगंबर' व 'कृष्ण का अवतार' बताया।
वहाबी आंदोलन (1830-60)
• यह मूलतः मुस्लिम सुधारवादी धार्मिक आंदोलन था, जो उत्तर-पश्चिम. पूर्वी तथा मध्य भारत में सक्रिय रहा। हजरत मुहम्मद साहब के इस्लाम को पुनर्स्थापित करना इसका मुख्य उद्देश्य था।
• भारत में इस आंदोलन को लोकप्रियता सैय्यद अहमद राय बरेलवी के कारण मिली जो अरब के अब्दुल वहाब व दिल्ली के संत शाह वली-उल्लाह से प्रभावित थे।
• चूँकि इसका उद्देश्य देश को 'दार-उल-हर्ब' (काफिरों का देश) से 'दार-उल-इस्लाम' में बदलना था इसलिये प्रारंभ में पंजाब में सिखों के विरुद्ध जिहाद की घोषणा की गई, बाद में अंग्रेज़ों द्वारा सिख राज्य को समाप्त करने पर आंदोलन अंग्रेज़ विरोधी हो गया।
• पटना इस आंदोलन का मुख्य शक्ति केंद्र था।
• वहाबी आंदोलन अपने सांप्रदायिक छवि के कारण कभी भी राष्ट्रीय आंदोलन का स्वरूप धारण नहीं कर सका।
देवबंद आंदोलन
• मुहम्मद कासिम ननौतवी तथा रशीद अहमद गंगोही ने 1866 में देवबंद (सहारनपुर, उ.प्र.) में इस्लामी मदरसे की स्थापना की।
• यह एक पुनरुद्धार आंदोलन था, जिसके दो मुख्य उद्देश्य थे- मुसलमानों में कुरान तथा हदीस की शुद्ध शिक्षा का प्रसार करना व विदेशी शासकों के विरुद्ध जिहाद की भावना को जीवित रखना।
• देवबंद आंदोलन, अलीगढ़ आंदोलन के विपरीत विचारधारा का था। देवबंद स्कूल अंग्रेज़ी शिक्षा एवं पाश्चात्य संस्कृति का पूर्ण विरोधी था। इसने अलीगढ़ आंदोलन का पुरजोर विरोध किया। इसने सर सैय्यद अहमद खाँ के 'इंडियन पैट्रियॉटिक एसोसिएशन' के विरुद्ध फतवा जारी किया था।
• इस आंदोलन द्वारा कॉन्ग्रेस की स्थापना का समर्थन किया गया।
दलित सुधार आंदोलन
सत्यशोधक समाज
• ज्योतिराव गोविंदराव फुले (ज्योतिबा फुले) ने निम्न जातियों के कल्याण के लिये 1873 में 'सत्यशोधक समाज' की स्थापना की।
• यह प्रथम भारतीय संगठन था जिसने अस्पृश्य वर्ग के लिये स्कूल खुलवाये तथा नारी शिक्षा के लिये पूना में एक कन्या विद्यालय खोला।
• ज्योतिबा फुले समाज में जाति प्रथा के पूर्ण उन्मूलन एवं सामाजिक- आर्थिक समानता के पक्षधर थे। ज्योतिबा ने भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के नेताओं की कमजोर वर्गों के लोगों के हितों की अनदेखी करने के लिये आलोचना की।
• ज्योतिबा फुले ने अपनी पुस्तक 'गुलामगीरी' में निम्न जातियों को पाखंडी ब्राह्मणों एवं उनके अवसरवादी धर्म ग्रंथों से सुरक्षा दिलाने की आवश्यकता पर जोर दिया।
आत्मसम्मान आंदोलन
• 1920 के दशक में वी. रामास्वामी नायकर उर्फ पेरियार ने इस आंदोलन को प्रारंभ किया। आत्मसम्मान आंदोलन में ब्राह्मणों की सर्वोच्चता को चुनौती दी गई तथा लोगों से ब्राह्मणवाद का विरोध करने के लिये आगे आने को कहा गया।
• ब्राह्मणों की सहायता के बिना विवाह, मंदिरों में जबरन प्रवेश तथा मनुस्मृति को जलाने आदि के लिये आंदोलन किये गए।
• पेरियार द्वारा तमिल भाषा में रामायण की रचना की जिसे 'सच्ची रामायण' कहा गया।
डॉ. भीमराव अंबेडकर
• इनका जन्म 1891 में मध्य प्रदेश के महू जिले में एक अस्पृश्य जाति महार में हुआ था।
• 1924 में 'बहिष्कृत हितकारिणी सभा' का निर्माण किया, जिसका उद्देश्य अस्पृश्य लोगों की भौतिक एवं नैतिक उन्नति करना था।
• 1930 में अंबेडकर ने राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश किया। उन्होंने अछूतों के लिये अलग मताधिकार मांगा। उनको लंदन में हुई तीनों गोलमेज सम्मेलनों (1930-32) में अछूतों के प्रतिनिधि के रूप में बुलाया गया था।
• इन्होंने द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में निम्न जातियों के लिये पृथक् निर्वाचन प्रणाली की बात की जिसे मान लिया गया तथा ब्रिटिश प्रधानमंत्री द्वारा सांप्रदायिक निर्णय दिया गया। इससे दुःखी होकर गांधीजी ने आमरण अनशन आरंभ कर दिया। अंत में 1932 में 'पूना समझौता' के साथ उपवास समाप्त किया।
• 1942 में ऑल इंडिया डिप्रेस्ड क्लास फेडरेशन की स्थापना की।
• संविधान सभा में प्रारूप समिति के अध्यक्ष बने और बाद में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया।
वायकोम सत्याग्रह
• वायकोम सत्याग्रह एक प्रकार का गांधीवादी आंदोलन था। यह आंदोलन ब्राह्मणवाद के विरुद्ध तथा मंदिर में प्रवेश को लेकर चलाया गया था। यह एझवा वर्ग के उत्थान की बात करता था।
• 19वीं सदी के अंत तक केरल में नारायण गुरु, एन. कुमारन, टी. के. माधवन जैसे बुद्धिजीवियों ने छुआछूत के खिलाफ आवाज़ उठाई। 'श्री नारायण धर्म परिपालन योगम् संगठन' ने श्री नारायण गुरु के नेतृत्व में मंदिर में निम्न वर्ग के प्रवेश का समर्थन किया। मंदिरों में निम्न वर्ग के प्रवेश को लेकर सवर्णों के संगठन नायर सर्विस सोसायटी, नायर समाज व केरल हिंदू सभा ने आंदोलन का समर्थन किया। नंबूदरियों (उच्च ब्राह्मण) के संगठन 'योगक्षेम सभा' ने भी इस आंदोलन को समर्थन दिया।
• मार्च 1925 में गांधीजी की मध्यस्थता में त्रावणकोर की महारानी से मंदिर में प्रवेश के बारे में आंदोलनकारियों से समझौता हुआ।
सती प्रथा
• लॉर्ड विलियम बेंटिक के समय में 1829 में सती प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया गया।
• प्रारंभ में इसे बंगाल में लागू किया गया। इस अधिनियम को पारित कराने में राजा राममोहन राय की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही।
पारसी धर्म सुधार आंदोलन
• पारसी धर्म की पुनः प्राचीन शुद्धता को प्राप्त करने के उद्देश्य से 19वीं सदी के आंरभ में मुंबई से पारसी धर्म सुधार आंदोलन शुरू किया गया।
• 1851 में नौरोजी फरदोनजी, दादाभाई नौरोजी, एस.एस. बंगाली, आर.के. कामा के सहयोग से 'रहनुमाई मजदायस्नान सभा' गठित की गई तथा सभा के संदेश को पारसी समाज तक पहुँचाने के उद्देश्य से एक पत्रिका 'रास्त गोफतार' चलाई गई।
• यह आंदोलन जितना अधिक सचेत पारसी धर्म में फैली रूढ़िवादिता से था उतना ही अधिक जागरूक समाज में महिलाओं की स्थिति को लेकर भी था।
• महिलाओं की स्थिति को सुधारने के उद्देश्य से स्त्री शिक्षा पर बल दिया गया। परदा प्रथा समाप्त कर दी गई. विवाह की आयु बढ़ा दी गई।
• यह सुधार आंदोलन अत्यधिक प्रभावशाली रहा और कालांतर में पारसी समुदाय भारतीय समाज के सबसे अधिक समृद्ध और आधुनिक वर्ग में परिणत हो गया।
नोटः पारसी धर्म में मनुष्य के शव की अंत्येष्टि विशेष प्रकार से की जाती है। शव को खुले आसमान में काफी ऊँचाई पर (दाख्मा में) रख दिया जाता है ताकि चील गिद्ध उसे खा जाएँ। मान्यता है ऐसा करने से पृथ्वी, जल व अग्नि की शुद्धता बनी रहती है।
सिख धर्म सुधार आंदोलन
• पश्चिमी तर्कसंगत विचारों का प्रभाव सिख अनुयायियों पर भी पड़ा। • इससे पूर्व में सिख धर्म में सुधार हेतु बाबा दयाल दास द्वारा 'निरंकारी आंदोलन' चलाया गया। बाबा राम सिंह द्वारा 'नामधारी आंदोलन' चलाया गया।
• 1870 में अमृतसर में सिंह सभा आंदोलन प्रारंभ हुआ।
• सिंह सभा द्वारा अमृतसर में खालसा कॉलेज की स्थापना में सहायता की गई और बहुत से गुरुद्वारे व विद्यालय स्थापित किये गए। गुरुमुखी और पंजावी साहित्य को विशेष प्रोत्साहन दिया गया। लेकिन इस दिशा में वास्तविक और अधिक प्रतिक्रियावादी गतिविधियाँ 1920 में अकाली आंदोलन के साथ प्रारंभ हुई। अकालियों का मुख्य उद्देश्य गुरुद्वारों का प्रबंधन सुधारना था। गुरुद्वारों में कार्यरत महंतों के पास अकूत मात्रा में धन और जमीन भक्तों से प्राप्त होती थी। महंत इस संपत्ति का प्रयोग निजी स्वार्थों की पूर्ति में करते थे।
• अकालियों के नेतृत्व में 1921 में सिख जनता ने इसका विरोध किया और महंतों के विरुद्ध अहिंसात्मक असहयोग सत्याग्रह आंदोलन प्रारंभ किया। बाध्य होकर सरकार को 1922 में सिख गुरुद्वारा अधिनियम पास करना पड़ा। इसी अधिनियम में 1925 में कुछ संशोधन किये गए।
• इस अधिनियम की सहायता और कभी-कभी सीधी कार्यवाही द्वारा गुरुद्वारों से भ्रष्ट महंतों को निकाल दिया।
सामाजिक सुधार हेतु उठाये गए कदम
बाल विवाह
भारत में बाल विवाह की समस्या प्रारंभ से रही है। आधुनिक काल में ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने इसे रोकने का साहसिक प्रयास किया। विद्यासागर तथा उनके समर्थकों के दबाव के कारण 1860 में लड़की की विवाह की न्यूनतम आयु 10 वर्ष कर दी गई, इससे कम आयु में विवाह को अपराध घोषित कर दिया गया।
ब्रिटिश सरकार ने बाल विवाह को प्रतिबंधित करने के लिये तीन अधिनियम पारित किये-
(i) सिविल मैरिज एक्ट या नेटिव मैरिज एक्ट, 1872
इस अधिनियम के द्वारा लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु 14 वर्ष तथा लड़कों की 18 वर्ष कर दी गई। इस एक्ट द्वारा बहुविवाह प्रथा को समाप्त कर दिया गया।
(ii) सम्मति आयु अधिनियम, 1891
• यह अधिनियम प्रसिद्ध भारतीय समाज सुधारक एवं बंबई के पारसी बहरामजी मालावारी के प्रयत्न से पारित हुआ। इसे 1891 में सम्मति आयु एक्ट काउंसिल द्वारा पारित कर दिया गया।
• इस अधिनियम के द्वारा लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु 12 वर्ष कर दी गई। बाल गंगाधर तिलक ने इस अधिनियम का विरोध किया।
(iii) बाल विवाह निरोधक अधिनियम, 1929 (शारदा एक्ट)
• अजमेर निवासी एवं प्रसिद्ध शिक्षाविद् डॉ. हरविलास शारदा के प्रयत्न से बाल विवाह निषेध कानून बना। उन्हीं के नाम पर यह 'शारदा एक्ट' कहलाया।
• इस अधिनियम द्वारा विवाह की न्यूनतम आयु लड़कियों को 14 तथा लड़कों की 18 वर्ष निर्धारित की गई।
• स्वतंत्रता पश्चात् भारत सरकार द्वारा 1978 में बाल विवाह निरोधक अधिनियम संशोधित किया गया और बालक के विवाह की आयु 18 वर्ष से बढ़ाकर 21 वर्ष तथा बालिका की 14 वर्ष से बढ़ाकर 18 वर्ष निर्धारित की गई। (बाल विवाह का समर्थन करने वाले के विरुद्ध दंड का प्रावधान भी शामिल है)।
विधवा पुनर्विवाह आंदोलन
महाराष्ट्र में विधवा पुनर्विवाह आंदोलन का नेतृत्व विष्णु परशुराम पंडित द्वारा किया गया। उन्होंने वर्ष 1850 में विडो रिमैरिज सोसायटी की स्थापना की थी।
1856 का विधवा पुनर्विवाह अधिनियम
• 1856 का विधवा पुनर्विवाह अधिनियम लॉर्ड कैनिंग के समय में 1856 में पारित हुआ।
• इसे पारित करवाने में ईश्वर चंद्र विद्यासागर की मुख्य भूमिका रही। इस अधिनियम के तहत विधवाओं के पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता प्रदान कर दी गई।
ठगी प्रथा
लॉर्ड विलियम बेंटिक ने ठगी प्रथा का उन्मूलन किया। इसके लिये उन्होंने एक अधिकारी 'कर्नल स्लीमैन' की नियुक्ति की। 1837 तक ठगों का दमन कर दिया गया।
शिशु वध
• शिशु वध सामान्यतः राजपूतों में प्रचलित था, जो कन्याओं के जन्म लेते ही उन्हें मार देते थे।
• गवर्नर जनरल जॉनशोर के समय में 1795 में तथा वेलेजली के समय 1804 के नियम 3 से शिशु वध को साधारण हत्या के रूप में माना जाने लगा। इस प्रकार शिशु वध धीरे-धीरे समाप्त हो गया।
नरबलि प्रथा
इस प्रथा को समाप्त करने का श्रेय हॉर्डिंग प्रथम को जाता है, इसके लिये उसने कैंपबेल की नियुक्ति की। 1844-45 तक यह प्रथा समाप्त हो गई।
• नरबलि प्रथा मुख्यतः खोंड जनजाति में प्रचलित थी।
दास प्रथा
• गवर्नर जनरल लॉर्ड एलनबरो ने 1843 में भारत में दास प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया।
• ध्यातव्य है कि मध्यकाल मे फिरोजशाह तुगलक और अकबर ने दासों के व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया था।
नोटः 1833 के अधिनियम में निर्देश था कि दास प्रथा को समाप्त कर दिया जाए।
भूमिका
1857 की क्रांति के पश्चात् भारत में राष्ट्रवादी भावनाओं का विकास उभरने लगा। इस दौर के क्रांतिकारियों ने भारतीय जनमानस में नायकों का स्थान प्राप्त किया। भारतवासियों ने देश के आर्थिक पिछड़ेपन को उपनिवेशी शासन का परिणाम माना। उनका मानना था कि देश के विभिन्न वर्ग के लोगों, यथा-कृषक, शिल्पकार, दस्तकार, मजदूर, बुद्धिजीवी, शिक्षित एवं व्यापारियों आदि सभी के हित विदेशी शासन की भेंट चढ़ गए हैं।
अंग्रेजों की भेदभाव पूर्ण नीतियों ने आधुनिक राष्ट्रवाद के विकास में योगदान दिया। देशवासियों का मानना था कि देश में जब तक विदेशी शासन रहेगा, लोगों के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक तथा राजनीतिक हितों पर कुठाराघात होता रहेगा।
कॉन्ग्रेस की स्थापना (1885) से पूर्व भारत व लंदन में कई राजनीतिक संस्थाओं का गठन हुआ। बंगाल, बंबई एवं मद्रास में इन राजनीतिक संस्थाओं ने पत्र-पत्रिका, अखबार एवं जनसभाओं आदि माध्यमों से लोगों को अपने अधिकारों के लिये जागरूक किया। परिणामतः लोगों में राष्ट्रीयता की भावना जागृत हुई। सामान्य जनता अब आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगी। निश्चित ही भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के इस प्रारंभिक दौर में इन संस्थाओं ने राष्ट्रवादी विचारों के विकास में अपनी महती भूमिका निभाई।
बंगाल में राजनीतिक संस्थाएँ लैंडहोल्डर्स सोसायटी या ज़मींदारी एसोसिएशन
• लैंडहोल्डर्स सोसायटी की स्थापना 1838 में द्वारकानाथ टैगोर द्वारा कलकत्ता में की गई थी।
• ध्यातव्य है कि लैंडहोल्डर्स सोसायटी पहली राजनीतिक सभा थी, जिसने संगठित राजनीतिक प्रयासों का शुभारंभ किया। इस संस्था ने जमींदारों के हितों की सुरक्षा तथा उनकी शिकायतों को दूर करने के लिये संवैधानिक उपचारों का प्रयोग किया।
• कलकत्ता के जमींदारों की यह सभा इंग्लैंड की 'ब्रिटिश इंडिया सोसायटी' को भी सहयोग करती थी, जिसकी स्थापना विलियम एडम्स द्वारा की गई थी।
• लैंडहोल्डर्स सोसायटी के प्रमुख भारतीय नेता द्वारकानाथ टैगोर, राधाकांत देव, प्रसन्न कुमार ठाकुर आदि ज़मींदार थे। इसलिये इसे 'जमींदारी एसोसिएशन' भी कहा जाता है।
बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी
• 1843 में जॉर्ज थॉमसन की अध्यक्षता में 'बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी' नामक राजनीतिक सभा की स्थापना हुई। यह भारतीय
तथा गैर-सरकारी अंग्रेजों का सम्मिलित संगठन था।
• इस सभा का मुख्य उद्देश्य अंग्रेजी शासन में भारतीयों की वास्तविक अवस्था के विषय में जानकारी प्राप्त कर उनका प्रचार-प्रसार करना तथा जनता की उन्नति व न्यायपूर्ण अधिकारों के लिये शांतिमय और कानूनी साधनों का प्रयोग करना था।
ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन
• अक्तूबर 1851 में ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की स्थापना कलकत्ता में राधाकांत देव की अध्यक्षता में की गई। इसके अन्य प्रमुख सदस्यों में देवेंद्रनाथ टैगोर, रामगोपाल घोष, प्यारी चंद्र मित्र, कृष्णदास पाल आदि थे।
• पूर्ववर्ती दोनों प्रमुख संस्थाओं (लैंडहोल्डर्स सोसायटी एवं बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी) की असफलताओं के कारण इन दोनों को मिलाकर 'ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन' का गठन किया गया।
• यह संस्था भूमिपतियों के हितों के लिये मुख्य रूप से कार्यरत थी। इसी के प्रयासों से 1853 में चार्टर के नवीकरण के समय ब्रिटिश संसद को प्रार्थना पत्र भेजा गया था। इस प्रार्थना पत्र में एक लोकप्रिय विधानसभा, न्यायिक एवं दंडनायक कार्य पृथक् किये जाने. अधिकारियों के वेतन कम किये जाने तथा नमक, आबकारी व स्टांप
कर को समाप्त किये जाने आदि की मांग की गई।
• इसके परिणामस्वरूप 1853 के चार्टर एक्ट में गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी में 6 नए सदस्यों को कानून बनाने के लिये जोड़ लिया गया। • इस संगठन ने नील विद्रोह की जाँच हेतु आयोग बैठाने की मांग की थी।
• 'हिंदू पैट्रियट' इस संस्था का मुख्य पत्र था।
इंडियन लीग
• 25 सितंबर, 1875 को शिशिर कुमार घोष द्वारा इंडियन लीग की स्थापना कलकत्ता में की गई।
• इसके अस्थायी अध्यक्ष शंभू चंद्र मुखर्जी थे।
• इस संस्था का मुख्य उद्देश्य लोगों में राष्ट्रवाद की भावना का विकास कर राजनीतिक शिक्षा को प्रोत्साहन देना था।
इंडियन एसोसिएशन (भारत संघ)
• 26 जुलाई, 1876 को सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने आनंद मोहन बोस के सहयोग से कलकत्ता के अल्बर्ट हॉल में इसकी स्थापना की। सुरेंद्रनाथ बनर्जी इसके संस्थापक तथा आनंद मोहन बोस इसके सचिव थे।
सुरेंद्रनाथ बनर्जी को 'राष्ट्र गुरु' के नाम से भी जाना जाता है।
• इंडियन एसोसिएशन की स्थापना, इंडियन लीग के स्थान पर की गई थी।
• इसका उद्देश्य मध्यम वर्ग के साथ-साथ साधारण वर्ग को भी इसमें सम्मिलित करना था. इस कारण इसका चंदा पाँच रुपये वार्षिक रखा गया।
• इस एसोसिएशन में जमींदारों की जगह मध्यम वर्ग को प्राथमिकता दी गई।
• इस संगठन ने सिविल सर्विसेज आंदोलन चलाया, जिसे 'भारतीय जानपद सेवा आंदोलन' (सिविल सर्विस मूवमेंट) भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट, आर्म्स एक्ट तथा इल्बर्ट बिल के विरोध में आंदोलन चलाया गया।
• 1883 में सुरेंद्रनाथ बनर्जी को अपने पत्र 'बंगाली' में कलकत्ता हाईकोर्ट के न्यायाधीश जे.एफ. नॉरिस की आलोचना करने के कारण 2 माह की सजा हुई।
• इंडियन एसोसिएशन ने दिसंबर 1883 में कलकत्ता के अल्बर्ट हॉल में आनंद मोहन बोस की अध्यक्षता में पहली इंडियन नेशनल कॉफ्रेंस का आयोजन किया। दूसरी इंडियन नेशनल कॉफ्रेंस कलकत्ता में दिसंबर 1885 में हुई। इसकी अध्यक्षता सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने की थी। 1886 में इसका विलय भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस में हो गया।
कलकत्ता स्टूडेंट्स एसोसिएशन
• कलकत्ता स्टूडेंटस एसोसिएशन की स्थापना 1875 में आनंद मोहन बोस ने की थी।
• आनंद मोहन बोस के साथ सुरेंद्रनाथ बनर्जी भी छात्रों के इस संगठन में शामिल हुए। कालांतर में सुरेंद्रनाथ बनर्जी छात्रों के बड़े नेता बनकर उभरे।
बंबई में राजनीतिक संस्थाएँ
बंबई एसोसिएशन
• 26 अगस्त, 1852 को दादाभाई नौरोजी ने कलकत्ता के ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की तर्ज पर 'बंबई एसोसिएशन' की स्थापना की।
• इस संगठन का मुख्य उद्देश्य सरकार को समय-समय पर ज्ञापन देना था, ताकि भेदभावपूर्ण समझे जाने वाले नियमों तथा सरकारी नीतियों के लिये सुझाव दिये जा सकें।
• इस संस्था ने भी अंग्रेजी संसद को एक ज्ञापन भेजा जिसमें नई विधान परिषदों, जिनमें भारतीयों को भी प्रतिनिधित्व मिले, के बनाए जाने की बात की। उन्होंने भारतीयों की ऊँचे पदों पर नियुक्तियाँ न करने और अंग्रेज़ अधिकारियों को बड़े-बड़े वेतन देने की भी निंदा की। हालाँकि, यह एसोसिएशन बहुत दिनों तक नहीं चल सका।
पूना सार्वजनिक सभा
• 1867 (कुछ स्रोतों में 1870) में महादेव गोविंद रानाडे (एम.जी. रानाडे) एवं गणेश वासुदेव जोशी द्वारा पूना सार्वजनिक सभा की स्थापना की गई।
• इस सभा का उद्देश्य जनता को यह बताना था कि सरकार के वास्तविक उद्देश्य क्या हैं? अपने अधिकार कैसे प्राप्त किये जा सकते हैं। 1875 में इस संस्था ने ब्रिटिश संसद में भारतीयों के प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व की मांग करते हुए हाउस ऑफ कॉमंस के समक्ष याचिका प्रस्तुत की। इस सभा के सक्रिय सदस्यों में एस.एच. साठे तथा एस.एच. चिपलूणकर थे।
• पूना सार्वजनिक सभा मुख्यतः नवोदित मध्यम वर्ग, जमींदारों और व्यापारियों के हितों का प्रतिनिधित्व करती थी। इसके अधिकांश सदस्य ब्राह्मण व वैश्य थे। इसी कारण यह संस्था किसानों तक अपनी पहुँच नहीं बना सकी।
बंबई प्रेसिडेंसी एसोसिएशन
• 1885 में फिरोजशाह मेहता, बदरुद्दीन तैय्यबजी व के.टी. तैलंग द्वारा बंबई प्रेसिडेंसी एसोसिएशन की स्थापना की गई।
• 1885 में बंबई में नागरिकों की एक सभा जमशेदजी जीजी भाई की अध्यक्षता में बुलाई गई। इसी सभा में इस संगठन के गठन की घोषणा की गई। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य लोगों के मध्य राजनीतिक विचारों को फैलाना था।
मद्रास में राजनीतिक संस्थाएँ
मद्रास नेटिव एसोसिएशन
• कलकत्ता के ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की शाखा 1852 में मद्रास में स्थापित की गई। इसकी स्थापना गजुलू लक्ष्मीनरसु चेट्टी ने की थी।
• इस संस्था ने अंग्रेजी संसद को 1853 के चार्टर से पूर्व एक ज्ञापन भेजा जो बंबई तथा कलकत्ता एसोसिएशन के नमूने पर आधारित था।
मद्रास महाजन सभा
• 1884 में एम. वीर राघवाचारी, जी. सुब्रह्मण्यम् अय्यर और पी. आनंद चालू ने मद्रास महाजन सभा की स्थापना की थी।
• इसका उद्देश्य स्थानीय संगठनों के कार्यों को समन्वित करना था।
• इसका पहला सम्मेलन 29 दिसंबर, 1884 से 2 जनवरी, 1885 तक मद्रास में आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में विधान परिषदों के
सुधार, कार्यपालिका से न्यायपालिका के अलगाव तथा खेतिहरों की
हालातों पर विचार-विमर्श किया गया।
लंदन में राजनीतिक संस्थाएँ
लंदन इंडिया सोसायटी
• 1865 में गठित इस संस्था की स्थापना दादाभाई नौरोजी के नेतृत्व में की गई। इसमें फिरोजशाह मेहता, बदरुद्दीन तैय्यबजी, डब्ल्यू.सी. बनर्जी एवं मनमोहन घोष आदि प्रमुख रूप से शामिल थे।
• इस संस्था का मुख्य उद्देश्य भारतीयों पर अंग्रेज़ों के गलत व्यवहार एवं नीतियों की शिकायत अंग्रेजी प्रेस के माध्यम से लोगों तक पहुँचाना था।
ईस्ट इंडिया एसोसिएशन
• 1866 में दादाभाई नौरोजी द्वारा ईस्ट इंडिया एसोसिएशन की स्थापना की गई।
• ईस्ट इंडिया एसोसिएशन का उद्देश्य ब्रिटिश जनता तथा संसद को भारतीय विषयों से अवगत कराना तथा भारतवासियों के पक्ष में इंग्लैंड में जनसमर्थन तैयार करना था।
• 1869 में बंबई में इसकी शाखा स्थापित हुई। कालांतर में भारत के विभिन्न भागों में इसकी शाखाएँ खुल गई।
• कॉन्ग्रेस की स्थापना से पूर्व यह एक ऐसी संस्था थी. जिसने युवा वर्ग को भारत में स्वाधीनता प्राप्त करने के लिये उत्साहित किया।